Friday, May 30, 2008

ठोकर तो पत्थर को भी लगती है


ठोकर


हम अपनी रौ में जा रहे होते हैं

अचानक किसी पत्थर की ठोकर लगती है

और एक टीस सी उठती है

जो पैर के अंगूठे से शुरू होकर झनझना देती है दिमाग तक को


एक झनझनाहट पत्थर में भी उठती है

और हमारे पैर की चोट खाया हुआ हत-मान वह

शर्म से लुढ़क जाता है एक ओर


एक पल रुककर हम देखते हैं ठोकर खाया हुआ अपना अंगूठा

पत्थर को कोसते हुए सहलाते हैं अपना पांव

और पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी

झाड़ती है भय संकोच की धूल और ला खड़ा करती है उसे

किसी और के गुरूर की राह में।

-अरुण आदित्य

(पल-प्रतिपल के सितंबर-दिसंबर2 000 अंक में प्रकाशित। पल प्रतिपल का पता है : पल प्रतिपल, एससीएफ-267, सेक्टर-16, पंचकूला। देश निर्मोही इसके संपादक हैं। )

Sunday, May 18, 2008

शमीम फरहत को जानते हैं आप

उर्दू की लिपि में उनकी कोई किताब नहीं

कुछ रंग थे। थोड़ी खुशबू थी। थोड़ी धूप थी, कुछ रूप था। इन सब को मिला दो तो एक आदमी बनता था। आदमी से थोड़ा ज्यादा आदमी। दुनियादार से थोड़ा कम दुनियादार। नाम शमीम था और तखल्लुस फरहत। काम था शायरी और कमजोरी थी शराब। दोनों में एक साथ इस कदर डूबा हुआ कि न इसमें से निकलना आसां न उसमें से। शायरी के बारे में वो लिखता है,
गीत गाना जो छोड़ देता हूँ, गीत ख़ुद मुझको गाने लगते हैं।
और शराब के बारे में भी उसकी राय बहुत आशिकाना थी-
ये तौहीने बादानोशी है, लोग पानी मिला के पीते हैं
जिनको पीने का कुछ सलीका है, जिंदगानी मिला के पीते हैं।

और वो शायर जो रंग, रूप और खुशबू की बात करता था, खून की उल्टियाँ करने लगा। वरिष्ठ जनवादी लेखक राम प्रकाश त्रिपाठी ने प्रगतिशील वसुधा के अंक ७० में शमीम पर एक अद्भुत संस्मरण लिखा है। जनवादी लेखक संघ ने उनका एक संग्रह छापा है, दिन भर की धूप। शीर्षक दुष्यंत के संग्रह साए में धूप से मिलते-जुलता लगता है, लेकिन यह शमीम के एक चर्चित शेर - वो आदमी है रंग का खुशबू का रूप का/कैसे मुकाबला करे दिन भर की धूप का- से लिया गया था। राम प्रकाश जब शमीम साहब को इसकी स्क्रिप्ट दिखाने ले गए तो फर्श पर खून की उलटी देखी। राम प्रकाश ने चिंता जतायी तो इस इन्कलाबी शायर ने हंस कर कहा- अपनी जितनी कुब्बत है, उतनी धरती पर तो लाल रंग बिछा जायें। और उनसे जितनी धरती लाल हो सकती थी, उतनी लाल करके शमीम साहब ९ अगस्त १९८५ की रात ५१ बरस की उम्र में दुनिया को नमस्कार कर गए।
एक जमाने में निदा फाजली और शमीम फरहत ग्वालियर की उभरती हुई पहचान थे। बाद में निदा मुम्बई चले गए। स्टार हो गए। शमीम पद्मा विद्यालय में उर्दू पढाते रहे। मोहल्ले में इन दिनों उर्दू के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बहस चल रही है। इस सन्दर्भ में राम प्रकाश त्रिपाठी की ये पंक्तियाँ भी बहुत कुछ कहती हैं- '' अफ़सोस है कि शमीम उर्दू के थे। उनकी कोई किताब उर्दू की लिपि में नहीं है। (जनवादी लेखक संघ ने जो संग्रह छापा है वह देवनागरी में है।) मध्य प्रदेश की उर्दू अकादमी इस पशोपेश में रही कि hindi में छपी हुई किताब को उर्दू में लाना , कहीं उर्दू की तौहीन तो नहीं होगी।'' शमीम साहब भी अगर मुम्बई चले गए होते तो शायद स्टार बन जाते। प्रकाशक उनके आगे पीछे घूमते। अकादमियां उन्हें आगे बढ़ कर सम्मानित करतीं। पर क्या तब भी यह लिख पाते-

