Tuesday, August 30, 2011

एन जी ओ का पइसा बोला




मैं भी अन्ना

गलियां बोलीं, मैं भी अन्ना, कूचा बोला, मैं भी अन्ना!

सचमुच देश समूचा बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!


भ्रष्ट तंत्र का मारा बोला, महंगाई से हारा बोला!
बेबस और बेचारा बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!

जोश बोला मैं भी अन्ना, होश बोला मैं भी अन्ना!

युवा शक्ति का रोष बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!


साधु बोला मैं भी अन्ना, योगी बोला मैं भी अन्ना!
रोगी बोला, भोगी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!


गायक बोला, मैं भी अन्ना, नायक बोला, मैं भी अन्ना!
दंगों का खलनायक बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!

कर्मनिष्ठ कर्मचारी बोला, लेखपाल पटवारी बोला!

घूसखोर अधिकारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!


मुंबई बोली मैं भी अन्ना, दिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
नौ सौ चूहे खाने वाली, बिल्ली बोली, मैं भी अन्ना!

डमरू बजा मदारी बोला, नेता खद्दरधारी बोला!

जमाखोर व्यापारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!


हइया बोला मैं भी अन्ना, हइशा बोला मैं भी अन्ना!
एन जी ओ का पइसा बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!

दायां बोला, मैं भी अन्ना, बायां बोला, मैं भी अन्ना!

खाया, पिया, अघाया बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!

निर्धन जन की तंगी बोली, जनता भूखी नंगी बोली
हीरोइन अधनंगी बोली, मैं भी अन्ना ,
मैं भी अन्ना!

नफरत बोली मैं भी अन्ना, प्यार बोला मैं भी अन्ना!
हंसकर भ्रष्टाचार बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!


- अरुण आदित्य
( साभार : अमर उजाला, २८ अगस्त २०११)

