Friday, December 24, 2010

पढ़िए उदय प्रकाश का मन



कवि-कथाकार उदय प्रकाश से यह बातचीत गत वर्ष जून में रेकार्ड की गई थी। उन्हें मिले सार्क सम्मान के बहाने हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा के लिए यह बातचीत की गई थी। हरिगंधा का उपरोक्त अंक छप कर आने तक गोरखपुर का वह बहुचर्चित विवाद शुरू हो गया था, जो कई महीनों तक हिंदी साहित्य जगत में छाया रहा। उस दुखद प्रसंग के बाद हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार का सुखद संदर्भ भी जुड़ गया है। इन तमाम संदर्भों के साये में इस बातचीत से शायद कोई नया पाठ खुलकर सामने आए...

अच्छी रचना बहुत धीमी आवाज में बोलती है

उदय प्रकाश से अरुण आदित्य की बातचीत


पाठकों की कमी के इस संकटपूर्ण दौर में भी उदय प्रकाश एक ऐसे कहानीकार हैं, पाठक जिनकी रचनाओं का इंतजार करते हैं। पर कहानीकार से भी पहले वे एक बड़े कवि हैं। और कवि से भी पहले संवेदनशील मनुष्य हैं। उनकी संवेदना मनुष्यमात्र के प्रति ही नहीं घास, फूल, ओस और तितली के प्रति भी है। 'तिरिछ', 'पाल गोमरा का स्कूटर', 'और अंत में प्रार्थना', 'वारेन हेस्टिंग्स का सांड', 'पीली छतरी वाली लड़की', 'मोहनदास' जैसी चर्चित कथाकृतियों के अलावा उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 'सुनो कारीगर', 'अबूतर-कबूतर' और 'रात में हारमोनियम' के बाद उनका चौथा कविता संग्रह 'एक भाषा हुआ करती है', हाल ही में आया है। वे बहुपठित, बहुअनुवादित और बहुप्रशंसित लेखक हैं। और बहुविवादित भी। मोहनदास सहित उनकी कई कृतियों पर फिल्में भी बनी हैं। उन्होंने खुद भी कई महत्वपूर्ण डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई हैं। उदय प्रकाश को पाठकों ने जितना प्यार दिया है, हिंदी के साहित्यिक समाज से उन्हें उतनी ही शिकायत है। इसी प्यार और शिकायतों के बीच ही आप उस उदय प्रकाश को खोज सकते हैं, जो कलम का मजदूर तो है, मगर जिसकी कलम मजबूर नहीं है। जो सीतापुर से वैशाली तक अपने स्वाभिमान की गठरी में किसी को हाथ नहीं लगाने देता, बदले में कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े। पिछले साल जब उन्हें सार्क साहित्यकार सम्मान मिला तो इसी बहाने हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा के (तत्कालीन ) संपादक देश निर्मोही ने उन पर एक विशेष खंड प्रकाशित करने की योजना बनाई। हमने उदय जी से पूछा, 'हरिगंधा के लिए एक बातचीत करनी है, किस समय आना ठीक रहेगा?' उदय जी अपनी चिरपरिचित हंसी हंस पड़े और हंसते हुए ही कहा, 'फ्रीलांसिंग करके घर चलाने में बहुत समय इधर-उधर भटकना पड़ता है, लेकिन इतना भी व्यस्त नहीं रहता हूं कि मित्रों को समय लेकर मिलना पड़े। जब मरजी हो चले आओ।' मैंने कहा, 'परसों सुबह आ जाता हूं।' और तीसरी सुबह हम वैशाली, गाजियाबाद स्थित उनके आवास पर मौजूद थे। उदय जी उसी उत्साह से मिले जैसे कि वे हर बार मिलते हैं। बात शुरू हुई तो बात से बात निकलती चली गई।

शुरुआत पुराने शहडोल और आज के अनूपपुर जिले के उस गांव से करते हैं, जहां उदय प्रकाश का जन्म हुआ। बचपन में कब आपको लगने लगा था कि कोई रचनाकार आपके भीतर कुलबुला रहा है? क्या आप सामान्य बच्चों से कुछ अलग थे?

