Monday, June 8, 2009

हबीब साहब ने कहा था- मेरे पास वक्त बहुत कम है

फोटो सौजन्य : हिंदू

बढ़ते बाजार, चढ़ते सेंसेक्स से विकास को मत आंको

हबीब साहब ने दुनिया के इस रंगमंच से विदाई ले ली है. उन्हें याद करते हुए पेश है उनका एक पुराना साक्षात्कार, जो अभी
24 मई २००९ को अमर उजाला, सन्डे आनंद में प्रकाशित हुआ है।

हबीब तनवीर से अरुण आदित्य की बातचीत

जुलाई 2007 की वह एक बेहद सुहानी शाम थी। उस खुशगवार मौसम में भोपाल के श्यामला हिल्स इलाके में हबीब साहब के घर जाते हुए मुझे यूं ही कवि ओम भारती के एक कविता संग्रह का शीर्षक याद आ गया- ‘इस तरह गाती है जुलाई।’ गाती हुई जुलाई की उस शामहबीब साहब पूरी रौ में थे। बात करना शुरू किया तो रुकने का नाम नहीं। उनके पास अनुभव का अथाह भंडार है और हम भी सब कुछ जान लेने को उत्सुक थे। बात आजादी की हीरक जयंती के संदर्भ में थी, लेकिन जब सिलसिला चल निकला तो थिएटर, साहित्य, समाज सबका जिक्र होना लाजिमी था।
हमने पूछा, ‘आजकल क्या कर रहे हैं। बोले, ‘करना तो बहुत कुछ चाहता हूं, लेकिन वक्त मेरे पास बहुत कम है।’ ‘हबीब साहब आपने अभी तक जितना काम किया है, वही करने में हम जैसे लोगों को तो शायद कई जनम लग जाएंगे।’ हमने यह बात उन्हें तुष्ट करने के लिए नहीं कही थी, बल्कि यह एक सचाई थी। पर इस सचाई से वे खुश नहीं हुए थे। खुश हो भी कैसे सकते थे। दुनिया की बेहतरी के सपने जिसकी आंखोें में बस जाएं, उसे इन हालात में खुशी कैसे नसीब हो सकती है। हालांकि तब तक मंदी की दस्तक नहीं हुई थी और न दूर-दूर तक कहीं उसकी आहट सुनाई दे रही थी, लेकिन हबीब साहब की दूर दृष्टि जैसे उसे देख रही थी। आजादी के बाद आर्थिक विकास की चर्चा चली। उस समय देश की विकास दर 9 प्रतिशत होने से बाजार में जश्न का माहौल था। हमने कहा, ‘देश की विकास दर बढ़ी है तो इसका मतलब है कि देश में विकास तो हुआ है?’ हबीब साहब का जवाब आंखें खोलने वाला था, ‘अरबपतियों की बढ़ती तादाद से ही देश के विकास का लेखा-जोखा मत कर डालो। एक नजर जरा गरीबों पर भी डाल लो। असंतुलित विकास से समस्याएं और बढ़ेंगी। बढ़ते बाजार और चढ़ते सेंसेक्स से विकास को मत आंको। बाजार आपको वह खरीदने के लिए भी मजबूर कर देता है, जिसकी आपको जरूरत नहीं है। इसके जाल में फंसोगे तो मुश्किल होगी।’

बात से बात निकल रही थी और हबीब साहब हर मुद्‌दे पर बेबाक थे। हमने दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश की, ‘आपके नाटकों को लेकर पिछले दिनों काफी विवाद हुए थे।’ हबीब साहब बोले, ‘सवाल सिर्फ मेरे नाटकों का नहीं है। सवाल अभिव्यक्ति की आजादी का है। आप कोई फिल्म बनाते हैं, तो बवाल हो जाता है। पेंटिंग बनाएं तो बवाल। लेखक को भी लिखने से पहले दस बार सोचना पड़ता है कि इससे पता नहीं किसकी भावना आहत हो जाए और जान-आफत में। दुख की बात यह है कि सरकार इस सब पर या तो चुप है, या उन्मादियों के साथ खड़ी नजर आती है। ऐसे में संस्कृति का विकास कैसे हो सकता है।’

