Monday, August 3, 2009

कारगिल : तीन कवितायें, तीन किस्से



1999 की बरसात के दिन थे।
युद्ध के काले बादल बरसकर छंट चुके थे। मगर चुनावी युद्ध के बादल जनता की उम्मीदों पर बरस पडऩे को बेताब थे। चुनाव की रिपोर्टिंग के सिलसिले में उस दिन मैं खरगोन जिले में था। शाम को कहानीकार भालचंद्र जोशी के घर पर जुटान हुआ। संयोग से वसुधा के सहयोगी संपादक और कवि राजेंद्र शर्मा भी उस दिन खरगोन में ही थे। कुछ और मित्र जुट गए और भालचंद्र के घर पर ही इन कविताओं का पहला पाठ हुआ।
ये कविताएं इंदौर से खरगोन जाते हुए रास्ते में लिखी गई थीं। उसी राइटिंग पैड पर, जिस पर मैं रास्ते भर निमाड़ क्षेत्र के चुनावी गुणा भाग दर्ज करता आ रहा था। उन दिनों मेरे पास दैनिक भास्कर इंदौर में फीचर प्रभाग की जिम्मेदारी थी। और चुनाव डेस्क का अतिरिक्त प्रभार भी था। सो व्यस्तता के उन दिनों में कारगिल युद्ध को लेकर फैले उन्माद के बीच हर तीसरे दिन कोई न कोई तुक्कड़ कवि कोई तुकबंदी लेकर हाजिर हो जाता, मसलन 'लाहौर में गाड़ देंगे तिरंगा और शरीफ को टांग देंगे करके नंगा।' कोई अगर कह देता कि भइया यह कविता नहीं तो वहीं पर एक और कारगिल युद्ध करने को उतारू हो जाते। एक-दो लोगों ने तो सीधे-सीधे चुनौती दे डाली कि तुम्हीं कोई कविता लिखकर बता दो कि युद्ध पर ऐसे नहीं तो कैसे लिखना चाहिए। तो इन तीनों कविताओं का लिखा जाना एक तरह से उस सब को एक रचनात्मक जवाब था।
खरगोन में भालचंद जी के घर ये कविताएं सुनने के बाद राजेंद्र शर्मा ने कहा, पैड से ये पन्ने निकालकर मुझे दे दो। वसुधा का अंक कल-परसों में प्रेस में जाने वाला है, उसमें विशेष उल्लेख के साथ देना चाहता हूं। इसी अंक में इनका जाना बेहद जरूरी है। मैंने कहा कि यह फस्र्ट ड्राफ्ट है और अभी इस पर कुछ काम होना बाकी है। परसों मैं इंदौर पहुंचकर कोरियर कर दूंगा। लेकिन परसों कहां कभी आता है। इंदौर पहुंचकर मैं अपने काम-काज में लग गया और ध्यान ही नहीं रहा कि कविताओं को फेयर करके भेजना भी है। फिर चौथे-पांचवें दिन राजेंद्र जी का फोन आया, तुमने अभी तक कविताएं भेजी नहीं, मैंने अंक रोक रखा है।' सो उसी दिन इन्हें फेयर करके रवाना किया गया। अगले हफ्ते वसुधा का वह अंक हमारे हाथ में था। अंक की शुरुआत में ही कारगिल प्रसंग के तहत विशेष उल्लेख के साथ ये कविताएं और कैरन हेडाक के स्केच छपे थे।
दूसरा किस्सा
रात 11 बजे होंगे। अचानक फोन की घंटी बजती है। मैंने उठाकर जैसे ही कहा- हलो, उस तरफ से आवाज आई-
'गोली मेरी और चीख मेरे भाई की
फिर बधाइयां क्यों बटोर रहे हैं बांके बिहारी मास्साब?
ये किस कवि की पंक्तियां हैं?' उस तरफ चंद्रकांत देवताले जी थे।
मैंने निहायत संकोच के साथ कहा कहा, 'हैं तो मेरी ही, पर कुछ गड़बड़ तो नहीं है?'
देवताले जी बोले, 'वसुधा का अंक आ गया है। तुम्हें बहुत-बहुत बधाई, तीनों कविताएं बहुत अच्छी हैं। इतनी सादगी से ऐसी गहरी बात कहने वाले बहुत कम हैं। आज ऐसी कविताओं की बहुत जरूरत है।'
'ऐसी कविताओं की बहुत जरूरत है,' यह सुनकर मुझे लगा जैसे कोई मेडल मिल गया हो, युद्ध लड़े बिना ही।