कोई अद्वितीयता तो नहीं, लेकिन यह बात जरूर थी कि दूसरों से कुछ तो अलग था। जैसे, अकेलापन पहले भी अच्छा लगता था। और अपनी उम्र के बच्चों के बजाय बड़ी उम्र के बच्चों और बूढ़ों के साथ बातचीत में मैं ज्यादा सहज हो पाता था। जहां तक गांव की बात है, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर वह बहुत छोटा सा गांव है। नाम है सीतापुर। बहुत पिछड़ा इलाका है, जिसको सिंगल क्रॉप एरिया कहते हैं। एक फसली बलुहा जमीन है वहां। समृद्ध क्षेत्र नहीं है। 1972 में बिजली आई उस क्षेत्र में। उससे पहले हम लोगों की सारी पढ़ाई-लिखाई ढिबरी, लालटेन और कंदील की रोशनी में हुई। पुल नहीं बना था तो नदी में नाव और डोंगियां चलती थीं। जाहिर है कि बारिश में नदी भी पार करनी पड़ती थी। कई गांव थे जो बरसात में बिलकुल कट जाते थे। जंगल था। प्रकृति के बीच में रहना था। हमारे यहां बंदर थे, हिरन थे। तरह-तरह की चिडिय़ां, वन्य प्राणी सब बचपन के अनुभवों में शामिल थे। अब अगर मैं कहूं कि हमारे घर में शेर के बच्चे पले, या कहूं कि हाथी था हमारे घर पर, तो यह शहर के बच्चों को अटपटा लगेगा जो इन जानवरों को सिर्फ कॉमिक्स या किताबों में देख पाते हैं।
लिखने का सिलसिला ऐसे शुरू हुआ... जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं, मेरी मां भोजपुर क्षेत्र की थीं। मिर्जापुर के पास विजयपुर नाम की जगह है। उस समय कम उम्र में शादी हो जाती थी। जब वे आईं तो अपने साथ एक कॉपी लाई थीं। उसमें मिर्जापुर और उस इलाके के गाने लिखे हुए थे। मां की हैंडराइटिंग बहुत सुंदर थी। वे छोटे-छोटे चित्र बनाती थीं। क्रोशिया, कढ़ाई-बुनाई का काम बड़ी कलात्मकता से करती थीं। वे गाती बहुत अच्छा थीं। वे अकसर गांव की स्त्रियों से घिरी रहती थीं। मां के आने के बाद गांव की स्त्रियों में बड़ा बदलाव आया। मैंने मां की उसी कॉपी को देखकर ही कविता लिखना शुरू की और चित्र बनाना भी उस कॉपी से ही सीखा। बहुत छोटी उम्र में मैं चित्र बनाने लगा था और कविता भी जब शुरू की तो छह सात साल का रहा होऊंगा। मेरी बहनों को मेरी तब की कविताएं याद हैं। पढऩे लिखने का संस्कार था घर में। पिताजी लगभग सारी पत्रिकाएं मंगाते थे। साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, कल्पना, बहुत सी पत्रिकाएं जो अब नहीं हैं.. अवंतिका, ज्योत्सना वगैरह। बच्चों की पत्रिकाएं भी आती थीं। पुरानी किताबें बहुत थीं। महाभारत वगैरह तो थी हीं, एक विचित्र किताब थी जिसके बारे में बताता हूं तो लोगों को ताज्जुब होता है। उसका नाम था 'करि कल्प लता'। वह हाथियों के बारे में थी। जैसे वात्स्यायन के काम-सूत्र में पद्मिनी, शंखिनी वगैरह के वर्गीकरण के आधार पर स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन किया गया गया है, उसी तरह 'करि कल्प लता' में हाथियों के लक्षणों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां थीं। मुझे बहुत रोचक लगती थी वह किताब। मेरे गांव के पास से जब हाथियों के झुंड निकलते थे तो मैं उस किताब में दिए गए लक्षणों के आधार पर उनके स्वभाव का अंदाजा लगाता था। हाथी बड़ा मानवीय लगता था मुझे। हमारे घर का जो हाथी था, उसका नाम था भगवंता। सरगुजा और छत्तीसगढ़ का वह क्षेत्र जो आज नक्सलवाद और सल्वा जुडुम से प्रभावित है, वहां घने जंगल थे। आगे चलकर यह जंगली इलाका असम से जुड़ जाता था। यहां से वहां तक हाथियों का अभ्यारण्य था। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जसपुर हाथियों का बहुत बड़ा ब्रीडिंग सेंटर था। जो लोग हाथियों को खरीदने जाते थे, उनके लिए ऐसा कोई शास्त्र या मैनुअल जरूरी था जिसके आधार पर वे अच्छे हाथी की पहचान कर सकें। अब वह किताब हमारे घर में नहीं है। मैं तो खैर बहुत बचपन में गांव से चला आया। जब मां की मृत्यु हुई मैं बारह साल का था और जब सोलह साल का था तो पिता की मृत्यु हो गई। दोनों की मृत्यु कैंसर से हुई। मां की मृत्यु के बाद ही मैंने घर छोड़ दिया था। तब से आप सब जानते है कितनी कठिनाइयों से मैंने जिंदगी जी है। बहुत संघर्ष करना पड़ा, लेकिन पेंटिंग और कविता का साथ लगातार बना रहा।

आपके सृजन में उस नदी की भी भूमिका रही है, जिसमें बाढ़ आने से तिब्बत जैसी कविता की भूमिका लिखी गई?

हां, यह तो उसी समय की बात है, जब मेरी मां थी। मेरे बचपन का अनुभव था वह। वह जो समय था पचास-साठ के दशक का, बड़ी दुविधा असमंजस और टकराहटों का समय था। मैं इतना छोटा था कि मुझे नहीं पता था कि तिब्बत का भारत से क्या संबंध है। अनूपपुर छोटा सा जंक्शन था, जहां एक ही लाइन थी। मेरी एक कविता भी है अनूपपुर जंक्शन। वहां से ट्रेन बदली जाती थी सरगुजा के लिए। जो तिब्बती शरणार्थी आते थे, उनका एक हिस्सा अनूपपुर में उतर जाता था। वहां से दूसरी ट्रेन लेता था। बरसात के दिनों में दूसरी ट्रेन कई-कई दिनों तक रद्द हो जाती थी, तो वे वहीं रुके रहते थे। और वे कई बार हमारे गांव की तरफ से गुजरते थे। बचपन से ही मुझे लामाओं से बहुत गहरा लगाव रहा। और बाद में बुद्ध भी बहुत आकर्षित करने लगे। बौद्ध धर्म में हम सबकी एक अलग तरह की आस्था है। यह लिबरेट करता है, जातिवाद से मुक्त करता है। और उसके पीछे जो अहिंसा है, वह बहुत सारे दूसरे दर्शनों, जो करुणापूर्ण हैं, से जोड़ती है। इसकी तुलना में हिंदू धर्म को लेकर शुरू से ही मेरे मन में संदेह रहा कि यह हिंदू धर्म है या ब्राह्मणवाद है। बाद में जब देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय और भगवत शरण उपाध्याय वगैरह को पढ़ा तो स्पष्ट होने लगा कि ब्राह्मण ग्रंथों, स्मृतियों, कर्मकांडों की जो परंपरा है वह उपनिषदों के विरोध में है। जबकि महावीर और बुद्ध दोनों का दर्शन उपनिषदों से निकला हुआ है। इसलिए आश्चर्य नहीं होता कि ज्योतिबा फुले से लेकर अंबेडकर तक ने बुद्ध में ही मुक्ति का मार्ग क्यों देखा। तिब्बत मेरी चेतना में अहिंसा और बौद्ध दर्शन का केंद्र था। अगर वेटिकन सिटी अक्षत रह सकता है। येरुसलम को लेकर दुनिया इतनी सेंसिटिव है तो तिब्बत को लेकर क्यों नहीं? जबकि कहा भी गया कि तिब्बत को भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट के रूप में बना रहना चाहिए था। जब मैंने तिब्बत कविता लिखी तो बहुत विरोध हुआ, क्योंकि मैं कम्युनिस्ट था।

आपको नहीं लगा कि गैर प्रगतिशील घोषित कर दिया जाएगा?

