
वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह को हाल में ही भारत भारती सम्मान देने की घोषणा हुई है। इस बहाने प्रस्तुत हैं केदार जी की तीन कवितायें और उनकी कविताओं पर मेरी एक संक्षिप्त टिपण्णी, जो हरियाणा साहित्य अकादेमी की पत्रिका हरिगंधा के नए अंक में प्रकाशित हुई है।
अंधेरे पाख का चाँद
जैसे जेल में लालटेन
चाँद उसी तरह
एक पेड़ की नंगी डाल से झूलता हुआ
और हम
यानी पृथ्वी के सारे के सारे क़ैदी खुश
कि चलो कुछ तो है
जिसमें हम देख सकते हैं
एक-दूसरे का चेहरा!
नए शहर में बरगद
जैसे मुझे जानता हो बरसों से
देखो, उस दढिय़ल बरगद को देखो
मुझे देखा तो कैसे लपका चला आ रहा है मेरी तरफ़
पर अफ़सोस
कि चाय के लिये मैं उसे घर नहीं ले जा सकता
हाथ
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए
मैंने सोचा
की दुनिया को हाथ की तरह
गर्म और सुंदर होना चाहिए।
-केदारनाथ सिंह
दिल्ली में दोआबे का कवि
अरुण आदित्य
केदारनाथ सिंह दिल्ली में रहते हैं, पर तीन दशक से यहां रहते हुए भी वे ग्रामीण संवेदना के कवि हैं। छल-बल की इस राजधानी में भी वे अपने आस-पास गंगा-सरयू के दोआबे का एक गांव बसा लेते हैं। यह गांव अपनी भौतिक उपस्थिति में नहीं, बल्कि केदार जी की चेतना में बसता है। इस गांव से संबंध बनाए रखने क लिए वे बार-बार स्मृतियों में जाते हैं। सहज ग्रामीण संवेदना उन्हें एक विशिष्ट काव्य-दृष्टि देती है। इस काव्य-दृष्टि का ही कमाल है कि बरामदे में रखी हुई कुदाल सिर्फ एक भौतिक वस्तु नहीं रह जाती, बल्कि एक चुनौती बन जाती है। कवि का विजन कुदाल की भौतिक उपस्थिति को श्रमजीवी वर्ग की उपेक्षा और विक्षोभ का प्रतीक बना देता है। सदी क इस अंधकार में जिसका कद धीरे-धीरे बढ़ रहा है और जिसे दरवाजे पर छोडऩा खतरनाक है, सडक पर रख देना असंभव और आभिजात्य घर में जिसके लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे में उस कुदाल का क्या किया जाए, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न बन जाता है। केदार जी की कविता में यह धार लोकजीवन से उनके जुड़ाव की वजह से आई है, जहां चीजों के साथ लोगों के संबंध बड़े रागात्मक होते हैं। मानसून की प्रथम बौछार के बाद जब पहली बार खेत में हल भेजा जाता है तो उसकी पूजा की जाती है। यही वे संस्कार हैं जो चकिया (बलिया) के गोबर से लीपे आंगन से दिल्ली के आधुनिक या उत्तर आधुनिक जीवन तक केदार जी का पीछा करते हैं। और केदार जी भी इनसे पीछा छुड़ाने के बजाय इन्हें आत्मसात करके बचाए रखने का हरसंभव प्रयास करते हैं। केदार जी वास्तव में लोकजीवन की संवेदना के कवि हैं, पर उनकी दृष्टि वैश्विक है। दरअसल लोक-राग ने ही उनके मन में काव्य के बीज बोए हैं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- 'गांव की स्त्रियां अल सुबह गाती हुई गंगा नहाने जाती थीं। मैं एक शिशु की तरह रजाई में लिपटा उन्हें सुनता था। उन्हीं आरंभिक आवाजों में कहीं मेरे भीतर काव्य के स्फुरण के पहले बीज थे।' सिर्फ स्फुरण की बात नहीं है, केदार जी की कविता पर नजर डालें तो 'अभी बिलकुल अभी' से लेकर 'उत्तर कबीर' तक उनकी रचना-यात्रा में लोकजीवन और उससे जुड़ी हुई स्मृतियां बार-बार उनकी कविता में आती हैं। तीस वर्षों से दिल्ली में रहते हुए भी वे अपने मूल स्थान से संबंध बनाए हुए हैं। हालांकि समय की जटिलता बढऩे के साथ इस संबंध में भी जटिलता आई है। शुरुआत में यह संबंध 'मेरो मन अनत कहां सुख पावे' की तर्ज पर था, लेकिन अब उनके मन में सवाल भी उठता है कि मेरो मन अनत क्यों नहीं सुख पावे? बाद की कविताओं में यह प्रश्नाकुलता काफी मुखर रूप में देखने को मिलती है। स्मृतियों में बार-बार लौटने वाले केदार जी अब खुद से ही सवाल भी करने लगे हैं-