तो आप भी वसुधा-45-46 से साभार इन कविताओं को पढ़ें। और हां, तीसरा किस्सा इन कविताओं को पढ़ लेने के बाद।




अलक्षित

अभी-अभी जिस दुश्मन को निशाना बनाकर
एक गोली चलाई है मैंने
गोली चलने और उसकी चीख के बीच
कुछ पल के लिए मुझे उसका चेहरा
बिलकुल अपने छोटे भाई महेश जैसा लगा
जिस पर सन् 1973 में
जब मैं आठवीं का छात्र था और वह छठीं का
इसी तरह गोली चलाई थी मैंने
स्कूल में खेले जा रहे बंग-मुक्ति नाटक में
मैं भारतीय सैनिक बना था और वह पाकिस्तानी

बंदूक नकली थी पर भाई की चीख इतनी असली
कि भीतर तक कांप गया था मैं
लेकिन तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच
जिस तरह नजर अंदाज कर दी जाती हैं बहुत सी चीजें
अलक्षित रह गया था मेरा कांप जाना

सब दे रहे थे बांके बिहारी मास्साब को बधाई
जो इस नाटक के निर्देशक थे
और जिन्होंने कुछ तुकबंदियां लिखी थीं जिन्हें कविता मान
मुहावरे की भाषा में लोग उन्हें कवि हृदय कहते थे

नाटक खत्म होने के बाद
गदगद भाव से बधाइयां ले रहे थे बांके बिहारी मास्साब
और तेरह साल का बच्चा मैं, सोच रहा था
कि गोली मेरी और चीख मेरे भाई की
फिर बधाइयां क्यों ले रहे हैं बांके बिहारी मास्साब

अभी-अभी जब असली गोली चलाई है मैंने
तो मरने वाले के चेहरे में अपने भाई की सूरत देख
एक पल के लिए फिर कांप गया हूं मैं
पर मुझे पता है कि इस बार भी अलक्षित ही रह जाएगा
मेरा यह कांप जाना

दर्शक दीर्घा में बैठे लोग मेरे इस शौर्य प्रदर्शन पर
तालियां बजा रहे होंगे
और बधाइयां बटोर रहे होंगे कोई और बांके बिहारी मास्साब।


दुश्मन के चेहरे में

वह आदमी जो उस तरफ बंकर में से जरा सी मुंडी निकाल
बाइनोकुलर में आंखें गड़ा देख रहा है मेरी ओर
उसकी मूंछे बिलकुल मेरे पिता जी की मूंछों जैसी हैं
खूब घनी काली और झबरीली
किंतु पिता जी की मूंछें तो अब काली नहीं
सन जैसे सफेद हो गए हैं उनके बाल
और पोपले हो गए हैं गाल दांतों के टूटने से
पर जब पिता जी सामने नहीं होते
और मैं उनके बारे में सोचता हूं
तो काली घनी मूंछों के साथ
उनका अठारह बीस साल पुराना चेहरा ही नजर आता है
जब मैं उनकी छाती पर बैठकर
उनकी मूंछों से खेलता था
खेलता कम था, मूंछों को नोचता और उखाड़ता ज्यादा था
जिसे देख मां हंसती थी
और हंसते हुए कहती थी-
बहुत चल चुका तुम्हारी मूंछों का रौब-दाब
अब इन्हें उखाड़ फेंकेगा मेरा बेटा
बरसों से नहीं सुनी मां की वो हंसी
पिता की मिल में हुई जिस दिन तालाबंदी
उसी दिन से मां के होठों पर भी लग गए ताले
जिनकी चाबी खोजता हुआ मैं
जैसे ही हुआ दसवीं पास
एक दिन बिना किसी को कुछ बताए भर्ती हो गया सेना में

