जिस देश में भगवत रहते हैं...अरुण आदित्यगहिरी नदी अगम बहै धरवा, खेवन-हार के पडिग़ा फन्दा।
घर की वस्तु नजर नहि आवत, दियना बारिके ढूँढ़त अन्धा कबीर की इन पंक्तियों से इस लेख की शुरुआत होने ही जा रही थी कि अचानक ब्रेख्त की कुछ काव्य-पंक्तियां मन में कौंध उठीं। और एक द्वंद्व छिड़ गया कि कबीर से शुरू करूं या ब्रेख्त से? और मेरे द्वंद्व का आनंद लेते हुए कबीर और ब्रेख्त की सतरें ठेठ लखनवी अंदाज में 'पहले आप-पहले आप' करने लगीं। पर अंतत: दोनों को इस बात का एहसास हो गया कि उनमें से किसी का भी ठिकाना लखनऊ में नहीं है, इसलिए 'पहले आप' के लखनवी लटके का कोई मतलब नहीं है; और इस बात पर सहमति हो गई कि इस भगवत-चर्चा का शुभारंभ कबीर के साथ और समाहार ब्रेख्त की कविता के साथ होगा। अब जब कबीर की इन पंक्तियों से लेख शुरू हो ही चुका है, तो आइए इसके पक्ष में कुछ तर्क भी देख लिए जाएं। मसलन भगवत रावत का कविता-समय भी ठीक वैसा ही है, जिसमें देश (राष्ट्र नहीं) गहरी नदी की अगम धार में फंसा हुआ है, और खेवनहार फंदों में कसे हुए हैं। यह ठीक वही देश-काल तो है जिसमें अंधा समाज दीये की रोशनी में चीजों को ढूंढऩे का उपक्रम कर रहा है। और कबीर की तरह ही भगवत रावत की कविता भी कभी चीख-चीखकर और कभी कान में फुसफुसा कर यही कहना चाहती है कि भैया इस अंधेरे समय में तुम्हें दीये से पहले दृष्टि की जरूरत है। खुली आंखें चाहिए जिनसे आसपास का अंधेरा ही नहीं, भविष्य के स्वप्न भी देखे जा सकें।
भगवत रावत का नया कविता -संग्रह 'देश एक राग है' पढ़ते हुए यह बात एक बार फिर साफ हो जाती है कि उनकी कविता प्रेक्षाभाव-मात्र की कविता नहीं है। हालांकि अपने अनेक समकालीनों और परवर्ती कवियों की तरह भगवत भी एक कुशल प्रेक्षक की तरह सूक्ष्म-विवरणों तक जाते हैं, परंतु विवरणों में विचरते हुए वे सभ्यता-समीक्षा के अपने मूल कर्म को नहीं भूलते। यही वजह है कि उनकी कविता एक ऐसे प्रिज्म की तरह है, जो एक रंग का दिखने वाले प्रकाश के सातों रंगों को खोलकर प्रत्यक्ष कर देती है। वहां शुरुआत में प्रेम का बैंगनी रंग है तो अंतिम छोर पर क्रांति का लाल रंग भी है। और इन्हीं के बीच उदासी का पीला और सपनों का आसमानी रंग भी है। उनकी काव्य-दृष्टि ढलते हुए सूरज में भी उम्मीद का बिंब तलाश लेती है-
चुपचाप शांति से देखो यह दृश्य
वह निस्तेज नहीं हो रहा
ढल रहा है किसी और जगह की सुबह के लिए(सूरज ढल रहा है, पृष्ठ 38 ,पेपर बैक संस्करण)
इतने अंधेरे समय में उम्मीद की यह आश्वस्ति कहां से आती है? जाहिर है कि इस उम्मीद का उत्स वही ढाई अक्षर हैं, तमाम पोथियों के बजाय जिन्हें पढ़कर आदमी बकौल कबीर पंडित हो जाता है। जी हां, यह प्रेम की ही ताकत है-
तुम हो तो है इस तरह एक और सुबह पाने की उम्मीद की नींद।(तुम हो तो , पृष्ठ 39 पेपर बैक संस्करण)
भगवत रावत की एक कविता है 'डायरी' जिसकी अंतिम पंक्तियां हैं- सच पूछो तो कवि की कविताएं ही होती हैं उसकी असली डायरी। दूसरे कवियों के बारे में यह कितना सच है, नहीं कहा जा सकता, लेकिन भगवत की अपनी कविता वास्तव में एक डायरी ही है, जिसमें उन्होंने अपने मन और जीवन को शब्द-दर-शब्द दर्ज किया है। हालांकि यह कवि की निजी डायरी है, लेकिन इसमें दर्ज सपने, आकांक्षाएं, कमजोरियां, हंसी, आंसू, प्रेम, नफरत आदि सिर्फ उनके ही नहीं, बल्कि इस देश की उस आम आबादी के हैं, जिसे भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्यारे देशवासियो कह कर संबोधित करते हैं।