Thursday, May 26, 2011

मदन कश्यप : ऐसा बहुत कम होता है मेरे साथ


धर्म और सांप्रदायिकता के बीच नए रामचंद्र की कथा

मदन कश्यप
चर्चित कवि, पत्रकार और संस्कृतिकर्मी

उपन्यास को खत्म करने के बाद मुंह से बस एक शब्द निकला-अद्भुत! ऐसा बहुत कम होता है मेरे साथ। वैसे भी मैं कथा साहित्य का अच्छा पाठक नहीं हूं। मेरे अध्ययन औररुचि के क्षेत्र दूसरे हैं कविता, विचार, इतिहास और समाज विज्ञान के अलावा थोड़ा-बहुत राजनीति। मैं कथा में भी इन्हीं चीजों को ढूंढ़ता हूं और अक्सर निराशा हाथ लगती है। इस दृष्टि से हिंदी की तुलना में कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के उपन्यास मुझे ज्यादा आश्वस्त करते हैं। फिर भी 'उत्तर वनवास' पढ़ा क्योंकि एक गोष्ठी में इस पर कुछ बोलना था और उसके लिए पढऩा जरूरी था। शुरुआत एक आशंका के साथ की इसलिए कि अरुण आदित्य को मैं अब तक केवल एक कवि के रूप में ही जानता था। कविता के अलावा उनकी कुछ समीक्षाएं भी पढ़ रखीं थी और उनकी समझ और विश्लेषण का कायल था। वे पेशे से पत्रकार हैं तो इस नाते सामाजिक मुद्दों पर लिखीं उनकी कुछ टिप्पणियां भी पढ़ी थीं। लेकिन यह उपन्यास है और इसके पहले अरुण की कहानी भी नहीं पढ़ी थी कि उसके आधार पर कोई धारणा बनाता। जहां तक मुझे मालूम है उन्होंने अब तक कोई कहानी लिखी भी नहीं है। सृजनात्मक गद्य की यह पहली किताब है उनकी। फिर भी एक बार जब शुरू कर दिया तो अंत करके ही छोड़ा। ऐसा कथारस है जो नई पीढ़ी के कथाकारों में दुर्लभ है। यह सिफ काशीनाथ सिंह में मिलता है और उसका विस्तार स्वयं प्रकाश, संजीव, उदय प्रकाश और अखिलेश जैसे कथाकारों में दिखाई देता है। नई पीढ़ी का कथा लेखन एक अंधी-सुरंग में फंसा हुआ दिखाई दे रहा है।
दरअसल नए लेखकों के पास विचार तो हैं, मगर प्रतिबद्घता की कमी के कारण दृष्टि बहुत साफ नहीं है। कुछ नए अनुभव हैं लेकिन व्यापक जीवन अनुभव और इतिहास के प्रवाह के बीच उन्हें व्यवस्थित करने की कुशलता अभी नहीं आई है। इतिहास दृष्टि ,विश्वदृष्टि, और वर्ग चेतना के स्तर पर भी कुछ धुंध है। ऐसे में वे कथ्य को अधिक-से-अधिक काव्यात्मक बनाने की कोशिश करते हैं, जिससे कथारस का लोप हो जाता है और कहानी (उपन्यास भी) प्राय: अपठनीय हो जाती है। ऐसे कठिन दौर में इधर अनामिका के उपन्यास दस द्वारे का पींजरा और अरुण आदित्य के 'उत्तर वनवास' को पढ़कर ऐसा लगा कि सुरंग तो है, मगर अंधी सुरंग नहीं। उससे पार निकलना केवल संभव है बल्कि उसके पार उजास की एक दुनिया भी है जिसकी झलक दिख रही है। ऐसी कुछ कहानियाँ भी हैं, लेकिन कहानियों और कहानीकारों की चर्चा अभी उचित नहीं है।
