Saturday, December 12, 2009

लिख ही डाला अंतिम वाक्य अंतिम बार

लिखो, काटो...फिर लिखो, फिर काटो। इसका क्या कोई अंत है। अंतत: यही सोचकर उपन्यास उत्तर वनवास का अंतिम वाक्य अंतिम बार लिख कर खुद को मुक्त किया। फाइनल स्क्रिप्ट आधार प्रकाशन के संचालक श्री देश निर्मोही जी के पाले में पहुंच गई है। देश जी का कहना है कि जनवरी तक छाप कर ठिकाने लगा देंगे।
उपन्यास का आवरण चित्र सुपरिचित चित्रकार और कहानीकार प्रभु जोशी का है।
उपन्यास का एक अंश साहित्यिक पत्रिका पाखी के दिसंबर अंक में प्रकाशित हुआ है, जिस पर काफी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं।
एक और अंश साहित्यिक पत्रिका गुंजन के आगामी अंक में आने वाला है।
सब कुछ सामान्य रहा तो बहुत जल्द किताब आपके हाथ में होगी और मेरा सिर कढ़ाई में...

Monday, August 3, 2009

कारगिल : तीन कवितायें, तीन किस्से



1999 की बरसात के दिन थे।
युद्ध के काले बादल बरसकर छंट चुके थे। मगर चुनावी युद्ध के बादल जनता की उम्मीदों पर बरस पडऩे को बेताब थे। चुनाव की रिपोर्टिंग के सिलसिले में उस दिन मैं खरगोन जिले में था। शाम को कहानीकार भालचंद्र जोशी के घर पर जुटान हुआ। संयोग से वसुधा के सहयोगी संपादक और कवि राजेंद्र शर्मा भी उस दिन खरगोन में ही थे। कुछ और मित्र जुट गए और भालचंद्र के घर पर ही इन कविताओं का पहला पाठ हुआ।
ये कविताएं इंदौर से खरगोन जाते हुए रास्ते में लिखी गई थीं। उसी राइटिंग पैड पर, जिस पर मैं रास्ते भर निमाड़ क्षेत्र के चुनावी गुणा भाग दर्ज करता आ रहा था। उन दिनों मेरे पास दैनिक भास्कर इंदौर में फीचर प्रभाग की जिम्मेदारी थी। और चुनाव डेस्क का अतिरिक्त प्रभार भी था। सो व्यस्तता के उन दिनों में कारगिल युद्ध को लेकर फैले उन्माद के बीच हर तीसरे दिन कोई न कोई तुक्कड़ कवि कोई तुकबंदी लेकर हाजिर हो जाता, मसलन 'लाहौर में गाड़ देंगे तिरंगा और शरीफ को टांग देंगे करके नंगा।' कोई अगर कह देता कि भइया यह कविता नहीं तो वहीं पर एक और कारगिल युद्ध करने को उतारू हो जाते। एक-दो लोगों ने तो सीधे-सीधे चुनौती दे डाली कि तुम्हीं कोई कविता लिखकर बता दो कि युद्ध पर ऐसे नहीं तो कैसे लिखना चाहिए। तो इन तीनों कविताओं का लिखा जाना एक तरह से उस सब को एक रचनात्मक जवाब था।
खरगोन में भालचंद जी के घर ये कविताएं सुनने के बाद राजेंद्र शर्मा ने कहा, पैड से ये पन्ने निकालकर मुझे दे दो। वसुधा का अंक कल-परसों में प्रेस में जाने वाला है, उसमें विशेष उल्लेख के साथ देना चाहता हूं। इसी अंक में इनका जाना बेहद जरूरी है। मैंने कहा कि यह फस्र्ट ड्राफ्ट है और अभी इस पर कुछ काम होना बाकी है। परसों मैं इंदौर पहुंचकर कोरियर कर दूंगा। लेकिन परसों कहां कभी आता है। इंदौर पहुंचकर मैं अपने काम-काज में लग गया और ध्यान ही नहीं रहा कि कविताओं को फेयर करके भेजना भी है। फिर चौथे-पांचवें दिन राजेंद्र जी का फोन आया, तुमने अभी तक कविताएं भेजी नहीं, मैंने अंक रोक रखा है।' सो उसी दिन इन्हें फेयर करके रवाना किया गया। अगले हफ्ते वसुधा का वह अंक हमारे हाथ में था। अंक की शुरुआत में ही कारगिल प्रसंग के तहत विशेष उल्लेख के साथ ये कविताएं और कैरन हेडाक के स्केच छपे थे।
दूसरा किस्सा
रात 11 बजे होंगे। अचानक फोन की घंटी बजती है। मैंने उठाकर जैसे ही कहा- हलो, उस तरफ से आवाज आई-
'गोली मेरी और चीख मेरे भाई की
फिर बधाइयां क्यों बटोर रहे हैं बांके बिहारी मास्साब?
ये किस कवि की पंक्तियां हैं?' उस तरफ चंद्रकांत देवताले जी थे।
मैंने निहायत संकोच के साथ कहा कहा, 'हैं तो मेरी ही, पर कुछ गड़बड़ तो नहीं है?'
देवताले जी बोले, 'वसुधा का अंक आ गया है। तुम्हें बहुत-बहुत बधाई, तीनों कविताएं बहुत अच्छी हैं। इतनी सादगी से ऐसी गहरी बात कहने वाले बहुत कम हैं। आज ऐसी कविताओं की बहुत जरूरत है।'
'ऐसी कविताओं की बहुत जरूरत है,' यह सुनकर मुझे लगा जैसे कोई मेडल मिल गया हो, युद्ध लड़े बिना ही।

तो आप भी वसुधा-45-46 से साभार इन कविताओं को पढ़ें। और हां, तीसरा किस्सा इन कविताओं को पढ़ लेने के बाद।




अलक्षित

अभी-अभी जिस दुश्मन को निशाना बनाकर
एक गोली चलाई है मैंने
गोली चलने और उसकी चीख के बीच
कुछ पल के लिए मुझे उसका चेहरा
बिलकुल अपने छोटे भाई महेश जैसा लगा
जिस पर सन् 1973 में
जब मैं आठवीं का छात्र था और वह छठीं का
इसी तरह गोली चलाई थी मैंने
स्कूल में खेले जा रहे बंग-मुक्ति नाटक में
मैं भारतीय सैनिक बना था और वह पाकिस्तानी

बंदूक नकली थी पर भाई की चीख इतनी असली
कि भीतर तक कांप गया था मैं
लेकिन तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच
जिस तरह नजर अंदाज कर दी जाती हैं बहुत सी चीजें
अलक्षित रह गया था मेरा कांप जाना

सब दे रहे थे बांके बिहारी मास्साब को बधाई
जो इस नाटक के निर्देशक थे
और जिन्होंने कुछ तुकबंदियां लिखी थीं जिन्हें कविता मान
मुहावरे की भाषा में लोग उन्हें कवि हृदय कहते थे

नाटक खत्म होने के बाद
गदगद भाव से बधाइयां ले रहे थे बांके बिहारी मास्साब
और तेरह साल का बच्चा मैं, सोच रहा था
कि गोली मेरी और चीख मेरे भाई की
फिर बधाइयां क्यों ले रहे हैं बांके बिहारी मास्साब

अभी-अभी जब असली गोली चलाई है मैंने
तो मरने वाले के चेहरे में अपने भाई की सूरत देख
एक पल के लिए फिर कांप गया हूं मैं
पर मुझे पता है कि इस बार भी अलक्षित ही रह जाएगा
मेरा यह कांप जाना

दर्शक दीर्घा में बैठे लोग मेरे इस शौर्य प्रदर्शन पर
तालियां बजा रहे होंगे
और बधाइयां बटोर रहे होंगे कोई और बांके बिहारी मास्साब।


दुश्मन के चेहरे में

वह आदमी जो उस तरफ बंकर में से जरा सी मुंडी निकाल
बाइनोकुलर में आंखें गड़ा देख रहा है मेरी ओर
उसकी मूंछे बिलकुल मेरे पिता जी की मूंछों जैसी हैं
खूब घनी काली और झबरीली
किंतु पिता जी की मूंछें तो अब काली नहीं
सन जैसे सफेद हो गए हैं उनके बाल
और पोपले हो गए हैं गाल दांतों के टूटने से
पर जब पिता जी सामने नहीं होते
और मैं उनके बारे में सोचता हूं
तो काली घनी मूंछों के साथ
उनका अठारह बीस साल पुराना चेहरा ही नजर आता है
जब मैं उनकी छाती पर बैठकर
उनकी मूंछों से खेलता था
खेलता कम था, मूंछों को नोचता और उखाड़ता ज्यादा था
जिसे देख मां हंसती थी
और हंसते हुए कहती थी-
बहुत चल चुका तुम्हारी मूंछों का रौब-दाब
अब इन्हें उखाड़ फेंकेगा मेरा बेटा
बरसों से नहीं सुनी मां की वो हंसी
पिता की मिल में हुई जिस दिन तालाबंदी
उसी दिन से मां के होठों पर भी लग गए ताले
जिनकी चाबी खोजता हुआ मैं
जैसे ही हुआ दसवीं पास
एक दिन बिना किसी को कुछ बताए भर्ती हो गया सेना में