कर ही दिया गया था लगभग। लेकिन ये गनीमत थी कि प्रगतिशील और जनवादियों के बीच कुछ सचमुच बहुत प्रबुद्ध माक्र्सवादी भी हैं। जिनके विचार सिर्फ राजनीतिक दृष्टिकोण से ही तय नहीं होते। तिब्बत की स्वायत्तता को मानने वाले बहुत से मार्क्सवादी हैं। और तिब्बत ही नहीं फिलिस्तीन या कहीं के भी सांस्कृतिक समुदाय की सार्वभौमता का सम्मान करते हैं। और कोई उसका हनन करके उपनिवेश बनाता है, तो उसका विरोध करते हैं। मैंने जब तिब्बत कविता लिखी तो बड़ी बहस हुई कि यह तो एंटी कम्युनिस्ट कविता है और केदार जी ने इसे पुरस्कार दे दिया। जब 78 में वियतनाम पर चीन ने हमला किया तो हमने पूछा कि जो वियतनाम साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध का एक प्रतीक रहा है, उसके साथ ऐसा सुलूक। इसे क्या कहेंगे। उनके पास कोई उत्तर नहीं था। कई बार जिस राज्य को हम मान लेते हैं कि यह समाजवादी राज्य है, उसके भीतर भी बहुत से कंट्राडिक्शन्स हो सकते हैं। चीन का विस्तारवाद भी एक चिंता का विषय रहा है। रूस भी इससे चिंतित था। पाब्लो नेरूदा के संस्मरण पढि़ए। वहां भी यह चिंता दिखेगी। नेहरू भी इस बात को समझ पाए थे। आज भी हम जानते हैं कि चीन या वेनेजुएला या क्यूबा एक जैसे नहीं हैं। क्यूबा अपनी अस्मिता बचाने के लिए अमेरिका से लड़ रहा है जबकि चीन अपने विस्तार के लिए। और उसका विस्तारवाद कई क्षेत्रों में है, सिर्फ तिब्बत के इनवैजन में नहीं है। व्यापार में देख लीजिए, इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन में देख लीजिए, इंटरनेशनल डिप्लोमैटिक पावर में देख लीजिए, वह तमाम क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। मुझे तो अब भी चीन के प्रति संदेह है। रोजा लक्जमबर्ग ने जब नेरूदा को भेजा था लेनिन पीस प्राइज लेने के लिए, तो माओ का इंटरव्यू करने और चीन में रहने के बाद उन्होंने निष्कर्ष दिया कि माओ मार्क्सवादी नहीं हैं।

आपने डिबिया कहानी में लिखा है कि वे लोग चाहते हैं कि अगर मुझे अनुभव की सत्यता सिद्ध करनी है तो मैं उन लोगों के सामने डिबिया का ढक्कन हटा दूं। साहित्यकार के अनुभव की सत्यता की पड़ताल करने की इस प्रवृत्ति के पीछे कौन सा आग्रह या दुराग्रह काम करता है?

मैं पहले भी कहता रहा हूं कि साहित्यकार को बहुत प्रचीन अर्थों में लिया जाना चाहिए। कई बार मैंने कहा है कि राइटर और ऑथर में अंतर होता है। रचनाकार और लेखक में फर्क होता है। राइटर कोई भी हो सकता है: एक नेता हो सकता है, डॉक्टर हो सकता है, वकील हो सकता है। विज्ञापन लिखने वाला भी हो सकता है। प्रसून जोशी भी लेखक है जो ठंडा मतलब कोका कोला लिखता है और पूरी मानवता को जहर पिलाता है। और उसकी बड़ी चर्चा होती है अखबारों में। ऑथर जो होता है, वह भिन्न होता है। उसी को साहित्यकार कहा जाता है। रोलां बाथ ने बहुत अच्छी तरह राइटर और ऑथर का फर्क बताया है। टॉलस्टाय ऑथर थे, मुरली बाबू या मैनेजर पांडे लेखक हैं। ये जो अंतर है, यह वैज्ञानिक और पूर्व वैज्ञानिक युग का अंतर है। जब हमारे पास समाज परिवर्तन और प्रगति के नियमों को जानने के इतने साधन नहीं थे तब बहुत कुछ हमारी प्रज्ञा काम देती थी। हमारा जो पारंपरिक ज्ञान है, वो काम आता था। उस समय गलतियां करता था ऑथर, लेकिन उसका उद्देश्य होता था चराचर का कल्याण। मानव समाज का उत्थान। बाइबिल, गीता या दूसरे पुराने स्क्रिप्चर्स को देखें तो पाएंगे कि वे बेहतरीन पाठ हैं। उनमें एक समान भावना यही थी कि उसमें मनुष्य का कल्याण हो, कुछ नियम हों, कुछ संहिताएं हों, जिससे मनुष्य दूसरे का अहित न करे। जबकि राइटर बहुत तात्कालिक उद्देश्य के लिए लिखता है। जैसे कि आज जनसत्ता में अजेय कुमार का एक लेख छपा है, जिसका उद्देशय ये है कि सीपीएम को वोट दीजिए। ये जो सवाल आपने पूछा है अनुभव की सत्यता वाला, तो साहित्यकार को हमेशा लेखकों से टकराना पड़ता है। आप देखेंगे कि मेरे लेखन को लेकर जो भी विवाद पैदा हुआ है, वह पाठकों की तरफ से नहीं हुआ है। ये कुछ लेखक यानी राइटर हैं, जो कुटिल षड्यंत्र करते रहते हैं। ये कोई प्रतिद्वंद्विता भी नहीं है। ये बहुत मीडियॉकर किस्म के लोग हैं लेकिन इनके षड्यंत्रों ने मेरे जीवन को प्रभावित किया है। बहुत कठिनाइयां झेलनी पड़ी हैं। चीजों को डिस्टॉर्ट करने का सिलसिला तिब्बत कविता या टेपचू कहानी से लेकर आज तक चला आ रहा है। कहानियों में लोग व्यक्तियों को ढूंढऩे लगते हैं। यह फासिस्ट प्रवृत्ति है, जैसे कुछ लोगों ने रामायण में अयोध्या और राम की जन्मभूमि खोज डाली और दंगा मचा दिया, वही काम आप यहां कर रहे हैं। तो आप में और आरएसएस में क्या अंतर है। अगर आप मेरी कहानी में किसी प्रोफेसर को ढूंढ़ लेंगे, किसी पुलिस वाले को ढूंढ़ लेंगे, फिर उससे जाकर शिकायत करेंगे और वह मुझको प्रताडि़त करेगा, तो यह फासीवादी प्रवृत्ति नहीं तो क्या है। इन लोगों ने मुझे बहुत नुकसान पहुंचाया। मेरे पास गोल्ड मेडल थे, अच्छा एकैडमिक रेकार्ड था, लेकिन मीडियाकर किस्म के लोगों ने मेरे साथ क्या किया? जातिवाद और मीडियॉक्रिटी और ब्यूरोक्रेसी व राजनीति के इस नेक्सस ने अपने समय के हर रचनाकार को आहत किया है। बाबा नागार्जुन से लेकर राहुल सांकृत्यायन तक तमाम बड़ी प्रतिभाओं के साथ ऐसा किया गया।

अकसर कवि उदय प्रकाश के खिलाफ कहानीकार उदय प्रकाश को खड़ा कर दिया जाता है। आपके खिलाफ आप को ही खड़ा कर देने की इस रणनीति पर क्या कहेंगे?