इस संग्रह को पढ़ते हुए यह विश्वास एक बार फिर दृढ़ होता है कि भगवत रावत की कविता एक बेहतर दुनिया का ब्लू प्रिंट है। इस ब्लू प्रिंट में उन छोटे-छोटे लोगों के छोटे-छोटे सपनों के लिए भी पर्याप्त जगह मुकर्रर है
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं और जिन्हें रत्ती भर भी अंदेशा नहीं है कि उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है यह पृथ्वी। पूंजीवाद के साथ कदमताल करते साम्राज्यवाद के बूटों तले रौंदी जा रही मानवता की पुकार इस संग्रह की अनेक कविताओं में सुनी जा सकती है। इस कविता के एक छोर पर संवेदना है तो दूसरे छोर पर अदम्य युयुत्सा भी है। दरअसल कवि की ज्ञानात्मक संवेदना ही इस कविता को युयुत्सु बनाती है। प्रतिपक्ष में चाहे भूमंडलीकरण के नाम पर खेल रहा खलमंडल हो, या धर्म के नाम पर अधर्म का तेजाब बांटता कमंडल, भगवत रावत चुनौती को चुनौती की भाषा में ही प्रस्तुत करते हैं, बुझौती की भाषा में नहीं। खुलकर कहने में यकीन करते हैं और जहां जरूरी समझते हैं, नाम लेने से भी परहेज नहीं करते। जॉर्ज बुश से लेकर नरेंद्र मोदी तक को वे नाम लेकर ही पहचानते हैं। भगवत जानते हैं कि नाम लेने में खतरा है, पर वे यह भी जानते हैं कि खतरा उठाए बिना न मानवता बचाई जा सकती है और न ही कविता। खासकर ऐसे समय में जबकि मनुष्यता जैसे पद का भी अपहरण हो चुका है और उसी के नाम पर तमाम मनुष्यता विरोधी काम हो रहे हैं।
मनुष्यता को बचाने उन्होंने हिरोशिमा पर बम डाला मनुष्यता को बचाने उन्होंने वियतनाम उजाड़ डाला। (उनकी मनुष्यता, पृष्ठ 29 पेपर बैक संस्करण)
जाहिर है कि जालिम-जुबानों से बार-बार दोहराए जाने के बाद मनुष्यता जैसे पद भी अपना अर्थ खोने लगते हैं। ऐसे में भगवत रावत जैसा सजग कवि शब्दों का नया अर्थ रचने की चुनौती को कैसे अस्वीकार कर सकता है। उसे पता है कि यह चुनौती कठिन है, पर इसके बिना बचाव नहीं है-
दुनिया का सबसे कठिन काम है जीना
और उससे भी कठिन उसे, शब्द के अर्थ की तरह
रच कर दिखा पाना
जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता(वह मारा नहीं जा सकता, पृष्ठ 69 पेपर बैक संस्करण)
संग्रह की शीर्षक कविता देश एक राग है एक ऐसी सिंफनी है जिसमें वादी, संवादी और विवादी सुर आपस में उलझे हुए हैं। इनकी उलझन देखकर ही यह समझा जा सकता है कि देश-राग और राष्ट्र-राग में अलग-अलग सुर क्यों लगते हैं और राष्ट्रवादी हुए बिना भी देशभक्त कैसे हुआ जा सकता है।
आज भी बड़े शहरों से मेहनत मजदूरी करके
जब अपने-अपने घर-गांव लौटते हैं लोग
तो एक दूसरे से यही कहते हैं
कि वे अपने देस जा रहे हैं
वे अपने पशुओं-पक्षियों, खेतों-खलिहानों नदियों-तालाबों,
कुओं-बावडिय़ों, पहाड़ों-जंगलों मैदानों-रेगिस्तानों
बोली-बानियों, पहनावों-पोशाकों, कान-पान रीति-रिवाज
और नाच-गानों से इतना प्यार करते हैं कि कुछ न होते हुए गांठ में
भागे चले जाते हैं हजारों मील ट्रेन में सफर करते बीड़ी फूंकते हुए वे सच्चे देशभक्त हैं वे नहीं जानते राष्ट्रभक्त कैसे हुआ जाता है। (देश एक राग है: पृष्ठ 11 पेपर बैक संस्करण)
भगवत जानते हैं कि राष्ट्रवाद आगे बढ़ता है तो साम्राज्यवाद की सीमा को छूने लगता है और पीछे हटता है तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गोद में चैन तलाशता है। जबकि देश-प्रेम अपने जल-जंगल-जमीन, पशु-पक्षी-पर्यावरण के नजदीक ले जाता है। इस एक कविता को पढ़कर भगवत रावत की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समझ, उनके तंज और रंज, शब्दों के खेल और शिल्प की सुघड़ता, सब की एक सुंदर बानगी मिल जाती है।