पहली तनख्वाह से लेकर आज तक
हर माह भेजता रहा हूं पैसा
पर घर नहीं हो सका पहले जैसा

मेरे पालन-पोषण और पढ़ाई लिखाई के लिए
जो-जो चीजें बिकी या रेहन रखी गई थीं
एक-एक करके वे फिर आ गई हैं घर में
नहीं लौटी तो सिर्फ मां की हंसी
और पिता जी के चेहरे का रौब
छोटे भाई के ओवरसियर बनने और
मेरे विवाह जैसे शुभ प्रसंग भी
नहीं लौटा सके ये दोनों चीजें
मैं जिन्हें घर से आए पत्रों में ढूंढ़ता हूं हर बारा

आज ही मिले पत्र में लिखा है पिता जी ने-
तीन साल बाद छोटा घर आया है दस दिन के लिए
तुम भी आ जाते तो मुलाकात हो जाती
बहू भी बहुत याद करती है
और अपनी मां को तो तुम जानते ही हो
इस समय भी जब मैं लिख रहा हूं यह पत्र
उसकी आंखों से हो रही है बरसात

बाइनोकुलर से आंख हटा
जेब से पत्र निकालता हूं
इस पर लिखी है बीस दिन पहले की तारीख
यानी पत्र में जो इस समय है
वह तो बीत चुका है बीस दिन पहले
फिर ठीक इस समय क्या कर रही होगी मां
सोचता हूं तो दिखने लगता है एक धुंधला-सा दृश्य
मां बबलू को खिला रही है
और उसकी हरकतों में मेरे बचपन की छवियों को तलाशती हुई
अपनी आंखों की कोरों में उमड़ आई बूंदों को
टपकने के पहले ही सहेज रही है अपने आंचल में

पिता जी संध्या कर रहे हैं
और मेरी चिंता में बार-बार उचट रहा है उनका मन
पत्नी के बारे में सोचता हूं
तो सिर्फ दो डबडबाई आंखें नजर आती हैं
बार-बार सोचता हूं कि याद आए उसकी कोई रूमानी छवि
और हर बार नजर आती हैं दो डबडबाई आंखें

बहुत हो गई भावुकता
बुदबुदाते हुए पत्र को रखता हूं जेब में
और बाइनोकुलर में आंखें गड़ाकर
देखता हूं दुश्मन के बंकर की ओर

बंकर से झांक रहे चेहरे की मूंछें
बिलकुल पिताजी की मूंछों जैसी लग रही हैं
क्या उसे भी मेरे चेहरे में
दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान?


स्वगत

खून जमा देने वाली इस बर्फानी घाटी में
किसके लिए लड़ रहा हूं मैं
पत्र में पूछा है तुमने
यह जो बहुत आसान सा लगने वाला सवाल
दुश्मन की गोलियों का जवाब देने से भी
ज्यादा कठिन है इसका जवाब

अगर किसी और ने पूछा होता यही प्रश्न
तो, सिर्फ अपने देश के लिए लड़ रहा हूं
गर्व से कहता सीना तान
पर तुम जो मेरे बारीक से बारीक झूठ को भी जाती हो ताड़
तुम्हारे सामने कैसे ले सकता हूं इस अर्धसत्य की आड़
देश के लिए लड़ रहा हूं यह हकीकत है लेकिन
कैसे कह दूं कि उनके लिए नहीं लड़ रहा मैं
जो मेरी जीत-हार की विसात पर खेल रहे सियासत की शतरंज
और कह भी दूं तो क्या फर्क पड़ेगा
जब कि जानता हूं इनमें से कोई न कोई
उठा ही लेगा मेरी जीत-हार या शहादत का लाभ

मेरा जवाब तो छोड़ो
तुम्हारे सवाल से ही मच सकता है बवाल
सरकार सुन ले तो कहे-
सेना का मनोबल गिराने वाला है यह प्रश्न
विपक्ष के हाथ पड़ जाए
तो वह इसे बटकर बनाए मजबूत रस्सी
और बांध दे सरकार के हाथ-पांव
इसी रस्सी से तुम्हारे लिए
फांसी का फंदा भी बना सकता है कोई

इसलिए तुम्हारे इस सवाल को
दिल की सात तहों के नीचे छिपाता हूं
और इसका जवाब देने से कतराता हूं।
- अरुण आदित्य

.................

तीसरा किस्सा
राजेंद्र नगर (इंदौर) का आपले वाचनालय। 14 सितंबर या उसके आस-पास की कोई तारीख। हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में कवि सम्मेलन था। मित्र प्रदीप मिश्र संचालन कर रहे थे। कारगिल युद्ध के बाद का ताजा-ताजा उल्लास-उन्माद था। वीर रस की कविताओं की बाढ़ थी। एक कवि ने मुशर्रफ की छाती पर तिरंगा फहराने जैसी कोई कविता इतने जोश से पढ़ी कि काफी देर तक तालियां गूंजती रहीं। वह एक दुबला पतला सा युवक था। प्रदीप ने उसके बाद मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया। मैं यही कविताएं ले गया था पढऩे के लिए, लेकिन माहौल देखकर मेरा विश्वास डगमगा गया। लगा कि उल्लास-उन्माद के इस माहौल में इन कविताओं को कौन सुनेगा? मन में विचार आया कि कुछ प्रेम कविता वगैरह पढ़ देना चाहिए। प्रेम तो सदाबहार है। लेकिन जब डायस पर पहुंचा तो मन बदल गया। मैंने खुद से पूछा, क्या मुझे अपनी कविता पर भरोसा नहीं है? अगर आज इस उन्मादी माहौल में मैं इन्हें नहीं पढ़ सकता हूं, तो वह शुभ घड़ी कब आएगी जब इनका पाठ किया जाएगा। सो मैंने सोच लिया कि यही कविताएं पढ़ूंगा, चाहे लोग वाह-वाह कहें या हाय-हाय। मैंने थोड़ी सी भूमिका बांधी। उपस्थित श्रोताओं से सीधे सवाल किया, 'क्या हमें वीर रस की कविता लिखने का हक है? हम अपने जीवन में कितनी वीरता दिखा पाते हैं?' आज मुझे लगता है कि उस दिन मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था, लेकिन मैंने उस वीर रस के कवि की ओर इंगित करके कहा- 'अभी-अभी जो सज्जन मुशर्रफ की छाती पर तिरंगा फहराने की बात कर रहे थे, यही जब इस हाल के बाहर निकलेंगे तो गली का एक मरियल सा गुंडा भी अगर चाकू दिखा देगा तो अपने कपड़े तक उतार कर दे देंगे। चंद बरदाई जब पृथ्वीराज रासो लिखता था तो वह खुद युद्धक्षेत्र में मोर्चा भी लेता था। सच तो यह है कि मित्रो, युद्ध का मतलब हम समझ ही नहीं सकते हैं। इसका मतलब उस मां के दिल की धड़कन ही बता सकती है, जिसका बेटा युद्ध क्षेत्र में लड़ रहा होता है। युद्ध का मतलब वह पत्नी बता सकती है जो एक-एक पल गिनकर मोर्चे से पति के लौटने का इंतजार कर रही है। उस बाप से पूछो जिसके हंसते मुस्कराते बेटे की जगह उसका ताबूत अभी-अभी अभी आया है। मित्रो, मैं जो पढऩे जा रहा हूं वह कविता नहीं एक सैनिक के मन के तीन पन्ने हैं। अगर इन पन्नों को पढ़कर आपके मन में जरा भी उथल-पुथल मचे तो मैं अपनी मेहनत सफल समझूंगा।'
इसके बाद लोगों ने जिस धैर्य से इन कविताओं को सुना और बाद में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं, उससे कविता पर मेरा विश्वास और दृढ़ हो गया।
मित्रो, मैं जानता हूं ये बहुत साधारण कविताएं हैं और उससे भी साधारण ये किस्से हैं। पर इन में कुछ ऐसा है जो कविता पर मेरे विश्वास को दृढ़ करता है। आपका क्या कहना है...

Monday, June 8, 2009

हबीब साहब ने कहा था- मेरे पास वक्त बहुत कम है

फोटो सौजन्य : हिंदू

बढ़ते बाजार, चढ़ते सेंसेक्स से विकास को मत आंको

हबीब साहब ने दुनिया के इस रंगमंच से विदाई ले ली है. उन्हें याद करते हुए पेश है उनका एक पुराना साक्षात्कार, जो अभी
24 मई २००९ को अमर उजाला, सन्डे आनंद में प्रकाशित हुआ है।