पहली तनख्वाह से लेकर आज तक
हर माह भेजता रहा हूं पैसा
पर घर नहीं हो सका पहले जैसा

मेरे पालन-पोषण और पढ़ाई लिखाई के लिए
जो-जो चीजें बिकी या रेहन रखी गई थीं
एक-एक करके वे फिर आ गई हैं घर में
नहीं लौटी तो सिर्फ मां की हंसी
और पिता जी के चेहरे का रौब
छोटे भाई के ओवरसियर बनने और
मेरे विवाह जैसे शुभ प्रसंग भी
नहीं लौटा सके ये दोनों चीजें
मैं जिन्हें घर से आए पत्रों में ढूंढ़ता हूं हर बारा

आज ही मिले पत्र में लिखा है पिता जी ने-
तीन साल बाद छोटा घर आया है दस दिन के लिए
तुम भी आ जाते तो मुलाकात हो जाती
बहू भी बहुत याद करती है
और अपनी मां को तो तुम जानते ही हो
इस समय भी जब मैं लिख रहा हूं यह पत्र
उसकी आंखों से हो रही है बरसात

बाइनोकुलर से आंख हटा
जेब से पत्र निकालता हूं
इस पर लिखी है बीस दिन पहले की तारीख
यानी पत्र में जो इस समय है
वह तो बीत चुका है बीस दिन पहले
फिर ठीक इस समय क्या कर रही होगी मां
सोचता हूं तो दिखने लगता है एक धुंधला-सा दृश्य
मां बबलू को खिला रही है
और उसकी हरकतों में मेरे बचपन की छवियों को तलाशती हुई
अपनी आंखों की कोरों में उमड़ आई बूंदों को
टपकने के पहले ही सहेज रही है अपने आंचल में

पिता जी संध्या कर रहे हैं
और मेरी चिंता में बार-बार उचट रहा है उनका मन
पत्नी के बारे में सोचता हूं
तो सिर्फ दो डबडबाई आंखें नजर आती हैं
बार-बार सोचता हूं कि याद आए उसकी कोई रूमानी छवि
और हर बार नजर आती हैं दो डबडबाई आंखें

बहुत हो गई भावुकता
बुदबुदाते हुए पत्र को रखता हूं जेब में
और बाइनोकुलर में आंखें गड़ाकर
देखता हूं दुश्मन के बंकर की ओर

बंकर से झांक रहे चेहरे की मूंछें
बिलकुल पिताजी की मूंछों जैसी लग रही हैं
क्या उसे भी मेरे चेहरे में
दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान?


स्वगत

खून जमा देने वाली इस बर्फानी घाटी में
किसके लिए लड़ रहा हूं मैं
पत्र में पूछा है तुमने
यह जो बहुत आसान सा लगने वाला सवाल
दुश्मन की गोलियों का जवाब देने से भी
ज्यादा कठिन है इसका जवाब

अगर किसी और ने पूछा होता यही प्रश्न
तो, सिर्फ अपने देश के लिए लड़ रहा हूं
गर्व से कहता सीना तान
पर तुम जो मेरे बारीक से बारीक झूठ को भी जाती हो ताड़
तुम्हारे सामने कैसे ले सकता हूं इस अर्धसत्य की आड़
देश के लिए लड़ रहा हूं यह हकीकत है लेकिन
कैसे कह दूं कि उनके लिए नहीं लड़ रहा मैं
जो मेरी जीत-हार की विसात पर खेल रहे सियासत की शतरंज
और कह भी दूं तो क्या फर्क पड़ेगा
जब कि जानता हूं इनमें से कोई न कोई
उठा ही लेगा मेरी जीत-हार या शहादत का लाभ

मेरा जवाब तो छोड़ो
तुम्हारे सवाल से ही मच सकता है बवाल
सरकार सुन ले तो कहे-
सेना का मनोबल गिराने वाला है यह प्रश्न
विपक्ष के हाथ पड़ जाए
तो वह इसे बटकर बनाए मजबूत रस्सी
और बांध दे सरकार के हाथ-पांव
इसी रस्सी से तुम्हारे लिए
फांसी का फंदा भी बना सकता है कोई

इसलिए तुम्हारे इस सवाल को
दिल की सात तहों के नीचे छिपाता हूं
और इसका जवाब देने से कतराता हूं।
- अरुण आदित्य

.................

