Tuesday, July 17, 2012

उत्तर वनवास का दूसरा संस्करण


मित्रो, एक छोटी-सी सूचना साझा करना चाहता हूं। अभी थोड़ी देर पहले मेरे मित्र, प्रकाशक देश निर्मोही का फोन आया कि उत्तर वनवास का दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया है। उत्तर वनवास का पहला संस्करण 6 फरवरी 2010 को पुस्तक मेले में लोकार्पित हुआ था। महज ढाई वर्ष में दूसरा संस्करण आ जाना निश्चित ही मेरे लिए खुशी की बात है। यह सब आप मित्रों और पाठकों के स्नेह से ही संभव हुआ है। हर पीढ़ी के रचनाकारों ने इसे जिस तरह अहमियत दी है, उससे मन कृतज्ञता से भरा हुआ है।
 इस अवसर पर, गत दो वर्षों में विभिन्न स्थानों पर प्रकाशित
-प्ररसारित कुछ टिप्पणियों से कुछ वाक्य साझा कर सबके प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूं।


नामवर सिंह ( पब्लिक एजेंडा )
मैं एक सांस में इस उपन्यास को पढ़ गया। लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों का यह उपन्यास इतना बांधे हुए था। बार-बार श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी की याद आ रही थी। उपन्यास में व्यंग्य का सटीक प्रयोग हुआ है। कोई वाक्य ऐसा नहीं है, जिस पर अवध की विशिष्ट संस्कृति की छाप न हो। और सबसे खास पक्ष है इसका विन्यास। विषय-वस्तु का विस्तार आपातकाल से लेकर रामजन्मभूमि विवाद और आज की राजनीति तक है। ...उत्तर वनवास' इस दौर में लिखे गए उपन्यासों में नए ढांचे, नई कथादृष्टि वाली एक उल्लेखनीय कृति है।

राजेंद्र यादव ( लोकार्पण वक्तव्य )
यह उपन्यास एक पत्रकार और कवि का लिखा हुआ है। इनकी भाषा में जहां पत्रकारिता की चुटकी है, विवरण हैं, वहीं कविता का स्पर्श भी जगह-जगह मिलता है। जिस तैयारी से अरुण आदित्य आए हैं, मेरा ख्याल है कि दुनिया के बहुत बड़े बड़े उपन्यासकार चाहे वे हैमिंग्वे हों, चाहे सामरसेट मॉम हों, सारे लोग पत्रकार ही थे, मैं समझता हूं कि यह उनके लिए संभावनाओं का एक नया क्षेत्र है।

संजीव ( अन्यथा )
अरुण ने कहानी से नहीं, कविता से उपन्यास में पदार्पण किया है, लेकिन भाषा की विरल व्यंजनाओं को जिस तरह साधा है, जिस तरह फ्लैश  बैक, स्वप्न, डायरी, कविता, बिम्बों और फंतासियों का बहुविध प्रयोग किया है, वह उनके अन्दर छुपी संभावनाओं को दर्शाता  है। अलबत्ता अरुण भी सायास शैल्पिक और भाषिक  रचाव के मोह से मुक्त नहीं हैं। धनात्मक पक्ष इसकी ताकत बनता है और ऋणात्मक पक्ष उनके फैलावों के हाथ बांधे रखता है।

मदन कश्यप ( बया )
अरूण आदित्य के पास बहुत ही ताक़तवर भाषा है। वे एक नई तरह की कथा भाषा अर्जित करते हैं, जिसमें मानस की चौपाइयों के साथ-साथ अन्य कविताओं का भी सटीक प्रयोग है,लेकिन वह इस हद तक काव्यात्मक नहीं है जो कथाप्रवाह में व्यवधान पैदा करे। पूर्ववर्ती कवि-कथाकारों की तरह वे भी बड़ी सजगता से अपनी कथाभाषा को काव्य भाषा से अलग करते हैं और उसकी शर्तों पर ही कलात्मक उत्कर्ष देने का प्रयत्न करते हैं। यहां ऐसा कथारस है जो नई पीढ़ी के कथाकारों में दुर्लभ है। यह सिफ काशीनाथ सिंह में मिलता है और उसका विस्तार स्वयं प्रकाश, संजीव, उदय प्रकाश और अखिलेश जैसे कथाकारों में दिखाई देता है।

रजनी गुप्त ( कथाक्रम )
उपन्यास के पन्ने पन्ने पर बिखरा पड़ा है- भाषिक सौन्दर्य और यही उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी है। शब्दों का जादुई इस्तेमाल करने की कला में माहिर कथाकार कहीं फंतासी के जरिए तो कहीं कल्पनालोक का नये ढंग से प्रयोग करते हुए जीवंतता को सृजित करता है।

हरे प्रकाश उपाध्याय (हिंदुस्तान)
इसमें भारतीय राजनीति में आपातकाल से लेकर सांप्रदायिक उफान तक की उथल-पुथल को रेखांकित किया गया है। चूंकि वे कवि और पत्रकार दोनो  हैं, इसलिए इसमें भाषिक स्तर पर कहीं-कहीं कविता का ठाठ और कंटेट के स्तर पर पत्रकारीय एप्रोच दिखाई पड़ता है। कहीं पत्रकारीय हड़बड़ी तो कहीं कवि की मौज इस उपन्यास में शुरू से अंत तक मौजूद है।

उत्तर वनवास के दूसरे संस्करण की बधाई के बड़े हकदार इसके प्रकाशक देश निर्मोही हैं। उन्हें बधाई देना चाहें तो उन्हें aadhar_prakashan@yahoo.com  पर मेल कर सकते हैं।