हबीब तनवीर से अरुण आदित्य की बातचीत

जुलाई 2007 की वह एक बेहद सुहानी शाम थी। उस खुशगवार मौसम में भोपाल के श्यामला हिल्स इलाके में हबीब साहब के घर जाते हुए मुझे यूं ही कवि ओम भारती के एक कविता संग्रह का शीर्षक याद आ गया- ‘इस तरह गाती है जुलाई।’ गाती हुई जुलाई की उस शामहबीब साहब पूरी रौ में थे। बात करना शुरू किया तो रुकने का नाम नहीं। उनके पास अनुभव का अथाह भंडार है और हम भी सब कुछ जान लेने को उत्सुक थे। बात आजादी की हीरक जयंती के संदर्भ में थी, लेकिन जब सिलसिला चल निकला तो थिएटर, साहित्य, समाज सबका जिक्र होना लाजिमी था।
हमने पूछा, ‘आजकल क्या कर रहे हैं। बोले, ‘करना तो बहुत कुछ चाहता हूं, लेकिन वक्त मेरे पास बहुत कम है।’ ‘हबीब साहब आपने अभी तक जितना काम किया है, वही करने में हम जैसे लोगों को तो शायद कई जनम लग जाएंगे।’ हमने यह बात उन्हें तुष्ट करने के लिए नहीं कही थी, बल्कि यह एक सचाई थी। पर इस सचाई से वे खुश नहीं हुए थे। खुश हो भी कैसे सकते थे। दुनिया की बेहतरी के सपने जिसकी आंखोें में बस जाएं, उसे इन हालात में खुशी कैसे नसीब हो सकती है। हालांकि तब तक मंदी की दस्तक नहीं हुई थी और न दूर-दूर तक कहीं उसकी आहट सुनाई दे रही थी, लेकिन हबीब साहब की दूर दृष्टि जैसे उसे देख रही थी। आजादी के बाद आर्थिक विकास की चर्चा चली। उस समय देश की विकास दर 9 प्रतिशत होने से बाजार में जश्न का माहौल था। हमने कहा, ‘देश की विकास दर बढ़ी है तो इसका मतलब है कि देश में विकास तो हुआ है?’ हबीब साहब का जवाब आंखें खोलने वाला था, ‘अरबपतियों की बढ़ती तादाद से ही देश के विकास का लेखा-जोखा मत कर डालो। एक नजर जरा गरीबों पर भी डाल लो। असंतुलित विकास से समस्याएं और बढ़ेंगी। बढ़ते बाजार और चढ़ते सेंसेक्स से विकास को मत आंको। बाजार आपको वह खरीदने के लिए भी मजबूर कर देता है, जिसकी आपको जरूरत नहीं है। इसके जाल में फंसोगे तो मुश्किल होगी।’

बात से बात निकल रही थी और हबीब साहब हर मुद्‌दे पर बेबाक थे। हमने दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश की, ‘आपके नाटकों को लेकर पिछले दिनों काफी विवाद हुए थे।’ हबीब साहब बोले, ‘सवाल सिर्फ मेरे नाटकों का नहीं है। सवाल अभिव्यक्ति की आजादी का है। आप कोई फिल्म बनाते हैं, तो बवाल हो जाता है। पेंटिंग बनाएं तो बवाल। लेखक को भी लिखने से पहले दस बार सोचना पड़ता है कि इससे पता नहीं किसकी भावना आहत हो जाए और जान-आफत में। दुख की बात यह है कि सरकार इस सब पर या तो चुप है, या उन्मादियों के साथ खड़ी नजर आती है। ऐसे में संस्कृति का विकास कैसे हो सकता है।’

उन्होंने संस्कृति का मुद्‌दा उठाया तो हमें अगला सवाल मिल गया, ‘जब संस्कृति के क्षेत्र में हालात इतने विकट हैं तो ऐसे में देश के सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की भूमिका क्या होनी चाहिए?’ इस सवाल पर उनका दर्द आक्रोश बन कर आंखों में उतर आया, ‘आप किन प्रतिष्ठानों की बात कर रहे हैं। वहां ऐसे लोगों की ताजपोशी की जा रही है जिनमें न टैलेंट है न विजन, और न ही कुछ कर गुजरने की लगन। ऐसे बौने लोगों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं। इन बौने लोगों ने संस्कृति का कद भी घटा दिया है। पद-पुरस्कार के लिए आत्मसम्मान को गिरवी रख देते हैं।’

संस्कृतिकर्मियों के लाभ-लोभ की बात चली तो हबीब साहब को वह पुराना किस्सा याद आ गया, जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था। बोले, ‘1972 की बात है। मार्च महीने में सोवियत प्रकाशन विभाग से मेरी नौकरी छूट गई थी। उस समय मेरे पास कोई काम नहीं था। पैसे की तंगी चल रही थी। अगले महीने अचानक एक दिन एक पुलिस जवान मेरे घर आया। उसने एक नंबर दिया और कहा इस पर बात कर लीजिएगा, जरूरी है। फोन लगाया तो दूसरी तरफ आर के धवन थे। इंदिरा गांधी के निजी सचिव। सीधा सवाल किया- क्या मुझे राज्यसभा में मनोनयन स्वीकार है। मेरे लिए यह अप्रत्याशित था। मैंने कहा, ‘सोच-विचारकर बता दूंगा।’ धवन ने कहा कि सोचने-विचारने के लिए ज्यादा समय नहीं है। बीस-पच्चीस मिनट में बता दीजिए, क्योंकि शाम पांच बजे घोषणा करनी है। मैंने कहा, ‘मैं पलटकर आप को फोन करता हूं।’ घर आकर मोनिका से बात की, मोनिका को भी राज्यसभा की जिम्मेदारी के बारे में कुछ पता नहीं था। फिर एक दोस्त मेंहदी को फोन लगाया। वे छूटते ही बोले, ‘बेवकूफ मत बनो, तुरंत हां कर दो।’ तो उस जमाने में इस तरह चयन-मनोनयन होता था। आज तो बौने लोग खुद ही राजनेताओं के चक्कर लगाते रहते हैं कि कुछ मिल जाए।’

‘और राजनीति में भी तो कितने बौने लोग आ गए हैं?’ हबीब साहब बोले, ‘राजनीति में अब राजनेता बचे ही कितने हैं। वहां तो अपराधियों की भरमार हो गई है। धनबल-बाहुबल के दम पर चुनाव जीते जाते हैं। ऐसे नुमाइंदों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं।’
थिएटर के भविष्य की बात चली तो वे उदास हो गए। कहने लगे, ‘आज थिएटर पैसे और दर्शक दोनों के लिए मोहताज है। लोक नाट्‌य और लोक परंपराओं में भी लोगों की रुचि कम हो रही है। हमारे छत्तीसगढ़ में नाचा देखने के लिए लोग रात-रात भर जागते थे। अब किसे फुर्सत है।’

‘तो क्या आपको कोई उम्मीद नहीं है?’

‘नहीं, नहीं, मैं इतना नाउम्मीद नहीं हूं। मुझे नौजवानों से काफी उम्मीद है। वे करप्शन के खिलाफ हैं। उनमें तर्कशक्ति है, कुछ करने का जज्बा है। अपना भविष्य वे खुद गढ़ना चाहते हैं।’ यह सब कहते हुए हबीब साहब की बूढ़ी आंखों में चमक आ गई थी। उस चमक को देखकर मुझे उनके नाटक कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना का एक नाट्‌य-गीत याद आ गया-

खेत खार में जाऊं

मैं नदी पहाड़ में जाऊं

मैं आग बनूं, तूफान बनूं

और घूम-घूम लहराऊं।

Monday, May 11, 2009

कृष्णा सोबती से बातचीत


जिंदगीनामा से लेकर समय सरगम तक फैला रचना संसार उनकी कलम के जादू का गवाह है। उनसे बात करना एक विलक्षण अनुभव हैहालाँकि वे आसानी से बातचीत के लिए तैयार नहीं होतीं, लेकिन बात शुरू हो जाए तो फ़िर बेलाग बोलती हैंहमने भी जब कृष्णा जी को बातचीत के लिए राजी कर लिया तो साहित्य से लेकर समाज और राजनीति तक पर काफी बातें हुईंपेश है उस विस्तृत बातचीत का एक अंश जो अमर उजाला के रविवारीय परिशिष्ट सन्डे आनंद में २६ अप्रैल २००९ को प्रकाशित हुआ है

लेखक की व्यक्तिगत सामाजिक और

मानसिक प्रतिबद्धता के पैमाने बदल गए


कृष्णा सोबती से अरुण आदित्य की बातचीत

'जिंदगीनामा' से 'समय सरगम' तक आपकी भाषा कथ्य के मुताबिक बदलती रही है, पर एक चीज जो नहीं बदली वह है एक विशिष्ट तरह की लयात्मकता, जिसके कारण आपकी कोई भी रचना पढ़ते हुए, लगता है जैसे हम किसी लहर के साथ तैर रहे हैं। भाषा की यह लय आपने अभ्यास से अर्जित की है, या उस इलाके की सहज देन है, जहां आपका जन्म हुआ है?

