देवताओं को जल चढ़ाने के काम आते रहे कुछ
पर आजकल बदल गई हैं इनकी भूमिकाएं
परेशान और दुखी हैं वे, जो किसी की प्यास बुझाना चाहते हैं
राष्ट्रीय लुढ़कन के इस दौर में
नागर जी की ये कविता जब पहली बार पढ़ी तो सचमुच गागर में सागर भरने वाला मुहावरा याद आ गया था। और जब रवीन्द्र की ये पेंटिंग देखी तो फ़िर नागर जी की ये कविता याद आई।रविवार शाम कुछ पुराने मित्रों के साथ नागर जी से आत्मीय मुलाकात हुई। मैंने पूछा कि आपकी कविता अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ। बोले , बेहिचक डाल दो। रवीन्द्र पहले ही कह चुके हैं कि उनकी पेंटिंग्स का उपयोग करने की पूरी छूट है। तो लीजिये पेश है यह जबरदस्त जुगलबंदी।
जहाँ हरा होगा
जहाँ हरा होगा
वहां पीला भी होगा
गुलाबी भी होगा
वहां गंध भी होगी
उसे दूर-दूर ले जाती हवा भी होगी
और आदमी भी वहां से दूर नहीं होगा।
- विष्णु नागर
( करीब दो माह बाद ब्लॉग पर वापस लौटा हूँ। उपन्यास 'उत्तर -वनवास ' का काम लगभग पूरा हो गया है। अब थोड़ी राहत मिली है। एक छोटा -सा अंश यहाँ दे रहा हूँ। इस पर आप लोगों के विचार मेरे लिए मार्गदर्शक होंगे। कभी लघुकथा तक न लिखनेवाले ने सीधे उपन्यास में हाथ डाल दिया है। पता नहीं कुछ बात बन भी रही, या या वैसे ही कागज काले किए जा रहा हूँ। )
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घनी बबुराही और बंसवारी के बीच वह एक झोपड़ी थी।
नहीं, एक नहीं तीन झोपडिय़ां थीं, एक दूसरे से लगी हुई। जैसे एक मकान में कई कमरे होते हैं। यानी यह तीन झोपडिय़ों का मकान था। लेकिन मकान की प्रचलित अवधारणा के मुताबिक इसे मकान नहीं कहा जा सकता था। मकान के होने के लिए दीवारों और छत का होना जरूरी है। पर यहां तो छत के नाम पर तीन छप्पर थे, जो बबूल की थूनों और बांस की बड़ेर पर टिके हुए थे। दीवार की जगह एक झोपड़ी में फूस की टाटियां लगी हुई थीं, बाकी दो में वह भी नहीं थीं। बहरहाल आप इसे मकान मानें या न मानें, लेकिन सन् 1952 के लोकसभा चुनावों की मतदाता सूची में यह मकान नंबर 151 के रूप में दर्ज था, जिसमें दो मतदाता रहते थे। चूंकि गांव में कुल 151 मकान थे, इसलिए इसे गांव का अंतिम मकान और इसमें रहने वाले आदमी को गांव का अंतिम आदमी (या अंतिम मकान में रहने वाला आदमी) कहा जा सकता था। सूची में मकान नंबर एक की जगह दिनेश सिंह की हवेली तनी थी। दिनेश सिंह गांव के पूर्व जमींदार और वर्तमान सरपंच थे।
अंतिम आदमी या अंतिम मकान में रहने वाले आदमी का यह मकान नंबर 151 बबूल और बांस के झुरमुटों से घिरा होने के कारण किसी सुंदर भूदृश्य-सा लगता था।
बांस की कोठों में कई जहरीले सांप रहते थे, और बबूल के कांटे अक्सर इस घर में रहने वालों को चुभते थे; लेकिन यह बांस और बबूल ही थे, जो इस भूदृश्य में हरा रंग भरते थे। एक कलाकार इधर से गुजरते हुए इस मनोरम दृश्य को देखकर ठिठक गया था। उसने बबुराही और बंसवारी के बीच बसी इन झोपडिय़ों के कई स्केच बनाए थे। बाद में इन्हीं स्केचों में से एक को डेवलप करके उसने एक सुंदर भूदृश्य बनाया था, जिसे एक विदेशी कंपनी ने एक हजार डॉलर में खरीदा था।