एक बूढ़े पक्षी की तरह लौट-लौटकर
मैं क्यों यहां चला आता हूं बार-बार।
क्यों चला आता हूं बार-बार कहते हुए उन्हें अपने आने को लेकर कोई व्यर्थताबोध नहीं है, बल्कि उनकी चिंता के मूल में यह है कि अब आ तो गया हूं पर क्या करूं। ऐसे समय में उनकी एक चिंता यह भी होती है कि- मिलूं पर किस तरह मिलूं कि बस मैं ही मिलूं और दिल्ली न आए बीच में। दरअसल वे जन से एक ऐसा जुड़ाव चाहते हैं जिसमें छद्म का कोई आवरण न हो। कि जब वे लोगों से मिलें तो बीच में सिर्फ सत्य हो, निरावृत सत्य। सत्य का यह खुलापन अगर चुभता भी हो तो उन्हें यह चुभन स्वीकार्य है। 'पोस्टकार्ड' कविता में वे लिखते हैं-
यह खुला है इसलिए खतरनाक है
खतरनाक है, इसलिए सुंदर।
और ये जो 'सुंदर' है इसकी तलाश ही केदारनाथ सिंह की कविता का मूल स्वर है। अपने प्रारंभिक दिनों में इस सुंदर की प्राप्ति की आकांक्षा को बड़े सहज रुप में कह देते थे कि - दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए। लेकिन अब उनके पास इस 'चाहिए' के लिए लंबी फेहरिश्त है-जिसमें कोहरा भी हैऔर बकाइन के पत्ते और नीलगायों के खुर और आंखों की वह आवाज जो कानों को कभी सुनाई नहीं पड़ती और न जाने क्या-क्या...इस जटिल समय से जूझते हुए केदार जी की काव्य-दृष्टि यह भी देख लेती है कि इस 'चाहिए' की राह इतनी आसान नहीं है। इसकी राह में अमेरिका जैसे पहाड़ हैं और धर्मांधता जैसे गड्ढे भी। यथार्थ से यह मुठभेड़ केदार जी की कविता को नई धार देती है। वास्तव में केदार जी की कविता की धार तलवार की धार की तरह नहीं बल्कि पानी की धार जैसी है जो अपनी तरलता के बावजूद तीव्र होने पर लोहे की मोटी-मोटी चद्दरों को भी काट देती है। कठोर से कठोर वास्तविकता को अभिव्यक्त करते हुए वे अपनी भाषा की तरलता को बचाए रखते हैं। राजनीतिक शब्दावली से बचते हुए किस तरह राजनीतिक कविता लिखी जा सकती है, इसका सटीक उदाहरण केदार जी की 'शिलान्यास' और 'संतरा' शीर्षक कविताएं हैं। 'शिलान्यास' कविता में वे सोवियत संघ के ध्वस्त होने और इस विध्वंस के बावजूद माक्र्सवाद के प्रति उम्मीद को खूबसूरत बिंब के जरिए व्यक्त करते हैं जिसमें ध्वस्त पुल के पांयों पर रोशनी पडऩे से वे एसे चमक रहे हैं जैसे नए पुल का शिलान्यास किया गया हो। इसी तरह अर्नेस्तो कार्दिनाल के लिए लिखी 'संतरा' शीर्षक कविता में वे साम्राज्यवाद शब्द का उल्लेख किए बिना अमेरिका की साम्राज्यवादी नीति की बखिया एक संतरे के माध्यम से जिस खूबी के साथ उधेड़ते हैं, वैसा हर कवि के लिए संभव नहीं है। इस संदर्भ में उनकी 'कुएं' शीर्षक कविता भी उल्लेखनीय है-
कुओं को ढक लिया है घास ने
क्यों कुओं ने क्या बिगाड़ा घास का
बिगाड़ा तो कुछ नहीं
बस घास का फैसला कि अब कुएं नहीं रहेंगे।
असहिष्णुता और फासिज्म के खिलाफ इससे बेहतर टिप्पणी और क्या हो सकती है। व्यवस्था परिवर्तन की बात तो सब करते हैं, पर केदार जी की दृष्टि इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकती कि दुनिया बदलने का दम भरने वाले लोग अपने पड़ोस के किसी अन्याय को कैसे चुपचाप सह जाते हैं। केदारनाथ सिंह दुनिया को बदलने का दम नहीं भरते। वे तो सिर्फ एक छोटी सी कोशिश करना चाहते हैं-
दुनिया बदलने से पहले
मुझे बदल डालनी चाहिए अपनी चादर
जो मैली हो गई है।
वाकई सब अपने-अपने मन की मैली चादर बदल दें, तो दुनिया कितनी उजली हो जाएगी। साहित्य अकादमी पुरस्कार और दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित केदार जी को हाल में ही भारत-भारती पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। उन्हें बहुत सारी बधाइयां।