- जिस भाषाई लयात्मकता की ओर आपका संकेत है, उसकी खूबी इतनी लेखक की नहीं, जितनी रचनात्मक विचार और पात्रों के निजी संवेदन की है। पात्र की सामाजिकता, उसका सांस्कृतिक पर्यावरण उसके कथ्य की भाषा को तय करते हैं। उसके व्यक्तित्व के निजत्व को, मानवीय अस्मिता को छूने और पहचानने के काम लेखक के जिम्मे हैं। भाषा वाहक है उस आंतरिक की जो अपनी रचनात्मक सीमाओं से ऊपर उठकर पात्रों के विचार स्रोत तक पहुंचता है। सच तो यह है कि किसी भी टेक्स्ट की लय को बांधने वाली विचार-अभिव्यक्ति को लेखक को सिर्फ जानना ही नहीं होता, गहरे तक उसकी पहचान भी करनी होती है। अपने से होकर दूसरे संवेदन को समझने और ग्रहण करने की समझ भी जुटानी होती है। एक भाषा वह होती है जो हमने मां-बोली की तरह परिवार से सीखी है- एक वह जो हमने लिखित ज्ञान से हासिल की है। और एक वह जो हमने अपने समय के घटित अनुभव से अर्जित की है। जिस लयात्मकता की बात आपने की, समय को सहेजती और उसे मौलिक स्वरूप देती वैचारिक अंतरंगता का मूल इसी से विस्तार पाता है।

पंजाब के गुजरात में जहां मेरा जन्म हुआ था वहां का भाषाई ध्वनि संस्कार काफी कडिय़ल, दो टूक और खुरदरा है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले की राजधानी दिल्ली और शिमला में बचपन के जिस देशी-विदेशी अनुशासित आबो-हवा में बड़ी हुई उसमें भाषा का अजीब सम्मिश्रण था। उसमें एक साथ विदेशी का स्वीकार और भारतीयता के अपनत्व के नाते देशी भाषा जो नागरी थी, उसका गहरा सत्कार था। अंग्रेजी हुकूमत के रोबीले अहंकार के सामने हर दिल में इसके लिए आदर और विश्वास का भाव था। ऊपरी सतह पर सत्ता का जो भी प्रभाव था, नेपथ्य से झांकता देसी पोथियों का साहित्य संसार था। हमारा भाषाई संसार समय के साथ बदलता भी रहा। शासित होने और आजादी के संघर्ष में जीवट वाली भाषा और बोलियां उभरीं। फिर विभाजन की विभीषिका और स्वाधीन होने का आत्मविश्वास। नए भाषाई तेवर उभरे। इस प्रक्रिया को जानने और पहचानने की क्षमता और सामथ्र्य मिली अपने परिवार से, जिसने इन बारीकियों को देखने, समझने और ग्रहण कर शब्दों को नए अर्थ देने की तालीम दी।

भारतीय ज्ञानपीठ पाने वाले हिंदी लेखकों में कवियों की संख्या अधिक है। पंत, दिनकर, अज्ञेय, श्रीनरेश मेहता, निर्मल वर्मा और कुंवर नारायण, इनमें से विशुद्ध कथाकार सिर्फ निर्मल वर्मा हैं। बाकी या तो कवि हैं या कवि-कथाकार। अज्ञेय कवि-कथाकार थे, लेकिन पुरस्कार कविता-कृति के लिए ही मिला। विशुद्ध कथा विधा के एकमात्र लेखक निर्मल वर्मा को पुरस्कार पूरा नहीं मिला, बल्कि गुरदयाल सिंह के साथ साझा मिला। यह संयोग मात्र है या हमारे निर्णायक गण कविता को कहानी की अपेक्षा ज्यादा महत्व देते हैं?

यह तो मानना ही होगा कि साहित्य की तमाम विधाओं में कविता मानवीय मन की विशिष्टतम अभिव्यक्ति है। इसका स्रोत मानवीय मन की उस गहन अनुभूति से है जो आत्मा रूह से जुड़ी है। इसे लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है। साहित्य संगठनों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार-सम्मानों की चुनाव प्रक्रियाएं संगठन और उसके द्वारा बनाए गए न्यास के माननीय सदस्यों पर निर्भर हैं। आज के समयों में उस पर विश्वास करने के अलावा कोई और चारा नहीं। यह निर्णय संगठन की आचार संहिता और राजनीति से अलग नहीं किए जा सकते। चुनाव प्रक्रियाएं असंख्य बारीकियों से घिरी रहती हैं। उदाहरण के लिए निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को दिया गया ज्ञानपीठ सम्मान विवाद के घेरे में रहा, जो इतना गलत भी नहीं था। राजनीति की दो विरोधी धाराओं की नुमाइंदगी करने वाली दो भाषाओं हिंदी और पंजाबी को बीच में रखकर सम्मान की बांट कर दी गई। जिससे दोनों भाषाओं के महत्वपूर्ण लेखकों की गौरव-हानि हुई। वैसे निर्मल जी चाहते तो कह सकते थे कि अपनी भाषा के सम्मान के लिए मैं इस साझेदारी का विरोध करता हूं।

आज देश के जो हालात हैं और जिस तरह की बयानबाजियां हो रही हैं...

देखिए राम कितने मितभाषी थे और लोग उनके नाम को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। यह मर्यादा पुरुषोत्तम की प्रतिष्ठा का हनन है। प्रधानमंत्री के बारे में कहा जा रहा है कि वे कमजोर हैं। हमको एक मर्द प्रधानमंत्री चाहिए। कमजोर कहना प्रधानमंत्री पद की गरिमा का हनन है। अगर यह कहते कि वे राजनीतिक दृष्टि से कमजोर हैं तो कोई बात नहीं थी। हो सकता है कि वे यही कहना चाह रहे हों लेकिन शब्दों के चयन में समझदारी दिखानी चाहिए। आज अगर हम माइनॉरिटी को, दलितों को, पिछड़ों को अपमानित करने वाली बात करेंगे, तो देश की एकता कैसे कायम रह पाएगी। लेकिन राजनीतिज्ञ ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं। और हमारा लेखक समाज भी इस पर मौन है।

एक तरफ लेखक देश की राजनीति को लेकर निस्संग है, दूसरी तरफ साहित्य की राजनीति में पूरी तरह डूबा हुआ है। पिछले दिनों महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका हिंदी के संपादन को लेकर गगन गिल द्वारा ममता कालिया को मीडियॉकर कहना और बदले में 'नया ज्ञानोदय' का संपादकीय। फिर एक अखबार में गगन जी का लेख। इस तरह के विवाद समाज में लेखक की किस तरह की छवि प्रस्तुत कर रहे हैं?

देश के राजनीतिक सांस्कृतिक परिदृश्य को बारीकी से देखें तो महसूस करेंगे कि लेखक वर्ग की व्यक्तिगत सामाजिक और मानसिक प्रतिबद्धता के पैमाने बदल गए हैं। लेकिन इसके लिए मात्र लेखक समाज ही जिम्मेदार नहीं। साहित्य को नियंत्रित करते राजनीतिक और सांस्कृतिक गलियारों के गठबंधन ने रचनात्मक मैनेजमेंट की अपनी बारीकियों से लेखकों के दृष्टिकोण को आर्थिक गुणा-भाग के स्वहित-साध्य में परिवर्तित कर दिया है। इस स्थिति ने लेखक की आंतरिक जटिलताओं, गहराइयों को निहायत हलके स्तर में रूपांतरित कर दिया है। लेखक बिरादरी की मनमौजी असावधान समझदारी ने देखते-देखते अपने अनुशासन को संस्थानों की रीति-नीति के अनुरूप ढाल लिया है। अकारण नहीं कि स्वयं लेखक खुद को और साहित्य को हाशिए पर देखने का आदी हो गया है। लेखक अपने आत्मपक्षी उत्साह उछाह में लेखकीय अस्मिता को फीका तो कर ही रहे हैं। साहित्यिक विवादों पर कुछ भी कहना नहीं चाहती। जब अनुभवी संपादक राजधानी के डेस्क से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को न उठाकर घरेलू प्रसंगों वाले संपादकीय लिखें, तो क्या पाठक भी उसे समयानुकूल समझ कर आदर और श्रद्धा से स्वीकार करेंगे?

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में इतना अच्छा लेखन हो रहा है, लेकिन उसे अंग्रेजी के बराबर महत्व क्यों नहीं मिल पाता?

हर भाषाई परिवार की संस्कृति और संस्कार गहरे तक उसके पाठक समाज से जुड़े होते हैं। भारतीय भाषाओं की रचनात्मक ऊर्जा नि:संदेह अंग्रेजी से कम नहीं। लेकिन अंग्रेजी के साहित्यिक वैभव, विभिन्न अनुशासनों के प्रकाशन और अंतरराष्ट्रीय बाजार के पाठक वर्ग तक पहुंच पाना हमारे भाषा लेखकों के लिए आज इतना आसान नहीं। भाषायी साहित्य का पाठक वर्ग सीमित है। इलीट अंग्रेजी को तरजीह देता है। भारतीय भाषाओं के अनुवाद के लिए एक अंतर्भारतीय और अंतरराष्ट्रीय अनुवाद संस्थान का होना जरूरी है, ताकि विविध भारतीय भाषाओं की रचनाओं के अनुवाद हो सकें।

आपने व्यास सम्मान अस्वीकार कर दिया, ताकि युवा पीढ़ी को मौका मिले। जबकि हिंदी के कई वरिष्ठ लेखक साल भर पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ करते रहते हैं और न मिलने पर विवाद खड़ा कर देते हैं। आखिर हमारे लेखकगण पुरस्कारों को इतना महत्व क्यों देते हैं?