मैं इस लंबी वक्तव्युनमा टिप्पणी के लिए माफी चाहता हूं मगर इसके बगैऱ 'उत्तर वनवास' पर कुछ लिखना मेरे लिए संभव नहीं था।... यह कवि पत्रकार-कवि अरुण आदित्य की पहली कथा कृति है, मगर इसमें वह कच्चापन नहीं है जो प्राय: किसी पहली कृति में होता है। नयापन जरूर है। कविता की भाषा आलोचना की विश्लेषण क्षमता और पत्रकारिता के समय-समाज को देखने के नजरिए का जैसा संतुलित और सृजनात्मक उपयोग कथाकार ने किया है, वह दुर्लभ है। उपन्यास की कथावस्तु अत्यंत परिचित और इसीलिए सामान्य है। मध्य उत्तर प्रदेश का एक गांव जहां जाने के लिए नदी पर पुल तक नहीं था। आज़ादी के बाद भी सामंती व्यवस्था कायम थी और शक्तिशाली ब्राह्मणों और राजपूतों के दो पाटों के बीच गाँव के पिछड़े-दलित पिस रहे थे। ऊंची जातियों के गरीबों की भी अपनी व्यथा-कथा थी। ज़ुल्मियों की संख्या कम ही थी, मगर जुल्म का फैलाव बहुत ही व्यापक और गहरा था। इसी बीच, गाँव-गाँव में रामजन्मभूमि विवाद के माध्यम से सांप्रदायिकता का प्रवेश होता है। फिर बाबरी मस्जिद के विध्वंश के बाद सांप्रदायिकता का जो सैलाब आता है उसमें नए मानवीय मूल्य ही नहीं, धार्मिक और नैतिक मूल्य भी डूब जाते हैं। उपन्यास का अंत नंदीग्राम जाने की ओर इशारा करते हुए होता है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंश से लेकर नंदीग्राम मार्च तक के लंबे कालखंड की राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल को १६० पृष्ठों में समेटने का उपक्रम किया गया है। ऐसे में इस कृति के एक पत्रकारीय रपट बन जाने का ख़तरा था। जैसा कि पत्रकारों के कथा-लेखन केसाथ अक्सर होता भी है। मगर अरुण ने कथानायक रामचंद्र के चरित्र को कुछ इस रूप में विकसित किया है कि उसके पलुहने केसाथ-साथ कथावस्तु का भी अपरिचयकरण होता चलता है और यह चिरपरिचित कथा एक महत्वपूर्ण कृति बन जाती है। रामचंद्र का चरित्र निरूपण अद्भुत है। कभी-कभी वह मेटाफर या रूपक लगता है, कथा में ऐसे संकेत मिलते हैं, मगर उसका चरित्र इतना जीवंत, रोचक और ग्रामीण जीवन की विसंगतियों और जटिलताओं से इस तरह आबद्घ है कि रूपक से ज्यादा उसका वजूद प्रभावित करने लगता है।
सवर्णों के सबसे गरीब परिवार में पैदा हुआ रामचंद्र सबसे पहले तो इस बात के लिए पिट जाता है कि पाँचवी की परीक्षा में वह अव्वल आता है और गाँव के जमींदार का,जो लोकतंत्र का मुखिया है,बेटा कुँवर साहब दूसरे स्थान पर खिसक जाता है। यहीं से रामचंद्र का नैतिक और सामाजिक संघर्ष शुरू होता। अंतत: कुंवर के कारण ही उसे गाँव छोडऩा पड़ता है। शहर में वह एक मठ में शरण लेता है, वहाँ अपने रामायण ज्ञान और कथावाचन की प्रभावी शैली केचलते केवल गुरू जी का प्रिय शिष्य बन जाता है, बल्कि सत्ता की ओर अग्रसर सांप्रदायिक दल में भी शामिल हो जाता है। वह प्रखर प्रवक्ता है और बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित कर लेता है जिसके चलते उसे पार्टी का काफी ऊँचा पद मिल जाता है। रामचंद्र रामायणी के रूप में उसकी कीर्ति फैल जाती है।