हम हकीकत की तरह दिल में चुभेंगे यारों

हम कहानी की तरह याद नहीं आयेंगे।

उनके संग्रह दिन भर की धूप से पेश हैं उनकी दो गजलें


एक

जीने से चढ़ के छत पे खड़ी हो गई है वो

रगोशियाँ हुईं कि बड़ी हो गई है वो


मलबूस में उभरते हुए जिस्म के नुकूश

देखो तो मोतियों की लड़ी हो गई है वो



बेबाक शोखियों पे मैं शरमा के रह गया

ऐसा लगा कि मुझसे बड़ी हो गई है वो



तय कर लिए हैं उसने समंदर के रास्ते

यादों के पास आके खड़ी हो गई है वो ।


दो


न तेरे नाम का कूचा न मेरे नाम का शहर

कहीं अल्लाह की बस्ती है कहीं राम का शहर



जिंदगी जह्दे मुसलसल के सिवा कुछ भी नहीं

यार मैंने भी बसाया नहीं आराम का शहर



कितने खामोश मोहल्ले कई उतरे चेहरे

तुम मेरे जाम में देखो तो मेरे जाम का शहर



जंग है भूख है अफ्लास है बेकारी है

जिस जगह जाऊँ मिले है दिले नाकाम का शहर



अब भी जलते हैं उम्मीदों के दिए गम के चराग

तूने देखा नहीं अब तक दिले बदनाम का शहर

- शमीम फरहत









Sunday, May 11, 2008

अम्मा की चिट्ठी

( शहर को खून से लथपथ कर रथ आगे बढ़ चुका है। अब शहर में कर्फ्यू है। इसी कर्फ्यू और दंगाग्रस्त शहर में बेटा फंसा हुआ है। माँ गाँव में है। उसके पास पहुँचती खबरों में दहशत है, आशंका है।दिल्ली में वी पी सिंह की सरकार लाचार है और गाँव में माँ । उसी दौर में लिखी गई थी यह कविता।लिखने के बाद मुझे ख़ुद यह सामान्य तुकबंदी जैसी ही लगी थी परन्तु इसमें पता नहीं ऐसा क्या है कि इसे पढ़कर मेरे मित्र और कला समीक्षक राजेश्वर त्रिवेदी की माँ की आँखें भर आई थीं। कवि संदीप श्रोत्रिय की माँ को भी यह कविता बहुत पसंद थी। चंडीगढ़ के पंजाब कलाभवन में इस कविता को सुनाकर मंच से उतरते ही वरिष्ठ नाटककार और जन संस्कृति मंच के पूर्व अध्यक्ष गुरशरण सिंह ने मुझे गले लगा लिया था।)


अम्मा की चिट्ठी



गांवों की पगडण्डी जैसे

टेढ़े अक्षर डोल रहे हैं

अम्मा की ही है यह चिट्ठी

एक-एक कर बोल रहे हैं



अड़तालीस घंटे से छोटी

अब तो कोई रात नहीं है

पर आगे लिखती हैअम्मा

घबराने की बात नहीं है



दीया बत्ती माचिस सब है

बस थोड़ा सा तेल नहीं है

मुखिया जी कहते इस जुग में

दिया जलाना खेल नहीं है



गाँव देश का हाल लिखूं क्या

ऐसा तो कुछ खास नहीं है

चारों ओर खिली है सरसों

पर जाने क्यों वास नहीं है



केवल धड़कन ही गायब है

बाकी सारा गाँव वही है

नोन तेल सब कुछ महंगा है

इंसानों का भाव वही है



रिश्तों की गर्माहट गायब

जलता हुआ अलाव वही है

शीतलता ही नहीं मिलेगी

आम नीम की छाँव वही है



टूट गया पुल गंगा जी का

लेकिन अभी बहाव वही है

मल्लाहा तो बदल गया पर

छेदों वाली नाव वही है


बेटा सुना शहर में तेरे

मार-काट का दौर चल रहा

कैसे लिखूं यहाँ आ जाओ

उसी आग में गाँव जल रहा



कर्फ्यू यहाँ नहीं लगता

पर कर्फ्यू जैसा लग जाता है

रामू का वह जिगरी जुम्मन

मिलने से अब कतराता है



चौराहों पर वहां, यहाँ

रिश्तों पर कर्फ्यू लगा हुआ है

इसकी नजरों से बच जाओ

यही प्रार्थना, यही दुआ है



पूजा-पाठ बंद है सब कुछ

तेरी माला जपती हूँ

तेरे सारे पत्र पुराने

रामायण सा पढ़ती हूँ



तेरे पास चाहती आना

पर न छूटती है यह मिटटी

आगे कुछ भी लिखा न जाए

जल्दी से तुम देना चिट्ठी।


- अरुण आदित्य

(मेरे पहले कविता संग्रह 'रोज ही होता था यह सब' से)