मकान नंबर 151 में रहने वालों को तो पता भी नहीं होगा कि वे एक बहुमूल्य कलाकृति में रहते हैं। पता भी होता तो उनकी जीवनचर्या में क्या कोई फर्क पड़ जाता? क्या वे कलाकार से अपनी गरीबी की रॉयल्टी मांगते? ये सवाल काल्पनिक हैं, इनके जवाब भी काल्पनिक ही होंगे, लेकिन यह सच था कि वे एक हजार डॉलर की कीमत वाली कलाकृति की वास्तविकता के भीतर रह रहे थे और उन्हें इस बात का पता नहीं था। पता था तो सिर्फ इतना कि वे सांपों और कांटों के बीच एक कठिन जीवन जी रहे थे। लेकिन अपने जीवन-संघर्ष को लेकर वे चिंतित नहीं थे। उनकी एकमात्र चिंता अपने बेटे रामचंद्र के भविष्य को लेकर थी।
हालांकि उनके नाम दशरथ और कौशल्या नहीं, मायाराम और मंगला थे, लेकिन उन्होंने राम नवमी के दिन जनमे इस बेटे का नाम रामचंद्र रखा था। रामचंद्र के जन्म के समय पुरोहित जी ने कहा था— मायाराम! तुम्हारी तो किस्मत चमक उठी। यह तो कस्तूरी है, कस्तूरी। देखना, इसकी सुगंध बहुत दूर तक जाएगी। वाकई इस कस्तूरी के आते ही दो लोगों का यह परिवार हिरन की तरह चौकड़ी भरने लगा था। मायाराम और मंगला को लगता जैसे उनका अपना बचपन लौट आया हो। जिस समय वे बच्चों की भूमिका में होते, गरीबी नेपथ्य में चली जाती। इस पवित्र खेल को बिगाडऩे की हिम्मत शायद उसमें नहीं थी। या फिर वह थोड़ी ढील देकर देखना चाहती होगी कि देखो कितना उड़ पाते हैं। रामचंद्र जैसे-जैसे बड़े हो रहे थे, वैसे-वैसे कस्तूरी की सुगंध भी तीव्र हो रही थी। हिरन को नहीं पता होता है कि कस्तूरी उसकी नाभि में है, इसलिए वह उसकी सुगंध की खोज में पागल बना भटकता रहता है। यदि उसे पता चल जाए कि कस्तूरी उसकी नाभि में है और उसकी सुगंध ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन है तो संभव है कि इस सुगंध के बारे में उसके विचार बदल जाएं। शायद न भी बदलें, क्योंकि हिरन आखिर हिरन है, कोई मनुष्य नहीं। शायद उसे फख्र हो कि उसके पास एक ऐसी कीमती चीज है, जिसके लिए कोई उसकी जान भी ले सकता है। लेकिन गांव के अंतिम मकान में रहने वाला यह परिवार हिरन नहीं था, बल्कि कस्तूरी मिलने के आह्लाद में हिरन हो गया था। शुरू-शुरू में कस्तूरी की महक परिवार वालों को अच्छी लगी थी। लेकिन वे दुनियादार लोग थे, उन्हें बहुत जल्दी समझ में आ गया कि हिरन की सबसे बड़ी दुश्मन कस्तूरी ही होती है। लिहाजा जैसे-जैसे कस्तूरी की सुगंध तीव्र हो रही थी, वैसे-वैसे उनका डर बढ़ रहा था ।
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इस तरह बबूल के कांटों, बांस-कोठ के सांपों और मां-बाप के डर के बीच रामचंद्र बड़े हो रहे थे। उनका बड़ा होना कुछ लोगों को छोटा बना रहा था। रामचंद्र की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी। पर, इच्छा से क्या होता है? भगवान राम भी कहां चाहते थे कि सीता स्वयंवर का वर्णन करते हुए तुलसीदास को लिखना पड़े कि - प्रभुंहि देखि नृप सब हिय हारे, जनु राकेश उदय भएं तारे।