लेकिन रामचंद्र रामायणी जब नैतिक और धार्मिक आधार पर सांप्रदायिकता की राजनीति का विरोध करते हैं तो पार्टी में उन्हें अपमानित होना पड़ता है। उन्हें दुख इस बात से होता है कि गुरू जी उनका बचाव नहीं करते। इस तरह,उपन्यासकार ने धर्म के सामाजिक उपयोग और राजनीतिक इस्तेमाल के बीच की टकराहट को अच्छी तरह रखा है और सांप्रदायिकता की राजनीति की पोल खोली है।
इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसमें कथानक रामचंद्र रामायणी के चरित्र के विकास को सरल रेखीय ढ़ंग से नहीं प्रस्तुत किया गया है बल्कि छोटी-छोटी रोचक घटनाओं के माध्यम से उसे निरूपित किया गया है। ये घटनाएँ अपनी रोचकता के कारण नहीं, उस जीवन दृष्टि के कारण प्रभावित करतीं है जिसे वे निर्मित कर रही होती हैं। रामचरित मानस की चौपाइयों का ऐसा सृजनात्मक प्रयोग ता हिंदी की किसी आधुनिक कथाकृति में देखने को नहीं मिला। मार्मिकता, क्रूरता और विसंगति को उभारने के लिए इनकी प्रासंगिकता नए सिरे से रेखांकित होती है। रामचंद्र के जीवन में एक छोटा-सा प्रसंग प्रेम का भी आया था जब प्रयाग में कथा बाँचते हुए उनकी नजर एक युवती से मिली थी। वहाँ वाटिका प्रसंग लाकर लेखक ने उसे एक गहराई दी है। लेकिन नयनों से नयनों का वह संभाषण आगे नहीं बढ़ पाया और रामचंद्र के कलेजे में एक हूक बन कर अटक गया।
रामचंद्र के मित्र थे वामपंथी कवि सत्यबोध। तीखी वैचारिक बहसों के बावजूद दोनों एक दूसरे की ईमानदारी और निष्ठा का आदर करते थे। आखिऱी बार सबकुछ का त्याग करके रामचंद्र जब अपने गुरूदेव का आश्रम छोड़ कर निकलते हैं तो उन्हें सत्यबोध मिल जाते हैं और वे स्वप्न की तलाश में सत्यबोध के पीछे चल पड़ते हैं। यह सच्चाई नहीं, बल्कि लेखक का सपना है मगर कथा के अंत में इतने विश्वसनीय ढंग से आया है कि कहीं से भी रूमानी अंत जैसा नहीं लगता। सपने में सच जैसी विश्वसनीयता पैदा करना कला की सबसे बड़ी सफलता होती है,जो बहुत कम कृतियों को मिल पाती है।
अरूण आदित्य के पास बहुत ही ताक़तवर भाषा है। वे एक नई तरह की कथा भाषा अर्जित करते हैं, जिसमें मानस की चौपाइयों के साथ-साथ अन्य कविताओं का भी सटीक प्रयोग है,लेकिन वह इस हद तक काव्यात्मक नहीं है जो कथाप्रवाह में व्यवधान पैदा करे। पूर्ववर्ती कवि-कथाकारों की तरह वे भी बड़ी सजगता से अपनी कथाभाषा को काव्य भाषा से अलग करते हैं और उसकी शर्तों पर ही कलात्मक उत्कर्ष देने का प्रयत्न करते हैं। इसके चलते उन्हें केवल इस उपन्यास में ही सफलता नहीं मिली है, बल्कि इसके माध्यम से उन्होंने एक नई उम्मीद भी जगाई है। आवरणिका पर वरिष्ठ कथाकार संजीव ने ठीक लिखा है कि नई पीढ़ी के सामने उपन्यास लेखन को लेकर जो ढेर सारी चुनौतियाँ थीं,उनका जबाव लेकर आया है अरूण आदित्य का यह उपन्यास।
(साहित्यिक पत्रिका बया के जनवरी-मार्च 2011 अंक में प्रकाशित)
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उपन्यास : उत्तर वनवास
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, एससीएफ- 267
सेक्टर-16, पंचकूला-134113 (हरियाणा)
मोबाईल - 09417267004
मूल्य : 200 रुपए