'समय सरगम' के लिए व्यास सम्मान को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर मैं माननीय निर्णायक मंडल का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहती थी कि लेखकों को पुरस्कृत करने की नीति में कुछ बदलाव हो। युवा पीढ़ी और अपेक्षाकृत प्रौढ़ पुरानी पीढ़ी की लेखकीय ऊर्जा और उनसे जुड़ी संभावनाओं को ध्यान में रखकर निर्णायक मंडल निर्णय लें। किसी भी अच्छी कृति को एक सम्माननीय पुरस्कार तक पहुंचने में अगर आठ दस बरस लगें, तो उसे अनदेखा करना ही साहित्य के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा। पुरानी पीढ़ी और पुरानी कृति के सन्मुख नई कृति के पुरस्कृत होने के संयोग को निरर्थक हो जाने देना ठीक नहीं है। यहां यह कहना भी जरूरी है कि साहित्य अकादमी के खासे बड़े बजट में आज भी पुरस्कार राशि पचास हजार ही क्यों ? हर भाषा के लिए कम से कम लाख का प्रावधान तो होना ही चाहिए। यहां छोटे व्यक्तिगत पुरस्कारों के बारे में भी यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि लेखकों की दयनीय स्थिति के प्रसंग उभारकर उन्हें पुरस्कार देना उनका ही नहीं, शब्द- संस्कृति का भी अपमान है। हम व्यवस्था, संगठनों और लेखकों से यह कहना चाहते हैं कि एकांत क्षेत्र में लेखकों के आवास और कार्यकारी सुविधाओं की बात हम क्यों नहीं सोचते। हर प्रदेश ऐसी योजना को अंजाम दे सकता है। साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट भी ऐसी पहल कर सकते हैं।



Thursday, April 30, 2009

फूंकि फूंकि धरनी पग धारौ, महा कठिन है समौ अजोग


कल का दिन सूरदास को समर्पित रहा। सुबह साढ़े दस बजे सूर बाबा की जन्मस्थली सीही (फरीदाबाद) की रज को माथे लगाने का अवसर मिला। देश निर्मोही, डॉ. सुभाष और कई स्थानीय साहित्यकार साथ थे। सबने सीही में सूर स्मारक परिसर में महाकवि की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। उससे पहले वहां के एक भक्त ने हम सब का तिलक किया। स्मारक न्यास के प्रमुख ने बताया कि परिसर में एक पुस्तकालय खोलने की भी योजना है। जब भी कहीं पुस्तकालय खुलने की सूचना मिलती है मन उछल पड़ता है। सो कल दिन की शुरुआत बहुत अच्छी रही। इस सुखद शुरुआत के बाद साहित्यकारों का जत्था फरीदाबाद के मैगपाई टूरिस्ट सेंटर पहुंचा। वहां हरियाणा साहित्य अकादमी ने सूरदास की ५३१ वीं जयंती के उपलक्ष्य में सूरदास: एक पुनर्मूल्यांकन शीर्षक से एक परिसंवाद का आयोजन किया था। परिसंवाद में सुपरिचित समालोचक डॉ. मैनेजर पांडे, सुपरिचित कवि मनमोहन, कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक डॉ. सुभाष के व्याख्यान के अलावा मैंने भी एक संक्षिप्त पर्चा पढ़ा। पर्चा आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है:

सूरदास: एक पुनर्पाठ

फूंकि फूंकि धरनी पग धारौ

-अरुण आदित्य

किसी कवि के पुनर्मूल्यांकन के लिए उसके समग्र रचनाकर्म का अध्ययन आवश्यक है। इस लिहाज से मैं अत्यंत विनम्रता के साथ यह स्वीकार करता हूं कि मैं अभी तक सूर-साहित्य के महासागर की कुछ बूंदों का ही स्पर्श कर पाया हूं। सूर सागर के लाख से अधिक पद, फिर सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयंती, व्याहलो आदि प्राप्य-अप्राप्य रचनाओं का विशाल महासागर और इसके बरक्स मेरी अपनी सीमाएं। विज्ञान का विद्यार्थी रहा। साहित्य का पठन-पाठन स्वरुचि और सुविधा के मुताबिक जितना संभव हुआ उतना ही कर पाया। हालांकि सूरदास, तुलसी और कबीर जनमानस में इस कदर रचे बसे हैं कि इन पर थोड़ा-बहुत बोलने का अधिकारी कोई भी हो सकता है, लेकिन वह इन महाकवियों का मूल्यांकन नहीं होगा। मैं भी जो कुछ कहने जा रहा हूं वह मूल्यांकन नहीं है। सिर्फ एक पुनर्पाठ है। मेरा अपना पाठ। यानी आज के संदर्भ में एक पाठक के रूप में मैं महाकवि सूर को किस रूप में पढ़ता हूं। दूसरे शब्दों में कहूं तो आज की जटिल गुत्थियों को समझने या सुलझाने में सूरदास मेरे कितने काम आते हैं। मुझे अपनी सीमाएं पता हैं, इसलिए सूर बाबा के शब्दों का सहारा लेकर पहले ही माफी मांग लेता हूं कि प्रभु मोरे अवगुन चित न धरौ।
सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं। आज दलित और स्त्री-विमर्श हमारे साहित्य के मुख्य स्वर हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि सूरदास के काव्य में ये दोनों किस रूप में मौजूद हैं। भ्रमर गीत में जिस तरह गोपियां खुलकर प्रेम की बात करती हैं, वहां स्त्री के स्वातंत्र्य और साहस के बीज देखे जा सकते हंै। गोपियां साफ-साफ कह देती हैं कि वे वही करेंगी, जो उनका मन कहेगा-ऊधो, मन माने की बात। कोई भी प्रलोभन या भय उन्हें नहीं डिगा सकता है। वे अमृत के अस्वीकार के साथ ही विष और अंगार को स्वीकार करने का भी साहस रखती हैं। देखिए कितने बेबाक तरीके से वे अपनी बात कहती हैं:
ऊधो, मन माने की बात।
दाख छुहारो छांडि़ अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥

जो चकोर को देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।

मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥

ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात।

सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥

आज हमारे यहां स्त्री को अपने मन की करने का ऐसा उद्घोष करने की कितनी स्वतंत्रता है? इसी तरह दलित विमर्श के बीज भी सूर के काव्य में देखे जा सकते हैं। कृष्ण जब विदुर के घर भोजन करते हैं तो दुर्योधन पूछता है-
षटरस व्यंजन छाडि़ रसौई साग बिदुर घर खाये॥
ताकी कुटिया में तुम बैठे, कौन बड़प्पन पायौ।

जाति पांति कुलहू तैं न्यारो, है दासी कौ जायौ॥

इस पर सूर दुर्योधन को कृष्ण से जो जवाब दिलवाते हैं उसमें जाति-भेद का स्पष्ट नकार है। वे स्पष्ट संदेश देते हैं कि भेदभाव से मुक्त और प्रेम आधारित समाज ही कृष्ण का अभीष्ट है।
जाति-पांति हौं सबकी जानौं, भक्तनि भेद न मानौं।
संग ग्वालन के भोजन कीनों, एक प्रेमव्रत ठानौं॥

आज के संदर्भ में हम देखें कि किस तरह हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को जातिवाद किस तरह खोखला कर रहा है। हालांकि आज सवर्ण प्रभु वर्ग के लोग दलित की झोपड़ी में खाना खा रहे हैं और दलित राजनीति भी उच्च वर्ग से सौजन्य बिठा रही है, लेकिन यह सब स्वहित के लिए हो रहा है। श्रीकृष्ण किसी स्वार्थ के तहत नहीं बल्कि नीति के तहत ऐसा करते हैं। स्वार्थ या शक्ति-संतुलन की बात होती तो वे दीनहीन विदुर के बजाय सर्वथा शक्तिशाली दुर्योधन का ही आमंत्रण स्वीकार करते। लेकिन यह राजनीति के विपरीत होता। कृष्ण के समय समय नीति और राजनीति का अर्थ एक ही था। लेकिन सूर के समय में नीति और राजनीति लगभग विपरीतार्थी शब्द हो चुके थे। सूर नीति की बात करके सत्ता को जाति-निरपेक्ष होने का संकेत दे रहे थे तो समाज को भी संदेश दे रहे थे कि अगर ईश्वर मनुष्य और मनुष्य में भेद नहीं करता तो तुम क्यों करते हो?
सूरदास आज इसीलिए प्रासंगिक हैं कि उन्होंने अपनी कविता में अपने समय को दर्ज किया है। दरअसल कोई भी कवि तभी कालातीत होता है जब वह अपने देश-काल की धड़कन को अपनी रचना में व्यक्त कर पाता है। पर सवाल यह है कि सूर का समय क्या था। अमृतलाल नागर ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास खंजन नयन की शुरुआत में ही उस समय की एक हलकी सी झलकी दिखा दी है-
'मथुरा मती जइयो। आज खून की मल्हारें गाई जा रही हैं वां पे।'
सुनकर नाव पर बैठी सवारियां सन्न रह गईं। ...सभी के होशो-हवास सूली पर टंग गए। '
आखिर बात क्या हुई भैयन?'