यह बड़ा विचित्र है। आप पाएंगे कि दोनों सूचियों में मेरा नाम नहीं रहता। जब तक मैंने अपनी कहानियों को छुपाए रखा तब तक नव प्रगतिशील कविता की जो त्रयी बनती थी उसमें सबसे पहले मेरा नाम आता था- उदय प्रकाश, अरुण कमल, राजेश जोशी। फिर कैसे उस सूची से मैं गिरा..और नामों की एक लाइन लग गई।

राजेंद्र यादव ने आजादी के बाद दस महत्वपूर्ण कवियों और दस कहानीकारों की लिस्ट दी थी। उन्होंने कहा था कि दस कवियों में आठ ब्राह्मण हैं और दस कहानीकारों में आठ गैर ब्राह्मण हैं। इसका कारण यह बताया था कि कविता ब्राह्मणी विधा है जिसमें अमूर्तन के चलते छद्म मूल्यांकन की ज्यादा गुंजाइश रहती है। आपको क्या लगता है?

एक हद तक मैं इससे सहमत हूं। कविता में और किसी भी ऐसे इलीट आर्ट फार्म या अभिजन कला रूप में मैनिपुलेशन संभव है। उसका छद्म मूल्यांकन संभव है क्योंकि बृहत्तर समाज तक वह नहीं पहुंच रही है। दस लोगों के बीच ही अगर कोई कला बरती जाती है, तो उसमें किसी को भी महान बना सकते हैं। लेकिन कहानी या उपन्यास सार्वजनिक विधाएं हैं। इनकी पहुंच ज्यादा है। वहां पर आप मनमानी नहीं कर सकते।

मनमानी करेंगे तो पाठक पकड़ लेगा?

बिलकुल, पाठक समझ जाएगा। विजयमोहन सिंह ने मेरे खिलाफ कुछ टिप्पणियां कीं तो पाटकों के तमाम पत्र आए मेरे पास। मतलब यह कि कहानी-उपन्यास में आप पकड़ लिए जाते हैं। आप देखिए कि प्रेमचंद का साथ किसी आलोचक ने नहीं दिया। आचार्य शुक्ल से लेकर उस समय के सारे सशक्त आलोचक थे सबके द्वारा अस्वीकृत होने के बावजूद प्रेमचंद कथा सम्राट कहलाए।

ऐसा तो नहीं कि कविता में आलोचना ने एक ऐसा भ्रम पैदा कर दिया कि पाठक भी भ्रमित हो जाता है?

कविता के पाठक कितने हैं। लोठार लुत्से ने पूछा था कि कविता की भाषा कौन सी है। और वह भाषा कितने लोगों तक संप्रेषित हो रही है। हिंदी के ही संदर्भ में बात करें तो हमारी कविता की हिंदी, क्या वही हिंदी है जो आज का जीवित हिंदी भाषी समुदाय बोल रहा है। अमीर खुसरो जिस हिंदवी में लिख रहे थे वह ऐसी भाषा थी जो दिल्ली से लेकर आगरा और उसके आगे तक बोली जाती थी। आज हिंदी कविता की जो भाषा है, वह हिंदी विभागों की भाषा है। ये आम जनता की भाषा नहीं है। आप आज की कविताओं को पढ़कर देखिए, उनकी भाषा कोई नहीं समझता है।

आपकी जो लंबी कविता है एक भाषा हुआ करती है, उसमें भी आपने भाषा का सवाल उठाने की कोशिश की है...

बिल्कुल। दुनिया के हर देश में बड़े कवि चाहे वे नाजिम हिकमत हों या कोई और, ऐसी भाषा में लिख रहे थे जो लोगों को समझ में आए। भाषा को बचाना जरूरी है और भाषा को मुक्त करना जरूरी है। भाषा में भी वर्ग वर्ण और जाति के जो वर्चस्व हैं, उनसे भी मुक्ति चाहिए। ये लोग सांप्रदायिकता के विरुद्ध लेख लिखते हैं, लेकिन आप उस भाषा को देखिए, जिसमें ये लिखते हैं, वह पूरी तरह सांप्रदायिक भाषा है। सेकुलर पोएट्री, सेकुलर राइटिंग हिंदी में कम्युनल लैंग्वेज में हो रही है। वो ब्राह्मीसाइज्ड लैंग्वेज में हो रही है। एक खास जाति की भाषा में यहां सेकुलरिज्म आ रहा है। इसीलिए आज गुलजार ज्यादा लोकप्रिय हैं, नीरज ज्यादा लोकप्रिय हैं।
एक क्लोज सोसायटी है, कुछ अफसरों, कुछ राजनीतिक दलों के लेखक संगठनों की और कुछ प्रोफेसरों की, जिसके बीच में कविता फल फूल रही है। ये क्लेप्टोक्रेसी है। ये संस्थानों से इतने सरकारी पैसे हड़प रहे हैं कि इन्हें शर्म आनी चाहिए। हिंदीभाषी क्षेत्र से वामपंथ का जनाधार गायब हो चुका है और जनाधार गायब हो जाने के कारण इनकी कोई सोशल मॉनिटरिंग भी नहीं हो पा रही है। समाज इनकी निगहबानी नहीं कर रहा है, इसलिए खुला खेल खेल रहे हैं। कोई अर्जुन सिंह की चमचागिरी कर रहा है तो कोई किसी और के जूते ढो रहा है। हिंदी दुर्भाग्य से या सौभाग्य से ऐसी भाषा है, जिसे बोलने वाली दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या का दो तिहाई हिस्सा 2 डॉलर प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करता है। इतनी गरीब जनसंख्या के बीच अगर ये लोग एक्सेल कर रहे हैं तो इसे क्या कहेंगे। ऐसा नहीं है कि मैं एलीट साहित्य का विरोधी हूं। अभिजात्य साहित्य बहुत जरूरी होता है किसी भी भाषा के विकास के लिए। लेकिन ये तो आभिजात्य भी नहीं है। आपके पास अज्ञेय या निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकार हैं जो आपकी पोलिटिकल विचारधारा से मेल नहीं खाते, लेकिन वो ऐसे साहित्य का निर्माण करते हैंजिसे आज भी आप ईमानदारी से पढ़ेंगे तो कहेंगे कि यह श्रेष्ठ साहित्य है। विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं में कौन सी राजनीति है। मेरा मानना है कि कोई भी अच्छी रचना मूलत: प्रगतिशील होती है और मूलत: मानवतावादी होती है और मूलत: सामाजिक विषमता के विरोध में होती है। जो निर्मल वर्मा की भाषा है या विनोद कुमार शुक्ल की भाषा है, वह आपको ज्यादा संवेदनशील बनाती है। जैसे मुक्तिबोध आपको अधिक प्रबुद्ध करते हैं, आपकी प्रज्ञा को उत्तेजित करते हैंतो निर्मल वर्मा आपको ज्यादा संवेदनशील बनाते हैं। और ऐसा नहीं कि सिर्फ भाषा के प्रति संवेदनशील बनाते हैं, आपको अपने इर्द-गिर्द के प्रति भी संवेदनशील बनाते हैं। अगर आप तितली के बारे में नहीं संवेदित हो रहे हैं या घास के बारे में नहीं संवेदित हो रहे हैं, सिर्फ अमेरिका या वियतनाम के बारे में संवेदित हो रहे हैं तो मुझे आप पर डाउट है। आप फिलिस्तीन, अमेरिका को लेकर संवेदनशील हैं, लेकिन अगर आप जूतों से घास रौंद रहे हैं, पर्यावरण की कोई चिंता नहीं है, सूर्योदय और सूर्यास्त से आप संवेदित नहीं हो रहे हैंतो यह कौन सी संवेदनशीलता है।