उन्होंने संस्कृति का मुद्‌दा उठाया तो हमें अगला सवाल मिल गया, ‘जब संस्कृति के क्षेत्र में हालात इतने विकट हैं तो ऐसे में देश के सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की भूमिका क्या होनी चाहिए?’ इस सवाल पर उनका दर्द आक्रोश बन कर आंखों में उतर आया, ‘आप किन प्रतिष्ठानों की बात कर रहे हैं। वहां ऐसे लोगों की ताजपोशी की जा रही है जिनमें न टैलेंट है न विजन, और न ही कुछ कर गुजरने की लगन। ऐसे बौने लोगों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं। इन बौने लोगों ने संस्कृति का कद भी घटा दिया है। पद-पुरस्कार के लिए आत्मसम्मान को गिरवी रख देते हैं।’

संस्कृतिकर्मियों के लाभ-लोभ की बात चली तो हबीब साहब को वह पुराना किस्सा याद आ गया, जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था। बोले, ‘1972 की बात है। मार्च महीने में सोवियत प्रकाशन विभाग से मेरी नौकरी छूट गई थी। उस समय मेरे पास कोई काम नहीं था। पैसे की तंगी चल रही थी। अगले महीने अचानक एक दिन एक पुलिस जवान मेरे घर आया। उसने एक नंबर दिया और कहा इस पर बात कर लीजिएगा, जरूरी है। फोन लगाया तो दूसरी तरफ आर के धवन थे। इंदिरा गांधी के निजी सचिव। सीधा सवाल किया- क्या मुझे राज्यसभा में मनोनयन स्वीकार है। मेरे लिए यह अप्रत्याशित था। मैंने कहा, ‘सोच-विचारकर बता दूंगा।’ धवन ने कहा कि सोचने-विचारने के लिए ज्यादा समय नहीं है। बीस-पच्चीस मिनट में बता दीजिए, क्योंकि शाम पांच बजे घोषणा करनी है। मैंने कहा, ‘मैं पलटकर आप को फोन करता हूं।’ घर आकर मोनिका से बात की, मोनिका को भी राज्यसभा की जिम्मेदारी के बारे में कुछ पता नहीं था। फिर एक दोस्त मेंहदी को फोन लगाया। वे छूटते ही बोले, ‘बेवकूफ मत बनो, तुरंत हां कर दो।’ तो उस जमाने में इस तरह चयन-मनोनयन होता था। आज तो बौने लोग खुद ही राजनेताओं के चक्कर लगाते रहते हैं कि कुछ मिल जाए।’

‘और राजनीति में भी तो कितने बौने लोग आ गए हैं?’ हबीब साहब बोले, ‘राजनीति में अब राजनेता बचे ही कितने हैं। वहां तो अपराधियों की भरमार हो गई है। धनबल-बाहुबल के दम पर चुनाव जीते जाते हैं। ऐसे नुमाइंदों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं।’
थिएटर के भविष्य की बात चली तो वे उदास हो गए। कहने लगे, ‘आज थिएटर पैसे और दर्शक दोनों के लिए मोहताज है। लोक नाट्‌य और लोक परंपराओं में भी लोगों की रुचि कम हो रही है। हमारे छत्तीसगढ़ में नाचा देखने के लिए लोग रात-रात भर जागते थे। अब किसे फुर्सत है।’

‘तो क्या आपको कोई उम्मीद नहीं है?’

‘नहीं, नहीं, मैं इतना नाउम्मीद नहीं हूं। मुझे नौजवानों से काफी उम्मीद है। वे करप्शन के खिलाफ हैं। उनमें तर्कशक्ति है, कुछ करने का जज्बा है। अपना भविष्य वे खुद गढ़ना चाहते हैं।’ यह सब कहते हुए हबीब साहब की बूढ़ी आंखों में चमक आ गई थी। उस चमक को देखकर मुझे उनके नाटक कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना का एक नाट्‌य-गीत याद आ गया-

खेत खार में जाऊं

मैं नदी पहाड़ में जाऊं

मैं आग बनूं, तूफान बनूं

और घूम-घूम लहराऊं।