Friday, February 25, 2011

कविता के कुछ पते

मेरी कविता के कुछ पतेः  दो  कवितायें अनुनाद पर ।  चार  कवितायें समय संकल्प पर। पांच कविताएं समालोचलन  पर। कुछ और कवितायें सुनहरी कलम  पर पढ़ सकते हैं।

Tuesday, February 8, 2011

भगवत रावत का देश राग




जिस देश में भगवत रहते हैं...

अरुण आदित्य

गहिरी नदी अगम बहै धरवा, खेवन-हार के पडिग़ा फन्दा।
घर की वस्तु नजर नहि आवत,
दियना बारिके ढूँढ़त अन्धा

कबीर की इन पंक्तियों से इस लेख की शुरुआत होने ही जा रही थी कि अचानक ब्रेख्त की कुछ काव्य-पंक्तियां मन में कौंध उठीं। और एक द्वंद्व छिड़ गया कि कबीर से शुरू करूं या ब्रेख्त से? और मेरे द्वंद्व का आनंद लेते हुए कबीर और ब्रेख्त की सतरें ठेठ लखनवी अंदाज में 'पहले आप-पहले आप' करने लगीं। पर अंतत: दोनों को इस बात का एहसास हो गया कि उनमें से किसी का भी ठिकाना लखनऊ में नहीं है, इसलिए 'पहले आप' के लखनवी लटके का कोई मतलब नहीं है; और इस बात पर सहमति हो गई कि इस भगवत-चर्चा का शुभारंभ कबीर के साथ और समाहार ब्रेख्त की कविता के साथ होगा। अब जब कबीर की इन पंक्तियों से लेख शुरू हो ही चुका है, तो आइए इसके पक्ष में कुछ तर्क भी देख लिए जाएं। मसलन भगवत रावत का कविता-समय भी ठीक वैसा ही है, जिसमें देश (राष्ट्र नहीं) गहरी नदी की अगम धार में फंसा हुआ है, और खेवनहार फंदों में कसे हुए हैं। यह ठीक वही देश-काल तो है जिसमें अंधा समाज दीये की रोशनी में चीजों को ढूंढऩे का उपक्रम कर रहा है। और कबीर की तरह ही भगवत रावत की कविता भी कभी चीख-चीखकर और कभी कान में फुसफुसा कर यही कहना चाहती है कि भैया इस अंधेरे समय में तुम्हें दीये से पहले दृष्टि की जरूरत है। खुली आंखें चाहिए जिनसे आसपास का अंधेरा ही नहीं, भविष्य के स्वप्न भी देखे जा सकें।
भगवत रावत का नया कविता -संग्रह 'देश एक राग है' पढ़ते हुए यह बात एक बार फिर साफ हो जाती है कि उनकी कविता प्रेक्षाभाव-मात्र की कविता नहीं है। हालांकि अपने अनेक समकालीनों और परवर्ती कवियों की तरह भगवत भी एक कुशल प्रेक्षक की तरह सूक्ष्म-विवरणों तक जाते हैं, परंतु विवरणों में विचरते हुए वे सभ्यता-समीक्षा के अपने मूल कर्म को नहीं भूलते। यही वजह है कि उनकी कविता एक ऐसे प्रिज्म की तरह है, जो एक रंग का दिखने वाले प्रकाश के सातों रंगों को खोलकर प्रत्यक्ष कर देती है। वहां शुरुआत में प्रेम का बैंगनी रंग है तो अंतिम छोर पर क्रांति का लाल रंग भी है। और इन्हीं के बीच उदासी का पीला और सपनों का आसमानी रंग भी है। उनकी काव्य-दृष्टि ढलते हुए सूरज में भी उम्मीद का बिंब तलाश लेती है-
चुपचाप शांति से देखो यह दृश्य
वह निस्तेज नहीं हो रहा

ढल रहा है
किसी और जगह की सुबह के लिए
(सूरज ढल रहा है, पृष्ठ 38 ,पेपर बैक संस्करण)
इतने अंधेरे समय में उम्मीद की यह आश्वस्ति कहां से आती है? जाहिर है कि इस उम्मीद का उत्स वही ढाई अक्षर हैं, तमाम पोथियों के बजाय जिन्हें पढ़कर आदमी बकौल कबीर पंडित हो जाता है। जी हां, यह प्रेम की ही ताकत है-
तुम हो तो है इस तरह एक और सुबह पाने की उम्मीद की नींद।
(तुम हो तो , पृष्ठ 39 पेपर बैक संस्करण)