इस तरह की संवेदनशीलता के संदर्भ में आप वान गॉग की पेंटिंग मेज़ अंडर स्टॉम्ड स्काई का हवाला देते हैं जिसमें आसमान में गहराते तूफान की आशंका में मकई के पौधे डर कर सिहर गये हैं...

हां, बिलकुल। यह सच है कि किसी भी कलाकार या मनुष्य के लिए अपने इर्द-गिर्द के प्रति संवेदनशील होना बहुत जरूरी है। अभी पिछले दिनों सार्क साहित्य सम्मेलन में यहीं के एक अंगरेजी कवि ने बहुत अच्छी कविता पढ़ी। जिसका भाव यह था-
वो लोग जो दावा करते हैं कि हम शेर को बचा लेंगे
वो झूठ बोलते हैं
क्योंकि वो घास के बारे में चुप हैं
शेर को बचाएगी घास
क्योंकि घास बचाएगी हिरन को
और हिरन बचाएगा शेर को
आपको घास के बारे में सोचना पड़ेगा। ऐसा नहीं होगा कि ऊंची-ऊंची लफ्फाजी करके अपनी प्रगतिशीलता प्रमाणित कर लेंगे और बहुत छोटे-छोटे निरीह निर्बल और लगभग बध्य प्राणियों और वनस्पतियों के बारे में क्रूर बने रहेंगे। आप आज लिखी जा रही हिंदी की कहानियां पढि़ए, उनमें घटनाएं तो होंगी लेकिन मनुष्य की संवेदना के रोजमर्रा के जो प्रमाण हैं, आस पास के परिवेश से उसका संबंध, वो एक सिरे से नदारद मिलेंगे।

क्या यही वजह है कि पाठक के मन से उनका जुड़ाव नहीं हो पाता? तिरिछ कहानी को पढ़कर जिस तरह पूनम वर्मा की चिट्ठियां आती हैं, क्या कविताएं भी वैसी संवेदनशीलता जगा पाती हैं?

कविताओं का क्या कहूं.. आप पुरानी कविताएं देखिए, सरोज स्मृति पढि़ए... राम की शक्ति पूजा पढि़ए। मुक्तिबोध की कई कविताएं हैं। शमशेर की टूटी हुई बिखरी हुई, अमन का राग पढि़ए। इन्हें पढ़ते हुए आप भूल जाते हैं कि किसकी रचना है, वह आपको अपनी लगने लगती है। ऐसा क्यों हुआ है कि पिछले कुछ समय से बहुत स्मार्ट पोलिटिकल कमेंट्स तो आए हैं कविताओं में, अपने समय के कनफिल्कट्स जो सतह पर हैं, जिनको सिर्फ पोलिटिकली भी समझा जा सकता है, वही-वही कविताओं में दिखते हैं। उसकी जो गहराई थी, वह गायब है। जैसे शमशेर की पंक्ति है- कबूतरों ने गजल गुनगुनाई, मैं नहीं जानता कि रदीफ काफिया क्या है? एक और पंक्ति है- आइनों मुस्कराओ और मुझे मार डालो। ये पंक्तियां लगभग अमूर्तन की ओर बढ़ती हुई भी पूरे प्रभाव के साथ बहुत ठोस भौतिकता की हद तक संवेदना को व्यक्त करती हैं। ऐसी सारी स्थितियां ही गायब होती जा रही हैं हिंदी कविता में। जो कविताएं बहुत प्रमुखता से आई हैं, वे बहुत स्मार्ट हैं। उनकी भाषा ब्राह्मणीकृत है। उसमें बहुत सारे शब्दों का दखल नहीं है, आवाजाही नहीं है। वो हिंदी समाज की जीवित भाषा को वर्जित करती हैं। और जब तक वो अपने को इस भाषा से मुक्त नहीं करेंगी, वे समाज में स्वीकृत नहीं हो पाएंगी। आप पोलिस कवि ताद्दिस रोजोविच को पढि़ए, उसकी कविता बहुत सरल कविता है। पोलिस भाषा का हर पाठक उस कविता को पढ़-समझ सकता है। ये सभी बड़े कवियों पर लागू होता है। लेकिन हिंदी में जिस तरह की कविताएं आ रही हैं, उनकी भाषा को लेकर मुझे आपत्ति है। मेरे विचार से ऐसी भाषा नहीं लिखी जानी चाहिए।

जादुई यथार्थवाद से आपका साबका कब पड़ा। लोग कहते हैं कि एक प्रविधि के रूप में सायास अपनाया । पर वास्तविकता क्या है, क्या आपने पहले लिख लिया और बाद में लोगों ने उसमें जादुई यथार्थवाद को ढूंढ़ा?