तीसरा किस्सा
राजेंद्र नगर (इंदौर) का आपले वाचनालय। 14 सितंबर या उसके आस-पास की कोई तारीख। हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में कवि सम्मेलन था। मित्र प्रदीप मिश्र संचालन कर रहे थे। कारगिल युद्ध के बाद का ताजा-ताजा उल्लास-उन्माद था। वीर रस की कविताओं की बाढ़ थी। एक कवि ने मुशर्रफ की छाती पर तिरंगा फहराने जैसी कोई कविता इतने जोश से पढ़ी कि काफी देर तक तालियां गूंजती रहीं। वह एक दुबला पतला सा युवक था। प्रदीप ने उसके बाद मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया। मैं यही कविताएं ले गया था पढऩे के लिए, लेकिन माहौल देखकर मेरा विश्वास डगमगा गया। लगा कि उल्लास-उन्माद के इस माहौल में इन कविताओं को कौन सुनेगा? मन में विचार आया कि कुछ प्रेम कविता वगैरह पढ़ देना चाहिए। प्रेम तो सदाबहार है। लेकिन जब डायस पर पहुंचा तो मन बदल गया। मैंने खुद से पूछा, क्या मुझे अपनी कविता पर भरोसा नहीं है? अगर आज इस उन्मादी माहौल में मैं इन्हें नहीं पढ़ सकता हूं, तो वह शुभ घड़ी कब आएगी जब इनका पाठ किया जाएगा। सो मैंने सोच लिया कि यही कविताएं पढ़ूंगा, चाहे लोग वाह-वाह कहें या हाय-हाय। मैंने थोड़ी सी भूमिका बांधी। उपस्थित श्रोताओं से सीधे सवाल किया, 'क्या हमें वीर रस की कविता लिखने का हक है? हम अपने जीवन में कितनी वीरता दिखा पाते हैं?' आज मुझे लगता है कि उस दिन मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था, लेकिन मैंने उस वीर रस के कवि की ओर इंगित करके कहा- 'अभी-अभी जो सज्जन मुशर्रफ की छाती पर तिरंगा फहराने की बात कर रहे थे, यही जब इस हाल के बाहर निकलेंगे तो गली का एक मरियल सा गुंडा भी अगर चाकू दिखा देगा तो अपने कपड़े तक उतार कर दे देंगे। चंद बरदाई जब पृथ्वीराज रासो लिखता था तो वह खुद युद्धक्षेत्र में मोर्चा भी लेता था। सच तो यह है कि मित्रो, युद्ध का मतलब हम समझ ही नहीं सकते हैं। इसका मतलब उस मां के दिल की धड़कन ही बता सकती है, जिसका बेटा युद्ध क्षेत्र में लड़ रहा होता है। युद्ध का मतलब वह पत्नी बता सकती है जो एक-एक पल गिनकर मोर्चे से पति के लौटने का इंतजार कर रही है। उस बाप से पूछो जिसके हंसते मुस्कराते बेटे की जगह उसका ताबूत अभी-अभी अभी आया है। मित्रो, मैं जो पढऩे जा रहा हूं वह कविता नहीं एक सैनिक के मन के तीन पन्ने हैं। अगर इन पन्नों को पढ़कर आपके मन में जरा भी उथल-पुथल मचे तो मैं अपनी मेहनत सफल समझूंगा।'
इसके बाद लोगों ने जिस धैर्य से इन कविताओं को सुना और बाद में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं, उससे कविता पर मेरा विश्वास और दृढ़ हो गया।
मित्रो, मैं जानता हूं ये बहुत साधारण कविताएं हैं और उससे भी साधारण ये किस्से हैं। पर इन में कुछ ऐसा है जो कविता पर मेरे विश्वास को दृढ़ करता है। आपका क्या कहना है...