यदि राम चंद्र मकान नंबर एक में पैदा हुए होते तो उनके बड़े होने से दूसरों का छोटा होते जाना मां-बाप के लिए गर्व का विषय होता। लेकिन उनके मकान का नंबर 151 था, लिहाजा यह गर्व का नहीं चिंता का विषय था। पर हमेशा से ही ऐसा ऐसा नहीं था। शुरू-शुरू में एक बार उन्हें भी गर्व हुआ था। राम चंद्र उस समय नौ साल के थे। चौथी कक्षा का रिजल्ट लेकर आए थे। रिजल्ट क्या था, सपनों का एक घोड़ा था! आते ही घोड़े की रास पिता को थमा दी थी- ''पूरी कक्षा में अव्वल आया हूं। छोटे कुंवर को दूसरा स्थान मिला है।'' राम चंद्र का वाक्य पूरा होते-होते पिता सपनों के इस घोड़े पर सवार होकर अपनी झोपड़ी बनाम एक हजार डॉलर की कलाकृति से बाहर निकल गए थे। बाहर जाते हुए चूंकि वे घोड़े पर सवार थे, इसलिए न तो कोई कांटा चुभा था और न ही कोई सांप दिखा था। जिंदगी भर कांटों और सांपों के बीच पैदल घिसटने वाले पिता को इस घोड़े पर बड़ा आनंद आ रहा था। थोड़ी दूर जाकर उन्होंने पलट कर देखा। मकान नंबर 151 के आस-पास का दृश्य वाकई एक सुंदर कलाकृति-सा लगा। यह कलाकृति उस पेंटर द्वारा बनाए गए भूदृश्य जैसी ही थी। बस एक छोटा सा अंतर था — तीन झोपडिय़ों की जगह तीस कमरों की हवेली नजर आ रही थी । हवेली का नक्शा बिल्कुल मकान नंबर एक की तरह था।
मकान नंबर एक मायाराम की कल्पना का घर था। उनके पिता ने बताया था कि चार पुश्त पहले यह हवेली उन्हीं के पूर्वजों की थी। यह हवेली मायाराम के पुरखों के हाथ से निकल कर दिनेश सिंह के पुरखों के पास कैसे पहुंच गई, इसकी एक लंबी गाथा है, जिसे अगर अभी यहां लिखना शुरू किया तो 'ढाई घर' जैसा एक उपन्यास तो इसी प्रसंग में पूरा हो जाएगा और रामचंद्र की कथा अलग ही पड़ी रह जाएगी। मायाराम के पिता ने जो बताया था, उसका सार यह था कि उनके पुरखे बहुत सीधे थे और उनकी सीधाई का फायदा उठाकर दिनेश सिंह के पुरखों ने हवेली पर कब्जा कर लिया था। उधर दिनेश सिंह की तरफ से बताया जाने वाला इतिहास कुछ और कहता था। इतिहास हमेशा विजेता का पक्ष लेता है, सो राम चंद्र के परिवार को छोडक़र सारा गांव दिनेश सिंह के द्वारा बताए जाने वाले इतिहास को सही मानता था। पर गांव में एक दो ऐसे लोग भी थे जो दोनों के इतिहास से अलग एक नया ही इतिहास बताते थे। मतलब यह कि इतिहास पर काफी धूल थी... और इतिहासकारों के पास पहले ही इतने विवादास्पद मुद्दे पेंडिंग हैं कि उन्हें एक और विवाद में उलझाने के बजाय आइए फिलहाल की चिंता करें।
######फिलहाल तो मायाराम तीन झोपडिय़ों की हैसियत से बाहर स्वप्न-अश्व पर सवार हैं। और इस समय उन्हें तीन झोपडिय़ों की जगह तीस कमरों की हवेली नजर आ रही है। वे इस घोड़े से उतरना नहीं चाहते हैं। इस पर सवार कोई भी व्यक्ति उतरना नहीं चाहता है। पर कोई ज्यादा समय तक इसकी पीठ पर टिक भी नहीं सकता है। अधिकांश लोग औंधे मुंह गिरकर ही इसकी पीठ खाली करते हैं। चंद लम्हों की सवारी के बाद मायाराम के साथ भी यही हुआ । घोड़े से गिरने पर उन्होंने देखा कि उनके सपने लहूलुहान हैं। सपने ही नहीं, उन्हें अपना यथार्थ भी लहूलुहान दिखा : राम चंद्र के सिर से बुरी तरह खून बह रहा था। बेटे के