लोग क्या कहते हैं, यह सुन-सुन कर मेरे कान पक चुके हैं। जादुई यथार्थवाद जैसी चाज से न मेरा पहले कोई संबंध था, न आज है। मेरी रचनाओं में कुछ लोगों ने इसे ढूंढ़ा। लेकिन आप से मैं पहले भी कह चुका हूं, टेपचू मैंने लिखी 1976 में आपातकाल के दौर में। तब तो जादुई यथार्थवाद कोई नहीं जानता था, मेरे ख्याल से नामवर सिंह भी नहीं जानते थे। तब कहीं इसका कोई हल्ला ही नहीं था। टेपचू के बाद एक और कहानी लिखी गई। मेरी कहानियों में कहीं न कहीं कुछ ऐसा था जिसे पश्चिमी भाषा में मैजिकल कहा जा सकता है। और अगर भारतीय संदर्भ में देखें तो हमारी जो पूरी परंपरा रही है आख्यान की, जिसमें जातक, पंचतंत्र, दादी नानी की कहानियां, लोक कथाएं आती हैं, उसमें पहले से यह बात है। मैं तो जानता भी नहीं था कि कुछ अनोखा काम कर रहा हूं। लेकिन मेरी कहानियों में जादुई यथार्थवाद ढूंढऩे का यह काम किया कुछ आलोचकों ने। जहां तक मुझे याद है, जिस आलोचक ने मुझ पर सबसे पहले जादुई यथार्थवाद चिपकाया वह थे चंचल चौहान। मेरे खयाल से यह बयासी-चौरासी की बात है। तिरिछ जब आई, उसके आस-पास की बात है। जब लोग मुझसे पूछते थे, तो कई बार मैं गुस्से में कहता था कि हां, मैं जादुई यथार्थवादी हूं। कुछ इतनी वितृष्णा से मुझे जादुई यथार्थवादी बताया जाता था जैसे मैं यथार्थवाद का विरोध करने वाला, प्रेमचंद की परंपरा का विरोध करने वाला, वामपंथ का विरोध करने वाला कलावादी किस्म का व्यक्ति हूं। मैंने उनको समझाने की कोशिश की कि अगर ऐसा है भी तो जादुई यथार्थवाद तो आया ही है यूरोप और अमेरिका के वर्चस्व के विरोध में। लैटिनी-अमरीकी देशों की जनता ने अपने साहित्य को, अपने यथार्थ को यूरोप के रीयलिज्म से अलग करने के लिए एक नाम दिया, जादुई यथार्थवाद। उन्होंने कहा कि चूंकि हमारा समाज आज भी आधुनिक नहीं हुआ है, यहां आज भी भूत प्रेत हैं, अंधविश्वास है, मिथक की मौजूदगी है, इसलिए हमारे किसी भी आख्यान में ये तत्व शामिल हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि ये अजब आख्यान हैं। इनमें एक कौतुक है। इसको अलग से चिन्हित करने के लिए उन्होंने जादुई यथार्थवाद का नाम दिया। इसके पीछे बहुत बड़ी चेतना थी कि साम्राज्यवादी, यूरोपीय, पश्चिमी साहित्य के प्रभाव से अपने को मुक्त करें। और देखिए कि उसके बाद बड़े उपन्यासकारों कथाकारों की एक पूरी पीढ़ी उभर कर आई। जिसमें बोर्खेज हैं, मारक्वेज हैं, अस्तूरियास हैं। ऐसे साहित्यकारों की लंबी लाइन है। हमारे यहां भी इस तरह के कौतुक हैं, अजब आख्यान हैं, लेकिन हमारे यहां उसे अलग से चिन्हित करने का काम नहीं किया गया। हमारे यहां तो नकल ही करते रहे। हमारे प्रेमचंद मौलिक हैं, लेकिन कहा गया कि वे हिंदी के गोर्की हैं। क्या जरूरत है उन्हें गोर्की कहने की। प्रेम चंद क्या प्रेमचंद के रूप में ही महान नहीं हैं।

प्रेमचंद की मंत्र कहानी को देखिए, वहां भी तो जादुई चमत्कार है कि मंत्र की शक्ति से सांप का जहर उतर जाता है...

कितनी-कितनी कहानियांहैं। मंगलसूत्र को देखिए, और भी तमाम कहानियां हैं। इस तरह देखेंतो कोई सैद्धांतिकी किसी रचना को जन्म नहीं देती है। रचना ही नहीं, कोई यह सोचे कि सिद्धांत पढ़कर मैं अच्छा मनुष्य बन जाऊंगा तो वह भी संभव नहीं है। सिद्धांत सबसे पहले मनुष्य को डिह्यूमनाइज करते हैं। इनडॉक्ट्रिनेशन इसीलिए जेहादियों की चीज है। उनके मन में इस तरह सिद्धांत बिठा दिया गया है कि वे भीड़ में जाकर बम लगा देते हैं। मैं तो गांधी जी की तरह किसी भी सैद्धांतिकी के द्वारा मनुष्य की समूची आत्मा के अपहरण के विरुद्ध हूं। असैया बर्लिन ने कहा कि जब मैं 1917 की क्रांति की याद करता हूं,तो मुझे कुछ याद नहीं आता, सिर्फ इतना याद आता है कि पचपन साठ साल का एक ह्वाइट गार्ड था जो जार का कर्मचारी रहा होगा, उसको पीटते हुए रेड गाड्र्स लिए जा रहे थे। उसकी नाक से खून बह रहा था। उसकी एक आंख बाहर निकल आई थी। जो पिट रहा था, वह भी गरीब था और जो पीट रहे थे, वे भी गरीब थे। वे कहते हैं, तब से मुझे लगा कि क्रांति कुछ नहीं है, इनडॉक्ट्रिनेटेड फौजों की लड़ाई है। लेनिन की अंतिम दिनों की डायरी पढि़ए, जिस पर हम लोगों ने नाटक तैयार किया था 'लाल घास पर नीले घोड़े', लेनिन ने साफ लिखा था- ये जो क्रांति हुई और हमारी पार्टी बनी, यह दो विश्वयुद्धों के बीच बनी, इस कारण इसमें मिलिटरिज्म आ गया। इससे लगता है कि सेना, सैन्यवाद हमारे दर्शन का ही हिस्सा है, जबकि हम बंकर सोशलिज्म नहीं चाहते। हम खंदकों और खाइयों वाला समाजवाद नहीं चाहते। उस समय वे विचारों से गांधी के बहुत करीब हो गए थे। अभी भी हमारे यहां लोग मानते हैं कि मार्क्सवाद का मतलब रेड आर्मी, हथियार और जेहाद और नारेबाजी है। मेरा मानना है कि सबसे अच्छी रचना वही होती है, जो सबसे धीमी आवाज में अपने समय की किसी भी यातना या पीड़ा को व्यक्त करती है।