'सुलतान के राज में मारकाट के काजे कभी कोऊ बात होवे है भला। त्योहार को दिना, हमारी मां बहिन के माथे कौ सिंदूर आग की लपटों सो उठ रयो है चौराए चौराए पै।'
क्या हमें नहीं लगता कि हम सूर के जमाने का नहीं अपने ही जमाने का कोई संवाद सुन रहे हैं। इसे पढ़ते हुए यह सवाल बार-बार मन में आता है कि क्या हमारा समय सूर के समय से अलग है? बहरहाल सूर का समय जैसा भी रहा हो पर आज के समय में भी बहुत सी स्थितयों और समस्याओं के संदर्भ में मुझे अकसर सूर के पद याद आते हैं। ऐसी स्थितियों को अलग से खोजने की जरूरत नहीं है, अनेक उदाहरण अपने आस पास ही मिल जाएंगे। मसलन, आज हमारे आसपास ऐसे अनेक चेहरे नजर आते हैं जो धर्म का चोला ओढ़ कर अधार्मिक कृत्यों में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों पर सीधे हमला करना न तब खतरे से खाली था और न अब। इसलिए सूरदास खुद के बहाने इन लोगों की खबर लेते हैं-
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
राजनीत से समाज तक, और देवालय से कार्यालय तक महा मोह के घुंघरू बजाने वाले निंदा रस में डूबे लोगों की पूरी की पूरी फौज नजर आ रही है। ऐसा लग रहा है जैसे निंदा हमारे लोकतंत्र का पांचवां खंबा है। एक दूसरे की ऐसी तैसी करना ही डेमोक्रेसी है। ऐसे लोगों की हरकतों पर गौर कीजिए और फिर इन पंक्तियों में उन्हें खोजिए:
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
माया का फेंटा बांधे, और लालच का तिलक लगाए लोग, जो तरह-तरह से कलाबाजी दिखा रहे हैं, उन्हें क्या इस बात से कोई मतलब है कि उनकी इस कलाबाजी का देशकाल से कोई संबंध है? वे तो देशकाल की परवाह न करते हुए उपदेश-आश्वासन दिए जा रहे हैं। पर क्या उन्हें इस बात की चिंता है कि वे उपदेश जनता के लिए कितने प्रासंगिक होते हैं। इस संदर्भ में मुझे सूर के एक और पद की याद आ रही है। गोपियों और उद्धव के संवाद के बहाने वे अपने समय के प्रभु वर्ग को साफ-साफ कहते हैं कि हमें ऐसे उपदेश दीजिए जो हमारे काम के हों -
ऊधो, हम लायक सिख दीजै।
आगे वे और भी कठिन सवाल खड़ा कहते हैं-
यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥

यानी तुम्हारा यह उपदेश हमें आग जैसा जला रहा है, हम इस पर अमल कैसे करें? आज हमारे प्रभुवर्ग के लोग कैसे-कैसे आश्वासन दे रहे हैं, लेकिन उन पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं है। कोई कहता है स्विस बैंक का पैसा लाएंगे और देश को मालामाल कर देंगे। हम सुन लेते हैं लेकिन यह नहीं पूछते कि लाएंगे कैसे? कोई यह सवाल नहीं उठा रहा कि लोग रोटी को तरस रहे हैं और आप उन्हें मुफ्त मोबाइल या मुफ्त लैपटॉप देने की बात कर रहे हैं। ऐसे में फिर-फिर सूर की पंक्तियां याद आती हैं -
सूर, कहौ सोभा क्यों पावै आंखि आंधरी आंजै॥
यानी जिसके पास आंख ही नहीं है, उसे आप अंजन लगाकर खुश करना चाहते हैं। जो आदमी दो जून की रोटी का मोहताज है उसे लैपटाप देने की बात करेंगे तो उसके तन बदन में आग नहीं लगेगी तो क्या होगा? पर वहां तो तन बदन में आग लगने पर उसे अभिव्यक्त करने का साहस था। हम तो ठगों को यह भी नहीं कह पाते कि यह ठगी हमें स्वीकार्य नहीं है। क्या वे गोपियां हमसे ज्यादा साहसी नहीं थीं जो खुलेआम कृष्ण के दूत से कह देती हैं कि तुम्हारा यह ठगी का धंधा यहां नहीं चलने वाला है-
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहैं।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥

क्या हम अपने कर्णधारों से यह कह सकते हैं कि हम तुम्हारा धंधा नहीं चलने देंगे।
अंत में फिर एक बार सूर के समय की चर्चा। एक पद में देखिए कि वे किस तरह अपने समय को बूझते हैं। इस पद में समय की क्रूरता और उससे निपटने के लिए आवश्यक सजगता दोनों का उल्लेख है-
हम अहीर ब्रजवासी लोग
ऐसे चलौ हंसै नहिं कोऊ, घर में बैठि करौ सुख भोग

सिर पै कंस मधुपुरी बैठ्यों छिनकहि में करि डारै सोग
फूंकि फूंकि धरनी पग धारौ, महा कठिन है समौ अजोग।

कंस तो द्वापर में था फिर सूर कलयुग में किस कंस की बात कर रहे हैं। जाहिर है कि वे अपने समय के कंस की बात कर रहे हैं जो क्षण भर में ही शोक रच सकता है। सूरदास समौ अजोग यानी कठिन समय की बात करते हैं पर हमारा समय तो और भी अजोग है। जिधर नजर डालते हैं उधर ही कोई कंस मुस्कराता नजर आता है। लिहाजा बहुत ही फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है। खासकर इस समय जब हम अपने भाग्यविधाता का चुनाव करने जा रहे हैं।

Tuesday, March 17, 2009

एक युवा कवि के पहले कविता संग्रह का स्वागत करें


युवा कवि विजय गौड़ का कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता हाल में ही प्रकाशित हुआ है। उसमें कई ऐसी कविताएं हैं जो दिल को छू जाती हैं। उसी संग्रह से कुछ ऐसी ही कविताएं पेश हैं। पढ़ें और अगर अच्छी लगें तो विजय को बधाई दें। अगर संग्रह खरीदना चाहें तो आप सीधे विजय से संपर्क कर सकते हैं।


पिता का नाम

एक
बर्तनों को साफ करते हुए
मां कई बार सहला देती है
पिता
को उनके नाम से
जबकि
पिता चारपाई पर लेटे हैं

बर्तनों पर खुदा
पिता
का नाम
हर
बार घिसता है
और
बर्तनों पर की
पीली
चमक-सा
पिता के चेहरे पर
बहुत
कोशिशों के बाद
खिंची
मुसकान-सा
चमकता है पिता का नाम ।


दो


पिता का नाम
बर्तनों पर ज्यों का त्यों है
सिर्फ
नहीं हैं पिता
पिता
का नाम ही
चल
रहाहै
बर्तनों के साथ-साथ ।


तीन


अभी तो मां जिन्दा है
जो
सहला देती है
पिता को उनके नाम से
पर
जब नहीं होगीं मां
क्या
तब भी सहलाया जायेगा
पिता का नाम ?


चार

ये बर्तन इतने पुराने हो चुके हैं
कि अब
नहीं चल सकता इनसे काम
खरीदनें
ही होगें
अब
नये बर्तन


पर क्या उन पर भी
लिखा
जायेगा
पिता
का नाम
जबकि पिता नहीं हैं
मांभी नहीं
सिर्फ
हूं में


विजय गौड़ का परिचय
जन्म मई 1968, देहरादून।शिक्षा एम.. हिन्दी।रचनाकर्मः रंगकर्म, पहाड़ों के जन जीवन को जानने समझने के लिए दुर्गम पहाड़ीक्षेत्रों की यात्रायें, शतरंज खेलना। कविता, कहानी, समीक्षात्मक टिप्पणी,यात्रा वृतांत और जो कुछ इन सब में अट पा रहा हो, पर जिसेलिखना जरुरी जान पड़ रहा हो, लिखना। कुछ रचनायें समयांतर, पहल, प्रगतिशील वसुधा, कथन, वागर्थ, कृति ओर, वर्तमान साहित्य, कथादेश, संडे-पोस्ट, शब्द आदि पत्र-पत्रिकाओं में जगह पाती रही। 1989 से 2006 तक लिखी कविताओं का संग्रह ‘‘सबसे ठीक नदी का रास्ता’’ प्रकाशित। 1989-90 के शु3आती दौर में कविता फोल्डर ‘‘फिलहाल’’ का सम्पादन। वर्तमान में इंटरनेट की चिट्ठाकारी ‘‘लिखो यहां वहां’’ चिट्ठे पर समय-समय में लेखन और अन्य रचनाकारों की रचनाओं का प्रकाशन।

चिट्ठे का लिंक: http://likhoyahanvahan.blogspot.कॉम संप्रति आर्डनेंस फैक्ट्री देहरादून में कार्यरत।ें

संपर्क सी-24/9 आर्डनेंस फैक्ट्री एस्टेट, रायपुर, देहरादून- 248008।फोन घर. 0135-2789426, मो. 09411580467



Monday, March 2, 2009

अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया!


सुबह आए कुछ फोनों से पता चला की आज मेरा जन्म-दिन है। लोगों की बधाइयां ली, धन्यवाद किया और लगे
हाथों अपने मन को भी खुश कर लिया। सुबह-सुबह मन खुश हो गया तो कुछ गुनगुनाने की इच्छा हुई। पर ऐसे खुशनुमा समय में भी 'जय हो' जैसी कोई उल्लसित पंक्तियाँ नहीं याद आईं। याद आयीं मुक्तिबोध की बीहड़ पंक्तिया, जो अब तक के किए धरे पर ही सवाल उठाती हैं:

दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!
अब अगले साल इन सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश करूँगा। इसके अलावा और क्या कह सकता हूँ ख़ुद से।

Tuesday, January 27, 2009

अंधेरे पाख का चाँद और दिल्ली में दोआबे का कवि


वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह को हाल में ही भारत भारती सम्मान देने की घोषणा हुई है। इस बहाने प्रस्तुत हैं केदार जी की तीन कवितायें और उनकी कविताओं पर मेरी एक संक्षिप्त टिपण्णी, जो हरियाणा साहित्य अकादेमी की पत्रिका हरिगंधा के नए अंक में प्रकाशित हुई है।

अंधेरे पाख का चाँद

जैसे जेल में लालटेन
चाँद उसी तरह
एक पेड़ की नंगी डाल से झूलता हुआ
और हम
यानी पृथ्वी के सारे के सारे क़ैदी खुश
कि चलो कुछ तो है
जिसमें हम देख सकते हैं
एक-दूसरे का चेहरा!