सिर से खून बहता देखकर मायाराम का अपना खून खौल उठा। गुस्से में उन्होंने तलवार निकालने के लिए कमर की तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन वहां न तो तलवार थी और न म्यान। अलबत्ता एक चुनौटी जरूर वहां खुंसी हुई थी। तलवार की जगह चुनौटी हाथ में आने पर उन्हें होश आया कि वे घोड़े पर चढ़े जमींदार नहीं, अपनी झोपड़ी के बाहर खड़े मायाराम हैं। होश में आते ही जोश ठंडा हो गया। रौद्र रस को पीछे धकेल कर करुण रस आगे आ गया। आदि कवि की कविता की पहली पंक्ति सरीखा आर्त-वाक्य उनके मुंह से निकला — ''किस कसाई ने किया मेरे लाल का ये हाल? ''
जवाब में चुप्पी।
मतलब, कविता को समझने वाला वहां कोई नहीं था। इसलिए वे सीधे अकविता पर आ गए — ''किस मादरचोद ने....'' मायाराम वाक्य पूरा कर पाते इसके पहले ही किसी ने उनका मुंह दाब दिया।
'' जबान को लगाम दो मायाराम! बात आगे चली गई तो अनर्थ हो जाएगा।'' किसी और ने कहा।
''छोटे कुंवर को गाली देने का अंजाम जानते हो ? '' किसी तीसरे ने चेताया।
छोटे कुंवर का नाम सुनकर मायाराम सन्न रह गए — यह मैंने क्या कर दिया। ये तो पिट-पिटाकर आया ही है, अब मुझे भी हल्दी मट्ठा पिलवायेगा । मां की गाली बकने से पहले मैंने कुछ सोचा क्यों नहीं? पर मैं भी क्या करता, इसका खून देखकर मेरा दिमाग खराब हो गया था। सारी गलती तो इस पिल्ले की है। न ये छोटे कुंवर से पिट कर आता न मेरे मुंह से गाली निकलती। किसी दिन ये मुझे मरवाकर ही रहेगा। अपनी गलती के अंजाम से वे डर गए। पर वे ठाकुर थे। अपने को डरा हुआ कैसे दिखाते। सो डर को मन के एक कोने में दफन कर दिया और वहां से एक सवाल निकाल लाए- '' मेरे राम ने उनका बिगाड़ा क्या था? '' माया राम ने इस सवाल को दोहराया-तिहराया, लेकिन वहां जवाब देने वाला कोई नहीं था। भीड़ तो कब की छंट चुकी थी।
विचार मर चुका है। विचार मर नहीं सकता है। विचार जिंदाबाद। विचार अमर रहे। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में जब विचार(धारा) का अंत होने और न होने को लेकर इस तरह का विमर्श जोरों पर था, उसी दौरान इस कविता का जन्म हुआ था। उन दिनों विचार के साथ ही कविता के अंत की भी उद्घोषणाएं की जा रही थीं। यह दीगर बात है कि नई शताब्दी में भी न विचार मरा है न कविता, पर यह जरूर है कि दोनों के जिंदा रहने की शर्तें लगातार विकट होती गई हैं। यह कविता दस साल पूर्व मध्य प्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका साक्षात्कार के जनवरी 1998 के अंक में छपी थी।
और एक छोटी सी सूचना : इसी कविता के साथ कुछ समय के लिए ब्लागिंग से अवकाश ले रहा हूं। सात साल से एक उपन्यास अटका पड़ा है। प्रकाशक का दबाव है कि अगले दो तीन महीने में स्क्रिप्ट दे दूं। मित्रों का भी यही कहना है कि इसे ठिकाने लगाओ, तभी कुछ नया लिख पाओगे। तो दोस्तो, उपन्यास को ठिकाने लगाकर जैसे ही कुछ नया लिखा, हाजिर हो जाऊंगा। तब तक के लिए यह आग आपके पास छोड़कर जा रहा हूं।
इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं लोग
कुछ दिनों पहले मिला मुझे एक विचार