गांधी और बुद्ध आपको बहुत करीब लगते हैं। आपकी चर्चित कहानी है 'मोहनदास'। यह एक आदमी की पहचान या अस्मिता छीन लिए जाने की कहानी है। इसके मुख्य पात्र का नाम मोहनदास क्या गांधी जी के प्रभाव के कारण है?

देखिए प्रभाव तो मार्क्स का भी है। लेकिन मैं इनडॉक्ट्रिनेशन के खिलाफ हूं। मोहनदास नाम मैंने जानबूझकर रखा था। मोहनदास ही क्यों, उसके घर के हर सदस्य के नाम देखिए काबा, पुतली देवदास सब गांधी परिवार के नाम हैं। यह एक डिवाइस है यथार्थ को व्यक्त करने की। इसके पीछे लॉजिक यह था कि गांधी अंतिम आदमी की बात करते थे। गांधीजी की लड़ाई औपनिवेशिक दासता से राजनीतिक मुक्ति की ही लड़ाई नहीं थी। उनके आर्थिक दृष्टिकोण भी थे। औद्योगीकरण के जवाब में कुटीर उद्योगों की तरफ उनका ध्यान था। दूसरी तरफ वे मनुष्य को गांव के साथ-साथ स्वावलंबी बनाना चाहते थे। वे हर स्तर पर स्वाधीनता चाहते थे। छोटी से छोटी इकाई यानी परिवार, फिर गांव, फिर देश, सब की स्वाधीनता चाहते थे। उनका मशहूर कथन है कि जो कदम आप उठाते हो क्या वह अंतिम आदमी के आंसू को पोछता है। मोहनदास की जो कहानी है वह सत्य घटना पर आधारित है। और कहानी के बाहर जो असली मोहनदास है, उसे अभी तक न्याय नहीं मिल पाया है। तो गांधी के बहाने मैं यह कहना चाहता था कि जो लोकतंत्र है, वह असफल हो चुका है। लोग कहते हैं कि समाजवाद असफल हो चुका है, मैं कहता हूं कि समाजवाद और पूंजीवादी लोकतंत्र दोनों औद्योगीकरण के ही गर्भ से पैदा हुए थे, और दोनों ही असफल हो चुके हैं। डेमोक्रेसी क्लेप्टोक्रेसी में बदल चुकी है और कोई भी नागरिक जो सत्ता से नहीं जुड़ा है, और अपराधी नहीं है, वह मोहनदास है। मैं खुद को मोहनदास मानता हूं। और मोहनदास की लोकप्रियता का कारण भी यही है कि आम आदमी जो सत्ताहीन है, वह खुद को मोहनदास से आइडेंटिफाई कर पाता है। आज एक बड़ा अधिकारी, मंत्री हमारी पहचान, हमारी विचारधारा तक छीन ले जाता है। अगर वह कह दे कि उदय प्रकाश सांप्रदायिक हैं तो हमारा बौद्धिक समाज भी वही दुहराने लगेगा। सत्ता के सामने हमारे बौद्धिक समुदाय ने पूरी तरह सरेंडर कर दिया है।

Friday, October 29, 2010

कहेउ नामवर सुनहु सुजाना

उपन्यास 'उत्तर वनवास' पर
वरिष्ठ आलोचक डॉ. नामवर सिंह की यह टिप्पणी
पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा' के
29 सितंबर 2010 के अंक में
'सबद निरंतर' कॉलम में प्रकाशित हुई है।