नए शहर में बरगद

जैसे मुझे जानता हो बरसों से
देखो, उस दढिय़ल बरगद को देखो
मुझे देखा तो कैसे लपका चला आ रहा है मेरी तरफ़
पर अफ़सोस
कि चाय के लिये मैं उसे घर नहीं ले जा सकता

हाथ

उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए
मैंने सोचा
की दुनिया को हाथ की तरह
गर्म और सुंदर होना चाहिए।

-केदारनाथ सिंह


दिल्ली में दोआबे का कवि


अरुण आदित्य

केदारनाथ सिंह दिल्ली में रहते हैं, पर तीन दशक से यहां रहते हुए भी वे ग्रामीण संवेदना के कवि हैं। छल-बल की इस राजधानी में भी वे अपने आस-पास गंगा-सरयू के दोआबे का एक गांव बसा लेते हैं। यह गांव अपनी भौतिक उपस्थिति में नहीं, बल्कि केदार जी की चेतना में बसता है। इस गांव से संबंध बनाए रखने क लिए वे बार-बार स्मृतियों में जाते हैं। सहज ग्रामीण संवेदना उन्हें एक विशिष्ट काव्य-दृष्टि देती है। इस काव्य-दृष्टि का ही कमाल है कि बरामदे में रखी हुई कुदाल सिर्फ एक भौतिक वस्तु नहीं रह जाती, बल्कि एक चुनौती बन जाती है। कवि का विजन कुदाल की भौतिक उपस्थिति को श्रमजीवी वर्ग की उपेक्षा और विक्षोभ का प्रतीक बना देता है। सदी क इस अंधकार में जिसका कद धीरे-धीरे बढ़ रहा है और जिसे दरवाजे पर छोडऩा खतरनाक है, सडक पर रख देना असंभव और आभिजात्य घर में जिसके लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे में उस कुदाल का क्या किया जाए, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न बन जाता है। केदार जी की कविता में यह धार लोकजीवन से उनके जुड़ाव की वजह से आई है, जहां चीजों के साथ लोगों के संबंध बड़े रागात्मक होते हैं। मानसून की प्रथम बौछार के बाद जब पहली बार खेत में हल भेजा जाता है तो उसकी पूजा की जाती है। यही वे संस्कार हैं जो चकिया (बलिया) के गोबर से लीपे आंगन से दिल्ली के आधुनिक या उत्तर आधुनिक जीवन तक केदार जी का पीछा करते हैं। और केदार जी भी इनसे पीछा छुड़ाने के बजाय इन्हें आत्मसात करके बचाए रखने का हरसंभव प्रयास करते हैं। केदार जी वास्तव में लोकजीवन की संवेदना के कवि हैं, पर उनकी दृष्टि वैश्विक है। दरअसल लोक-राग ने ही उनके मन में काव्य के बीज बोए हैं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- 'गांव की स्त्रियां अल सुबह गाती हुई गंगा नहाने जाती थीं। मैं एक शिशु की तरह रजाई में लिपटा उन्हें सुनता था। उन्हीं आरंभिक आवाजों में कहीं मेरे भीतर काव्य के स्फुरण के पहले बीज थे।' सिर्फ स्फुरण की बात नहीं है, केदार जी की कविता पर नजर डालें तो 'अभी बिलकुल अभी' से लेकर 'उत्तर कबीर' तक उनकी रचना-यात्रा में लोकजीवन और उससे जुड़ी हुई स्मृतियां बार-बार उनकी कविता में आती हैं। तीस वर्षों से दिल्ली में रहते हुए भी वे अपने मूल स्थान से संबंध बनाए हुए हैं। हालांकि समय की जटिलता बढऩे के साथ इस संबंध में भी जटिलता आई है। शुरुआत में यह संबंध 'मेरो मन अनत कहां सुख पावे' की तर्ज पर था, लेकिन अब उनके मन में सवाल भी उठता है कि मेरो मन अनत क्यों नहीं सुख पावे? बाद की कविताओं में यह प्रश्नाकुलता काफी मुखर रूप में देखने को मिलती है। स्मृतियों में बार-बार लौटने वाले केदार जी अब खुद से ही सवाल भी करने लगे हैं-
एक बूढ़े पक्षी की तरह लौट-लौटकर
मैं क्यों यहां चला आता हूं बार-बार।
क्यों चला आता हूं बार-बार कहते हुए उन्हें अपने आने को लेकर कोई व्यर्थताबोध नहीं है, बल्कि उनकी चिंता के मूल में यह है कि अब आ तो गया हूं पर क्या करूं। ऐसे समय में उनकी एक चिंता यह भी होती है कि- मिलूं पर किस तरह मिलूं कि बस मैं ही मिलूं और दिल्ली न आए बीच में। दरअसल वे जन से एक ऐसा जुड़ाव चाहते हैं जिसमें छद्म का कोई आवरण न हो। कि जब वे लोगों से मिलें तो बीच में सिर्फ सत्य हो, निरावृत सत्य। सत्य का यह खुलापन अगर चुभता भी हो तो उन्हें यह चुभन स्वीकार्य है। 'पोस्टकार्ड' कविता में वे लिखते हैं-
यह खुला है इसलिए खतरनाक है
खतरनाक है, इसलिए सुंदर।
और ये जो 'सुंदर' है इसकी तलाश ही केदारनाथ सिंह की कविता का मूल स्वर है। अपने प्रारंभिक दिनों में इस सुंदर की प्राप्ति की आकांक्षा को बड़े सहज रुप में कह देते थे कि - दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए। लेकिन अब उनके पास इस 'चाहिए' के लिए लंबी फेहरिश्त है-जिसमें कोहरा भी हैऔर बकाइन के पत्ते और नीलगायों के खुर और आंखों की वह आवाज जो कानों को कभी सुनाई नहीं पड़ती और न जाने क्या-क्या...इस जटिल समय से जूझते हुए केदार जी की काव्य-दृष्टि यह भी देख लेती है कि इस 'चाहिए' की राह इतनी आसान नहीं है। इसकी राह में अमेरिका जैसे पहाड़ हैं और धर्मांधता जैसे गड्ढे भी। यथार्थ से यह मुठभेड़ केदार जी की कविता को नई धार देती है। वास्तव में केदार जी की कविता की धार तलवार की धार की तरह नहीं बल्कि पानी की धार जैसी है जो अपनी तरलता के बावजूद तीव्र होने पर लोहे की मोटी-मोटी चद्दरों को भी काट देती है। कठोर से कठोर वास्तविकता को अभिव्यक्त करते हुए वे अपनी भाषा की तरलता को बचाए रखते हैं। राजनीतिक शब्दावली से बचते हुए किस तरह राजनीतिक कविता लिखी जा सकती है, इसका सटीक उदाहरण केदार जी की 'शिलान्यास' और 'संतरा' शीर्षक कविताएं हैं। 'शिलान्यास' कविता में वे सोवियत संघ के ध्वस्त होने और इस विध्वंस के बावजूद माक्र्सवाद के प्रति उम्मीद को खूबसूरत बिंब के जरिए व्यक्त करते हैं जिसमें ध्वस्त पुल के पांयों पर रोशनी पडऩे से वे एसे चमक रहे हैं जैसे नए पुल का शिलान्यास किया गया हो। इसी तरह अर्नेस्तो कार्दिनाल के लिए लिखी 'संतरा' शीर्षक कविता में वे साम्राज्यवाद शब्द का उल्लेख किए बिना अमेरिका की साम्राज्यवादी नीति की बखिया एक संतरे के माध्यम से जिस खूबी के साथ उधेड़ते हैं, वैसा हर कवि के लिए संभव नहीं है। इस संदर्भ में उनकी 'कुएं' शीर्षक कविता भी उल्लेखनीय है-
कुओं को ढक लिया है घास ने
क्यों कुओं ने क्या बिगाड़ा घास का
बिगाड़ा तो कुछ नहीं
बस घास का फैसला कि अब कुएं नहीं रहेंगे।

असहिष्णुता और फासिज्म के खिलाफ इससे बेहतर टिप्पणी और क्या हो सकती है। व्यवस्था परिवर्तन की बात तो सब करते हैं, पर केदार जी की दृष्टि इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकती कि दुनिया बदलने का दम भरने वाले लोग अपने पड़ोस के किसी अन्याय को कैसे चुपचाप सह जाते हैं। केदारनाथ सिंह दुनिया को बदलने का दम नहीं भरते। वे तो सिर्फ एक छोटी सी कोशिश करना चाहते हैं-
दुनिया बदलने से पहले
मुझे बदल डालनी चाहिए अपनी चादर
जो मैली हो गई है।

वाकई सब अपने-अपने मन की मैली चादर बदल दें, तो दुनिया कितनी उजली हो जाएगी। साहित्य अकादमी पुरस्कार और दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित केदार जी को हाल में ही भारत-भारती पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। उन्हें बहुत सारी बधाइयां।

Tuesday, January 6, 2009

राम चंद्र ने उनका बिगाड़ा क्या था


(आधार प्राशन से शीघ्र प्राश्य उपन्यास उत्तर वनवास ा ए अंश आप पहले पढ़ चुे हैं। पेश है उसकेआगे ी ए ड़ी। पिछले अंश पर ाफी प्रेर और विचारोत्तेज टिप्पणियां मिली थीं। इस अंश पर भी आपी प्रति्रिया ा इंतजार है। )
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'' मेरे राम ने उनका बिगाड़ा क्या था?