आग का एक सुर्ख गोला
सुबह के सूरज की तरह दहकता हुआ बिलकुल लाल
और तब से इसे दिल में छुपाए घूम रहा हूं
चोरों, बटमारों, झूठे यारों और दुनियादारों से बचाता हुआ
सोचता हूं कि सबके सब इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं
उस दोस्त का क्या करूं
जो इसे गुलाब का फूल समझ
अपनी प्रेमिका के जूड़े में खोंस देना चाहता है
एक चटोरी लड़की इसे लाल टमाटर समझ
दोस्ती के एवज में मांग बैठी है
वह इसकी चटनी बना मूंग के भजिए के साथ खाना चाहती है
माननीय नगर सेठ इसे मूंगा समझ
अपनी अंगूठी में जडऩा चाहते हैं
ज्योतिषियों के अनुसार मूंगा ही बचा सकता है उनका भविष्य
राजा को भी जरूरत आ पड़ी है इसी चीज की
मचल गया है छोटा राजकुमार इसे लाल गेंद समझ
लिहाजा, राजा के सिपाही मेरी तलाश में हैं
और भी कई लोग अलग-अलग कारणों से
मुझसे छीन लेना चाहते हैं यह आग
हिरन की कस्तूरी सरीखी हो गई है यह चीज
कि इसके लिए कत्ल तक किया जा सकता हूं मैं
फिर इतनी खतरनाक चीज को
आखिर किसलिए दिल में छुपाए घूम रहा हूं मैं
दरअसल मैं इसे
उस बुढिय़ा के ठंडे चूल्हे में डालना चाहता हूं
जो सारी दुनिया के लिए भात का अदहन चढ़ाए बैठी है
और सदियों से कर रही है इसी आग का इंतजार।
- अरुण आदित्य
(साक्षात्कार, जनवरी 1998 में प्रकाशित)
अन्योन्याश्रित
हवा चूमती है फूल को
और फिर नहीं रह जाती है वही हवा
कि उसके हर झोंके पर
फूल ने लगा दी है अपनी मुहर
और फूल भी कहां रह गया है वही फूल
कि उसकी एक-एक पंखुड़ी पर
हवा ने लिख दी है सिहरन
फूल के होने से महक उठी है हवा
हवा के होने से दूर-दूर तक फैल रही है फूल की खुशबू
इस तरह एक के स्पर्श ने
किस तरह सार्थक कर दिया है दूसरे का होना।
- अरुण आदित्य
(प्रगतिशील वसुधा के अंक 73 में प्रकाशित। स्वर्गीय हरिशंकर परसाई द्वारा संस्थापित इस पत्रिका के प्रधान संपादक कमला प्रसाद और संपादक स्वयं प्रकाश व राजेंद्र शर्मा हैं। पता है- कमला प्रसाद, एम-31, निराला नगर, दुष्यंत मार्ग, भदभदा रोड, भोपाल
और हां इस कविता के साथ फूल का सुंदर-सा जो चित्र लगा है, उसके छायाकार इंदौर के युवा कवि प्रदीप कांत हैं। प्रदीप केट में वैज्ञानिक अधिकारी हैं। शायरी का शौक पुराना था, छायाकारी का चस्का अभी नया-नया लगा है। प्रदीप ने पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर कल जब यह फोटो भेजा तो मुझे अपनी यह पुरानी प्रेम-कविता याद आ गई। फिर सोचा कि आप सब को पढ़वा दिया जाए।
ठोकर
हम अपनी रौ में जा रहे होते हैं
अचानक किसी पत्थर की ठोकर लगती है
और एक टीस सी उठती है
जो पैर के अंगूठे से शुरू होकर झनझना देती है दिमाग तक को
एक झनझनाहट पत्थर में भी उठती है
और हमारे पैर की चोट खाया हुआ हत-मान वह
शर्म से लुढ़क जाता है एक ओर
एक पल रुककर हम देखते हैं ठोकर खाया हुआ अपना अंगूठा
पत्थर को कोसते हुए सहलाते हैं अपना पांव
और पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी
झाड़ती है भय संकोच की धूल और ला खड़ा करती है उसे
किसी और के गुरूर की राह में।
-अरुण आदित्य