भगवत रावत की एक कविता है 'डायरी' जिसकी अंतिम पंक्तियां हैं- सच पूछो तो कवि की कविताएं ही होती हैं उसकी असली डायरी। दूसरे कवियों के बारे में यह कितना सच है, नहीं कहा जा सकता, लेकिन भगवत की अपनी कविता वास्तव में एक डायरी ही है, जिसमें उन्होंने अपने मन और जीवन को शब्द-दर-शब्द दर्ज किया है। हालांकि यह कवि की निजी डायरी है, लेकिन इसमें दर्ज सपने, आकांक्षाएं, कमजोरियां, हंसी, आंसू, प्रेम, नफरत आदि सिर्फ उनके ही नहीं, बल्कि इस देश की उस आम आबादी के हैं, जिसे भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्यारे देशवासियो कह कर संबोधित करते हैं।
इस संग्रह को पढ़ते हुए यह विश्वास एक बार फिर दृढ़ होता है कि भगवत रावत की कविता एक बेहतर दुनिया का ब्लू प्रिंट है। इस ब्लू प्रिंट में उन छोटे-छोटे लोगों के छोटे-छोटे सपनों के लिए भी पर्याप्त जगह मुकर्रर है जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं और जिन्हें रत्ती भर भी अंदेशा नहीं है कि उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है यह पृथ्वी। पूंजीवाद के साथ कदमताल करते साम्राज्यवाद के बूटों तले रौंदी जा रही मानवता की पुकार इस संग्रह की अनेक कविताओं में सुनी जा सकती है। इस कविता के एक छोर पर संवेदना है तो दूसरे छोर पर अदम्य युयुत्सा भी है। दरअसल कवि की ज्ञानात्मक संवेदना ही इस कविता को युयुत्सु बनाती है। प्रतिपक्ष में चाहे भूमंडलीकरण के नाम पर खेल रहा खलमंडल हो, या धर्म के नाम पर अधर्म का तेजाब बांटता कमंडल, भगवत रावत चुनौती को चुनौती की भाषा में ही प्रस्तुत करते हैं, बुझौती की भाषा में नहीं। खुलकर कहने में यकीन करते हैं और जहां जरूरी समझते हैं, नाम लेने से भी परहेज नहीं करते। जॉर्ज बुश से लेकर नरेंद्र मोदी तक को वे नाम लेकर ही पहचानते हैं। भगवत जानते हैं कि नाम लेने में खतरा है, पर वे यह भी जानते हैं कि खतरा उठाए बिना न मानवता बचाई जा सकती है और न ही कविता। खासकर ऐसे समय में जबकि मनुष्यता जैसे पद का भी अपहरण हो चुका है और उसी के नाम पर तमाम मनुष्यता विरोधी काम हो रहे हैं।
मनुष्यता को बचाने उन्होंने हिरोशिमा पर बम डाला मनुष्यता को बचाने उन्होंने वियतनाम उजाड़ डाला।
(उनकी मनुष्यता, पृष्ठ 29 पेपर बैक संस्करण)
जाहिर है कि जालिम-जुबानों से बार-बार दोहराए जाने के बाद मनुष्यता जैसे पद भी अपना अर्थ खोने लगते हैं। ऐसे में भगवत रावत जैसा सजग कवि शब्दों का नया अर्थ रचने की चुनौती को कैसे अस्वीकार कर सकता है। उसे पता है कि यह चुनौती कठिन है, पर इसके बिना बचाव नहीं है-
दुनिया का सबसे कठिन काम है जीना
और उससे भी कठिन उसे, शब्द के
अर्थ की तरह
रच कर दिखा पाना

जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता

(वह मारा नहीं जा सकता, पृष्ठ 69 पेपर बैक संस्करण)
संग्रह की शीर्षक कविता देश एक राग है एक ऐसी सिंफनी है जिसमें वादी, संवादी और विवादी सुर आपस में उलझे हुए हैं। इनकी उलझन देखकर ही यह समझा जा सकता है कि देश-राग और राष्ट्र-राग में अलग-अलग सुर क्यों लगते हैं और राष्ट्रवादी हुए बिना भी देशभक्त कैसे हुआ जा सकता है।
आज भी बड़े शहरों से मेहनत मजदूरी करके
जब
अपने-अपने घर-गांव लौटते हैं लोग
तो एक दूसरे से
यही कहते हैं
कि वे अपने देस जा रहे हैं