माया राम ने इस सवाल को दोहराया-तिहराया, लेकिन वहां जवाब देने वाला कोई नहीं था। भीड़ तो कब की छंट चुकी थी।

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राम ने उनका बिगाड़ा क्या था... बताने क लिए रामचंद्र ने मुंह खोलने की कोशिश की, लेकिन मुंह नहीं खुल सका। पूरा मुंह सूजा हुआ था। आंखों के नीचे और गालों पर कत्थई धब्बे पड़ गए थे। राम चंद्र अगर बड़े होते तो समझ जाते कि छोटे कुंवर के खिलाफ मुंह खोलना वाकई बहुत कठिन काम है। पर वे तो बालक थे सो मुंह खोलने की कोशिश कर रहे थे। मुंह से सिवाय एक हल्की सी चीख के कुछ नहीं निकला, लेकिन आंखों से दो बूंद आंसू जरूर टपक कर गालों पर आ गए । रामचंद्र को अपने ही आंसुओं में पूरा घटनाक्रम किसी चल-चित्र की तरह नजर आने लगा—
रिजल्ट पिता को देकर वे गाय चराने जा रहे थे। रास्ता मकान नंबर एक के सामने से था। हवेली के सामने चबूतरे पर दिनेश सिंह का दरबार लगा हुआ था। छोटे कुंवर, यानी दिनेश सिंह के पुत्र राहुल सिंह, चबूतरे के चारों ओर गोल घेरे में साइकल चला रहे थे। तीन-चार बच्चे उनके पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। छोटे कुंवर के पास गांव की एकमात्र बच्चा-साइकल थी। इस पर सवारी करना गांव के अधिकांश बच्चों के े लिए एक सपना था। सपना पकड़ से बाहर था, इसलिए वे दौड़ती साइकल के पीछे-पीछे दौड़कर ही छोटे कुंवर के आनंद केे हिस्सेदार बन जाते थे। यह अनोखी हिस्सेदारी थी, जिसमें छोटे कुंवर का मजा कम नहीं होता था और दूसरों को भी अपने हिस्से का मजा मिल जाता था। पर ये ऐसा मजा था जिसके साथ-साथ सजा भी थी। छोटे कुंवर जिस पर गुस्सा होते, लात मार कर भगा देते। पता नहीं यह उस साइकल का आकर्षण था या लगातार लात खाते-खाते उन बच्चों का स्वाभिमान इस तरह मर गया था कि लात खाने के े थोड़ी देर बाद वे फिर साइकल के े पीछे दौड़ते नजर आते। राम चंद्र भी एक बार इस साइकल केे पीछे दौड़े थे। शायद उसी दिन की बात है जिस दिन यह सपन-सवारी खरीद कर लाई गई थी। गांव की गतिहीन जिंदगी में अजूबे की तरह दाखिल हुई इस साइकल को घेर कर बच्चे बूढ़े और जवान लोगों का एक हुजूम खड़ा था। रामचंद्र भी इस भीड़ का हिस्सा थे। छोटे कुंवर साइकल पर बैठ गए। रामचंद्र और दो तीन लड़कों ने साइकल को थाम लिया ताकि गिरे नहीं। छोटे कुंवर धीरे-धीरे पैडल चला रहे थे। चबुतरे के चार-पांच चक्कर लगाने केे बाद अचानक न जाने कैसे संतुलन गड़बड़ा गया और साइकल समेत छोटे कुंवर जमीन पर आ गिरे। उठते ही उन्होंने रामचंद्र को दो तीन थप्पड़ जड़ दिए। रामचंद्र की आंखें भर आईं। डबडबाई आंखों से उन्होंने मौजूद बड़े-बुजुर्गों की ओर देखा। पर वहां किसी को उनकी आंखों में उमड़ आए बादलों को देखने की फुर्सत नहीं थी, सब छोटे कुंवर की धूल झाडऩे में व्यस्त थे। बड़े-बुजुर्गों की यह उपेक्षा थप्पड़ से ज्यादा बड़ी चोट थी। आंखों में उमड़ रहे बादलों को इस चोट के बाद रोक पाना मुश्किल हो गया था। पहले एक बूंद टपकी। फिर दूसरी। फिर तीसरी। और फिर लगातार जलधार।

बहते आंसुओं के बीच रामचंद्र ने खुद से पूछा— आखिर मेरा अपराध क्या है? तालों के े शहर भोपाल के े जनवादी कवि राजेश जोशी की कविता मारे जायेंगे तब तक नहीं लिखी गई थी, वर्ना वे बड़ी आसानी से समझ जाते कि इस समय सबसे बड़ा अपराध है निहत्थे और निरपराध होना / जो अपराधी नहीं होंगे / मारे जाएंगे। परंतु राम चंद्र के े पास उस समय न तो समाजशास्त्रीय समझ थी और न ही राजेश जोशी की यह कविता, लिहाजा वे यह समझ पाने में असमर्थ थे कि उनका अपराध क्या है?

उस दिन के बाद वे छोटे कुंवर की साइकल के पीछे कभी नहीं दौड़े। जब भी वे उन्हें साइकल चलाते देखते हैं, उन्हें अपना अपमान याद आ जाता है। आज फिर उन्हें अपना अपमान याद आ गया। इस दृश्य से अपने को ओझल करने की गरज से वे तेज-तेज कदमों से चलने लगे। अचानक उन्हें छोटे कुंवर की आवाज सुनाई दी-

''रमुआ जरा इधर आ।"

राम चंद्र पास आ गए। अब तक छोटे कुंवर ने साइकल नीम के पेड़ से टिका दी थी। आते ही रामचंद्र के गाल पर दो तमाचे जड़ दिए। राम चंद्र ी समझ में कुछ नहीं आया पर अगले ही क्षण उन्हें यह बता दिया गया कि उनका अपराध क्या है—

''ससुरऊ सारे गांव में घूम-घूम के बता रहे हो कि तुम फस्ट आए हो और मैं सेकंड। ई लो फस्ट आने का इनाम।" कहते हुए छोटे कुंवर ने दो थप्पड़ और जड़ दिए थे।

''पर मैं तो गांव में किसी के े यहां गया ही नहीं था। स्कूल से सीधा अपने घर गया था। पिता जी को रिजल्ट दिया और गाय-बछिया लेकर े इधर गया। इस बीच न कोई मुझसे मिला और न ही मैंने किसी को कुछ बताया।"

राम चंद्र ये सब कहना चाहते थे, लेकिन सुनता कौन? छोटे कुंवर को तो लात-जूते चलाने से ही फुर्सत नहीं थी। पीटते-पीटते थक गए तो पीठ पर एक लात मार कर बोले — भाग साले। पर भागने की ताकत किसमें थी? राम चंद्र की आंखों के े आगेr तो अंधेरा छाने लगा था।काले अंधेरे में लाल-नीले पीले छल्ले नाचते हुए नजर आ रहे थे। जमीन गोल-गोल घूमती लग रही थी। हिम्मत बटोरकर खड़े हुए। दो कदम चले और फिर गिर पड़े।
इसके बाद वे कैसे अपने घर तक पहुंचे थे, यह एक पहेली है।

राम चंद्र का कहना है- ''जब मैं गिर पड़ा तो एक बड़ा सा बंदर और उसने मुझे अपने कंधे पर उठा लिया। इस·े बाद मुझे कुछ होश नहीं रहा। होश आया तो मैं अपने घर के सामने पड़ा था।"

''निश्चित ही वे हनुमान जी थे, जो मेरे राम की मदद के लिए आए थे।" यह मां का विश्वास था। मां अत्यंत धार्मिक महिला थीं। एक डेढ़ घंटे रोज पूजा-पाठ करती थीं।रामचरित मानस का सुंदर कांड और गीता का आठवां अध्याय रोज पढ़ती थीं। हनुमान जी पर उनका विश्वास अटल था। पर गांव में दो-तीन लोग ऐसे भी थे जिनका दावा था कि उन्होंने राम चंद्र को गिरते-पड़ते, उठते-संभलते-घिसटते हुए झोपड़ी तक आते अपनी आंखों से देखा था।

बहरहाल यह आपबीती और आंखों-देखी की विश्वसनीयता का द्वंद्व था और लोग किसी एक पर एकमत नहीं थे। कुछ लोग आपबीती के े पक्ष में खड़े थे तो कुछ आंखिन-देखी के े समर्थन में। सबके पास अपने-अपने तर्क थे और तर्कों की पेंच-लड़ाई के े बीच सच की पहचान मुश्किल हो गई थी।
लेकिन माया राम इस सच को समझ गए थे कि रामचंद्र का कस्तूरी होना अब रंग दिखाने लगा है। इस घटना के बाद से वे इस कस्तूरी को अपने भय की गोदड़ी में छुपा कर रखने लगे थे। पर वे इसे छुपाने की जितनी कोशिश कर रहे थे, सुगंध उतनी ही तेजी से फैलती जा रही थी।