(पल-प्रतिपल के सितंबर-दिसंबर2 000 अंक में प्रकाशित। पल प्रतिपल का पता है : पल प्रतिपल, एससीएफ-267, सेक्टर-16, पंचकूला। देश निर्मोही इसके संपादक हैं। )
उर्दू की लिपि में उनकी कोई किताब नहीं
कुछ रंग थे। थोड़ी खुशबू थी। थोड़ी धूप थी, कुछ रूप था। इन सब को मिला दो तो एक आदमी बनता था। आदमी से थोड़ा ज्यादा आदमी। दुनियादार से थोड़ा कम दुनियादार। नाम शमीम था और तखल्लुस फरहत। काम था शायरी और कमजोरी थी शराब। दोनों में एक साथ इस कदर डूबा हुआ कि न इसमें से निकलना आसां न उसमें से। शायरी के बारे में वो लिखता है,
गीत गाना जो छोड़ देता हूँ, गीत ख़ुद मुझको गाने लगते हैं।
और शराब के बारे में भी उसकी राय बहुत आशिकाना थी-
ये तौहीने बादानोशी है, लोग पानी मिला के पीते हैं
जिनको पीने का कुछ सलीका है, जिंदगानी मिला के पीते हैं।
और वो शायर जो रंग, रूप और खुशबू की बात करता था, खून की उल्टियाँ करने लगा। वरिष्ठ जनवादी लेखक राम प्रकाश त्रिपाठी ने प्रगतिशील वसुधा के अंक ७० में शमीम पर एक अद्भुत संस्मरण लिखा है। जनवादी लेखक संघ ने उनका एक संग्रह छापा है, दिन भर की धूप। शीर्षक दुष्यंत के संग्रह साए में धूप से मिलते-जुलता लगता है, लेकिन यह शमीम के एक चर्चित शेर - वो आदमी है रंग का खुशबू का रूप का/कैसे मुकाबला करे दिन भर की धूप का- से लिया गया था। राम प्रकाश जब शमीम साहब को इसकी स्क्रिप्ट दिखाने ले गए तो फर्श पर खून की उलटी देखी। राम प्रकाश ने चिंता जतायी तो इस इन्कलाबी शायर ने हंस कर कहा- अपनी जितनी कुब्बत है, उतनी धरती पर तो लाल रंग बिछा जायें। और उनसे जितनी धरती लाल हो सकती थी, उतनी लाल करके शमीम साहब ९ अगस्त १९८५ की रात ५१ बरस की उम्र में दुनिया को नमस्कार कर गए।
एक जमाने में निदा फाजली और शमीम फरहत ग्वालियर की उभरती हुई पहचान थे। बाद में निदा मुम्बई चले गए। स्टार हो गए। शमीम पद्मा विद्यालय में उर्दू पढाते रहे। मोहल्ले में इन दिनों उर्दू के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बहस चल रही है। इस सन्दर्भ में राम प्रकाश त्रिपाठी की ये पंक्तियाँ भी बहुत कुछ कहती हैं- '' अफ़सोस है कि शमीम उर्दू के थे। उनकी कोई किताब उर्दू की लिपि में नहीं है। (जनवादी लेखक संघ ने जो संग्रह छापा है वह देवनागरी में है।) मध्य प्रदेश की उर्दू अकादमी इस पशोपेश में रही कि hindi में छपी हुई किताब को उर्दू में लाना , कहीं उर्दू की तौहीन तो नहीं होगी।'' शमीम साहब भी अगर मुम्बई चले गए होते तो शायद स्टार बन जाते। प्रकाशक उनके आगे पीछे घूमते। अकादमियां उन्हें आगे बढ़ कर सम्मानित करतीं। पर क्या तब भी यह लिख पाते-
हम हकीकत की तरह दिल में चुभेंगे यारों
हम कहानी की तरह याद नहीं आयेंगे।
उनके संग्रह दिन भर की धूप से पेश हैं उनकी दो गजलें
एक
जीने से चढ़ के छत पे खड़ी हो गई है वो
सरगोशियाँ हुईं कि बड़ी हो गई है वो
मलबूस में उभरते हुए जिस्म के नुकूश
देखो तो मोतियों की लड़ी हो गई है वो
बेबाक शोखियों पे मैं शरमा के रह गया
ऐसा लगा कि मुझसे बड़ी हो गई है वो
तय कर लिए हैं उसने समंदर के रास्ते