वे अपने पशुओं-पक्षियों, खेतों-खलिहानों
नदियों-तालाबों,
कुओं-बावडिय़ों, पहाड़ों-जंगलों
मैदानों-रेगिस्तानों
बोली-बानियों, पहनावों-पोशाकों, कान-पान
रीति-रिवाज
और नाच-गानों से इतना प्यार करते हैं
कि कुछ न होते हुए गांठ में
भागे चले जाते हैं हजारों मील ट्रेन में सफर करते
बीड़ी फूंकते हुए वे सच्चे देशभक्त हैं वे नहीं जानते राष्ट्रभक्त कैसे हुआ जाता है।
(देश एक राग है: पृष्ठ 11 पेपर बैक संस्करण)
भगवत जानते हैं कि राष्ट्रवाद आगे बढ़ता है तो साम्राज्यवाद की सीमा को छूने लगता है और पीछे हटता है तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गोद में चैन तलाशता है। जबकि देश-प्रेम अपने जल-जंगल-जमीन, पशु-पक्षी-पर्यावरण के नजदीक ले जाता है। इस एक कविता को पढ़कर भगवत रावत की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समझ, उनके तंज और रंज, शब्दों के खेल और शिल्प की सुघड़ता, सब की एक सुंदर बानगी मिल जाती है।
दिल्ली को केंद्र में रखकर लिखी गई लंबी कविता का शीर्षक 'कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबो-हवा और' सुनकर मिर्जा गालिब की बहुचर्चित पंक्ति 'कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयां और' की याद आती है। यह कविता गालिब से क्षमा याचना के साथ ही शुरू होती है। लेकिन इस कविता में जो दिल्ली है, वह गालिब की दिल्ली नहीं है। वह अमीर खुसरो, निजामुद्दीन औलिया की दिल्ली भी नहीं है। यह दिल्ली फकत एक शहर नहीं एक सर्वग्राही सत्ता का रूपक है। जिसकी ठसक दिल्ली से बाहर वालों के लिए एक कसक है। यह कविता विभिन्न कोणों से दिल्ली का एक्स-रे चित्र खींचती है। और यह बता देती है कि मुहावरे में भले ही हो, वास्तविकता में दिल्ली देश का दिल नहीं है-
दिल्ली को केंद्र मानकर कैसे भी नाप-जोखकर खींचा जाए कोई वृत्त उसमें समाएगा नहीं पूरा देश या तो वह छोटा पड़ जाएगा या दूसरे देशों की सीमाओं में चला जाएगा।
(कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ ... पृष्ठ 117 पेपर बैक संस्करण)
अपने देश-राग का रंग जमाने के लिए भगवत पुरखों की संगत भी बिठा लेते हैं। अब देखिए न, उन्होंने अपनी एक कविता का शीर्षक ही चचा गालिब की एक काव्य-पंक्ति को बना दिया- नींद क्यों रात भर नहीं आती। और गालिब के इस सवाल का जवाब ढूंढ़ते हुए भगवत रावत दुखिया दास कबीर के पास पहुंच जाते हैं।
नींद का न आना जागते रहना ही नहीं होता वह तो अकेला दुखिया दास कबीर था जो सारी-सारी रात जागता था और रोता था मैं तो सचमुच आजादी की नींद सोना चाहता था
आजादी की नींद और आजादी के स्वप्न की तलाश में भगवत रावत सिर्फ गालिब और कबीर ही नहीं, विजय तेंदुलकर, मेधा पाटकर, मुक्तिबोध तक को याद करते हैं। यही नहीं, सात समंदर पार के कवि टी एस इलियट तक के पास जाते हैं और उनकी कविता के एक पात्र जे. अल्फ्रेड प्रूफ्रॉक को उसके देश-काल से अपने देश-काल में खींच लाते हैं। 'जे. अल्फ्रेड प्रूफ्रॉक से एक बातचीत' शीर्षक कविता में भगवत रावत अत्यंत सहज तरीके से यह बता देते हैं कि इलियट ने पाश्चात्य सभ्यता की जिन पतनशील प्रवृत्तियों की ओर इशारा किया था, वे हमारी 'महान भारतीय संस्कृति' में किस कदर घुस आई हैं।

और अंत में ब्रेख्त
जैसा कि शुरू में ही करार हो चुका है कि इस लेख का समाहार ब्रेख्त की काव्य पंक्तियों के साथ होगा। तो सुधी पाठक गण! प्रस्तुत हैं वे पंक्तियां जिन्हें आप अनेक बार पढ़ चुके होंगे, पर इस बार पढऩे के लिए नहीं, लडऩे के लिए पढ़ें-
क्या अंधेरे वक्त में भी गीत गाए जाएंगे हां, अंधेरे के बारे में भी गीत गाए जाएंगे।
मेरे कबीर की तरह क्या आप को भी लग रहा है कि इस लेख की शुरुआत इन्हीं पंक्तियों के साथ होनी चाहिए थी?

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लखनऊ से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका लमही ने भगवत रावत पर एक महत्वपूर्ण अंक प्रकाशित किया हैप्रस्तुत टिप्पणी उसी अंक से
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देश एक राग है (कविता संग्रह), कवि : भगवत रावत, प्रकाशक : परिकल्पना प्रकाशन , डी-68, निराला नगर, लखनऊ-226020, मूल्य : 150 रुपए (सजिल्द), 80 रुपए (पेपर बैक)