दिल्ली को केंद्र में रखकर लिखी गई लंबी कविता का शीर्षक 'कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबो-हवा और' सुनकर मिर्जा गालिब की बहुचर्चित पंक्ति 'कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयां और' की याद आती है। यह कविता गालिब से क्षमा याचना के साथ ही शुरू होती है। लेकिन इस कविता में जो दिल्ली है, वह गालिब की दिल्ली नहीं है। वह अमीर खुसरो, निजामुद्दीन औलिया की दिल्ली भी नहीं है। यह दिल्ली फकत एक शहर नहीं एक सर्वग्राही सत्ता का रूपक है। जिसकी ठसक दिल्ली से बाहर वालों के लिए एक कसक है। यह कविता विभिन्न कोणों से दिल्ली का एक्स-रे चित्र खींचती है। और यह बता देती है कि मुहावरे में भले ही हो, वास्तविकता में दिल्ली देश का दिल नहीं है-
दिल्ली को केंद्र मानकर कैसे भी नाप-जोखकर खींचा जाए कोई वृत्त उसमें समाएगा नहीं पूरा देश या तो वह छोटा पड़ जाएगा या दूसरे देशों की सीमाओं में चला जाएगा। (कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ ... पृष्ठ 117 पेपर बैक संस्करण)
अपने देश-राग का रंग जमाने के लिए भगवत पुरखों की संगत भी बिठा लेते हैं। अब देखिए न, उन्होंने अपनी एक कविता का शीर्षक ही चचा गालिब की एक काव्य-पंक्ति को बना दिया- नींद क्यों रात भर नहीं आती। और गालिब के इस सवाल का जवाब ढूंढ़ते हुए भगवत रावत दुखिया दास कबीर के पास पहुंच जाते हैं।
नींद का न आना जागते रहना ही नहीं होता वह तो अकेला दुखिया दास कबीर था जो सारी-सारी रात जागता था और रोता था मैं तो सचमुच आजादी की नींद सोना चाहता थाआजादी की नींद और आजादी के स्वप्न की तलाश में भगवत रावत सिर्फ गालिब और कबीर ही नहीं, विजय तेंदुलकर, मेधा पाटकर, मुक्तिबोध तक को याद करते हैं। यही नहीं, सात समंदर पार के कवि टी एस इलियट तक के पास जाते हैं और उनकी कविता के एक पात्र जे. अल्फ्रेड प्रूफ्रॉक को उसके देश-काल से अपने देश-काल में खींच लाते हैं। 'जे. अल्फ्रेड प्रूफ्रॉक से एक बातचीत' शीर्षक कविता में भगवत रावत अत्यंत सहज तरीके से यह बता देते हैं कि इलियट ने पाश्चात्य सभ्यता की जिन पतनशील प्रवृत्तियों की ओर इशारा किया था, वे हमारी 'महान भारतीय संस्कृति' में किस कदर घुस आई हैं।
और अंत में ब्रेख्तजैसा कि शुरू में ही करार हो चुका है कि इस लेख का समाहार ब्रेख्त की काव्य पंक्तियों के साथ होगा। तो सुधी पाठक गण! प्रस्तुत हैं वे पंक्तियां जिन्हें आप अनेक बार पढ़ चुके होंगे, पर इस बार पढऩे के लिए नहीं, लडऩे के लिए पढ़ें-
क्या अंधेरे वक्त में भी गीत गाए जाएंगे हां, अंधेरे के बारे में भी गीत गाए जाएंगे। मेरे कबीर की तरह क्या आप को भी लग रहा है कि इस लेख की शुरुआत इन्हीं पंक्तियों के साथ होनी चाहिए थी?
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लखनऊ से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका लमही ने भगवत रावत पर एक महत्वपूर्ण अंक प्रकाशित किया है। प्रस्तुत टिप्पणी उसी अंक से ।
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देश एक राग है (कविता संग्रह), कवि : भगवत रावत, प्रकाशक : परिकल्पना प्रकाशन , डी-68, निराला नगर, लखनऊ-226020, मूल्य : 150 रुपए (सजिल्द), 80 रुपए (पेपर बैक)