यादों के पास आके खड़ी हो गई है वो ।
दो
न तेरे नाम का कूचा न मेरे नाम का शहर
कहीं अल्लाह की बस्ती है कहीं राम का शहर
जिंदगी जह्दे मुसलसल के सिवा कुछ भी नहीं
यार मैंने भी बसाया नहीं आराम का शहर
कितने खामोश मोहल्ले कई उतरे चेहरे
तुम मेरे जाम में देखो तो मेरे जाम का शहर
जंग है भूख है अफ्लास है बेकारी है
जिस जगह जाऊँ मिले है दिले नाकाम का शहर
अब भी जलते हैं उम्मीदों के दिए गम के चराग
तूने देखा नहीं अब तक दिले बदनाम का शहर
- शमीम फरहत
( शहर को खून से लथपथ कर रथ आगे बढ़ चुका है। अब शहर में कर्फ्यू है। इसी कर्फ्यू और दंगाग्रस्त शहर में बेटा फंसा हुआ है। माँ गाँव में है। उसके पास पहुँचती खबरों में दहशत है, आशंका है।दिल्ली में वी पी सिंह की सरकार लाचार है और गाँव में माँ । उसी दौर में लिखी गई थी यह कविता।लिखने के बाद मुझे ख़ुद यह सामान्य तुकबंदी जैसी ही लगी थी परन्तु इसमें पता नहीं ऐसा क्या है कि इसे पढ़कर मेरे मित्र और कला समीक्षक राजेश्वर त्रिवेदी की माँ की आँखें भर आई थीं। कवि संदीप श्रोत्रिय की माँ को भी यह कविता बहुत पसंद थी। चंडीगढ़ के पंजाब कलाभवन में इस कविता को सुनाकर मंच से उतरते ही वरिष्ठ नाटककार और जन संस्कृति मंच के पूर्व अध्यक्ष गुरशरण सिंह ने मुझे गले लगा लिया था।)
अम्मा की चिट्ठी
गांवों की पगडण्डी जैसे
टेढ़े अक्षर डोल रहे हैं
अम्मा की ही है यह चिट्ठी
एक-एक कर बोल रहे हैं
अड़तालीस घंटे से छोटी
अब तो कोई रात नहीं है
पर आगे लिखती हैअम्मा
घबराने की बात नहीं है
दीया बत्ती माचिस सब है
बस थोड़ा सा तेल नहीं है
मुखिया जी कहते इस जुग में
दिया जलाना खेल नहीं है
गाँव देश का हाल लिखूं क्या
ऐसा तो कुछ खास नहीं है
चारों ओर खिली है सरसों
पर जाने क्यों वास नहीं है
केवल धड़कन ही गायब है
बाकी सारा गाँव वही है
नोन तेल सब कुछ महंगा है
इंसानों का भाव वही है
रिश्तों की गर्माहट गायब
जलता हुआ अलाव वही है
शीतलता ही नहीं मिलेगी
आम नीम की छाँव वही है
टूट गया पुल गंगा जी का
लेकिन अभी बहाव वही है
मल्लाहा तो बदल गया पर
छेदों वाली नाव वही है
बेटा सुना शहर में तेरे
मार-काट का दौर चल रहा
कैसे लिखूं यहाँ आ जाओ
उसी आग में गाँव जल रहा
कर्फ्यू यहाँ नहीं लगता
पर कर्फ्यू जैसा लग जाता है
रामू का वह जिगरी जुम्मन
मिलने से अब कतराता है
चौराहों पर वहां, यहाँ
रिश्तों पर कर्फ्यू लगा हुआ है
इसकी नजरों से बच जाओ
यही प्रार्थना, यही दुआ है
पूजा-पाठ बंद है सब कुछ
तेरी माला जपती हूँ
तेरे सारे पत्र पुराने
रामायण सा पढ़ती हूँ
तेरे पास चाहती आना
पर न छूटती है यह मिटटी
आगे कुछ भी लिखा न जाए
जल्दी से तुम देना चिट्ठी।
- अरुण आदित्य
(मेरे पहले कविता संग्रह 'रोज ही होता था यह सब' से)
सबका अपना-अपना मठ है
मेरे मठ में मेरा हठ है
मैं, मैं, मैं, मैं मंत्र हमारा
मैं की खातिर तंत्र हमारा
मेरा मैं है मुझको प्यारा
मैं अपने ही मैं से हारा
मेरे मैं की जय है, जय है
मेरा मैं ही मेरा भय है
मेरे मैं को आबाद करो
मुझको मैं से आजाद करो
मैं साधू , मेरा मैं शठ है
फ़िर भी मैं की खातिर हठ है।
- अरुण आदित्य