नए ढांचे का उपन्यास
नामवर सिंह

अरुण आदित्य युवा कवि हैं। अब तक वे कविता के लिए ही जाने जाते रहे हैं। उत्तर वनवास उनका पहला उपन्यास है। मैं एक सांस में इस उपन्यास को पढ़ गया। लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों का यह उपन्यास इतना बांधे हुए था। बार-बार श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी की याद आ रही थी। उपन्यास में व्यंग्य का सटीक प्रयोग हुआ है। कोई वाक्य ऐसा नहीं है, जिस पर अवध की विशिष्ट संस्कृति की छाप न हो। और सबसे खास पक्ष है इसका विन्यास। विषय-वस्तु का विस्तार आपातकाल से लेकर रामजन्मभूमि विवाद और आज की राजनीति तक है। इस पूरे काल को समेटता यह उपन्यास गांव से निकले हुए एक आदमी रामचंद्र रामायणी को केंद्र में रखकर लिखा गया है।
उपन्यास दस अध्यायों में बंटा है। हर अध्याय का एक शीर्षक दिया है और सारे ही शीर्षक बड़े दिलचस्प हैं। पहले अध्याय का शीर्षक है- 'तीन झोपडिय़ां बनाम तेरह सौ डॉलर की कलाकृति।' दूसरे अध्याय का शीर्षक भी बहुत दिलचस्प है- 'अंडे का फूटना और बछड़े का होंकडऩा'। अवधी की छौंक यहां भी है। पूरी भाषा में एक तंज है। शायद ही कोई वाक्य हो जिसमें भाषा का खेल न हो। शायद यह अवध की अपनी खूबी है।
एक तो रामचंद्र थे त्रेता युग वाले, दूसरे इनके रामचंद्र हैं। वैसे तो रामचंद्र नाम बहुत मिलते हैं पर ये रामायणी हैंं। बहुत अच्छे वक्ता, राम-कथा कहने वाले। तुलसीदास के रामचरित मानस की चौपाइयों का प्रयोग गांव के लोग कदम-कदम पर करते हैं। रामचरित मानस उनके मुहावरे में शामिल है। इस उपन्यास में भी तुलसी की चौपाइयों और अर्धालियों का सटीक प्रयोग हुआ है।
उपन्यास शुरू होता है कैफी आजमी की मशहूर नज्म से,
'पांव सरयू में अभी राम ने धोए भी थे
कि नजर आए उन्हें खून के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फजा आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा वनवास मुझे'
मैं खास तौर पर लेखक की राजनीतिक परिपक्वता का जिक्र करना चाहूंगा। हिंदूवादी राजनीतिक पार्टी, जिसका नारा था कि मंदिर वहीं बनाएंगे, उसे लेखक ने नाम दिया है राष्ट्रवादी पार्टी। रामचंद्र रामायणी उसी पार्टी के नेता हैं, लेकिन उन्हें गर्व से कहो हम हिंदू हैं, जैसे नारों पर आपत्ति है। इस पर लंबी बहस है इस उपन्यास में। रामचंद्र कहते हैं कि हिंदू शब्द तो हमारे लिए अपमानजनक है। यह शब्द तो विदेशियों का दिया हुआ है। हम अपने देश को हिंद नहीं भारत कहते हैं। अगर हम अपने को हिंदू के बजाय भारतीय के रूप में पहचानें तो इस पहचान के नीचे मुसलमान भी आ जाएंगे, ईसाई भी आएंगे और जो भी भारत में रहते हैं, सभी आएंगे। स्वामी रामचंद्र रामायणी उस राष्ट्रवादी पार्र्टी में बहुत ऊंचे पद पर हैं, लेकिन पार्टी से उनका यह मतभेद शुरू से है और अंत तक रहता है।
जहां तक उपन्यास की अंतर्वस्तु की सवाल है, इसकी कथा की शुरुआत आपातकाल से होती है। मुझे नहीं लगता कि आपातकाल पर हिंदी में कोई महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा गया है। भाषा की बानगी के तौर पर उपन्यास का एक अंश देखिए :
'रामचंद्र की हंसी अपने को गलत समझ लिए जाने से शर्मिंदा हो गई। वह शर्म से संकुचित हुई तो उसमें छिपे व्यंग्य को तकलीफ हुई और वह चुपचाप निकल भागा। व्यंग्य को विस्थापित होते देख हंसी उदास हो गई।
'उदास मत हो बहन।' हंसी को ताज्जुब हुआ कि यहां उसे ढाढ़स बंधाने वाला कौन गया। ढाढ़स बंधानेवाली का स्वर मिश्री-सा था, 'विस्थापन का दर्द मैं समझती हूं बहन। पर आपका व्यंग्य तो विस्थापित होकर भी किस्मत वाला है।'
हंसी ने आगंतुक की ओर कुछ इस तरह से देखा, कि जैसे उसका देखना यह पूछ रहा हो कि आप कौन हैं और मेरे व्यंग्य के बारे में क्या जानती हैं?
'मैं नीति हूं, जिसे राजनीति ने बेदखल कर रखा है। दर-दर भटक रही हूं, कहीं ठौर नहीं मिलता। जहां जाती हूं राजनीति पहले ही पसरी हुई मिलती है। पर आपका व्यंग्य तो वाकई भाग्यशाली है। उसे मैंने जबलपुर की ओर जाते देखा है।'
'जबलपुर?'
'हां, वहां हरिशंकर परसाई नाम का लेखक रहता है। उसकी कलम बहुत बड़ी है। दुनिया भर का व्यंग्य उसमें समा सकता है। पर मैं कहां जाऊं? क्या मेरे लिए कोई ठौर नहीं?'
'एक दिन इन्हीं कंधों पर मिलेगा तुम्हें ठौर। ' रामचंद्र की हंसी ने रामचंद्र के कंधों की ओर इशारा करते हुए कहा, 'आज जरूर इन पर राजनीति का हाथ है, लेकिन एक दिन राजनीति के लिए ये कंधे असहज हो जाएंगे और तुम इन पर निवास करोगी। रामचंद्र को मैं बचपन से जानती हूं इसलिए कह सकती हूं कि ये कंधे तुम्हारे लिए ही बने हुए हैं।'
इस अंश में हरिशंकर परसाई आते हैं। इसी तरह इस पूरी प्रक्रिया में लेखक ने साहित्यिक परिवेश को भी समेटा है। इसमें अनेक कवि उपस्थित हैं। अनेक कविताएं उद्धृत की हैं और बिलकुल सटीक जहां करना चाहिए, वहीं उनका उपयोग हुआ है। उपन्यास में पीपल का एक पेड़ है, जिसे कथानायक रामचंद्र अपना बोधिवृक्ष कहते हैं, जब उन्हें कोई दुविधा होती है तो वहीं जाकर उसके नीचे बैठ जाते हैं। या फिर एक क्रांतिकारी कवि सत्यबोध के पास जाते हैं। सत्यबोध कम्युनिस्ट हैं। इस बात को वे छिपाते नहीं और उनसे स्वामी रामचंद्र की खूब बहस होती है। स्वामी जी का जीवन इस बात का गवाह है कि ऊपर से संत महात्मा दिखाते हुए लोगों के मन में प्रेम से जुड़ी संवेदनाएं और मानवीय कमजोरियां भी होती हैं।
'उत्तर वनवास' इस दौर में लिखे गए उपन्यासों में नए ढांचे, नई कथादृष्टि वाली एक उल्लेखनीय कृति है।
........................

उपन्यास : उत्तर वनवास
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, एससीएफ- 267
सेक्टर-16, पंचकूला-134113 (हरियाणा)
मोबाईल - 09417267004
मूल्य : 200 रुपए

Friday, September 3, 2010

शमशेरियत : कुछ बातें, टूटी हुई, बिखरी हुई



बात
बोलेगी हम नहीं !


- अरुण आदित्य

ज्यादातर लोग (अब तक के अभ्यासवश) अपने समाधान पाने के लिए सुगम से सुगमतर रास्तों की ओर उन्मुख होते हैं, पर हमारी आस्था दुर्गम के पक्ष में होनी चाहिए, क्योंकि प्राणवंत चीजें इसी तर्ज पर चलती हैं।'
- राइनेर मारिया रिल्के


कई
लोगों को शिकायत है कि शमशेर सहज दिखते-दिखते अचानक दुरूह हो जाते हैं। इसी तरह की शिकायत मुक्तिबोध को लेकर भी की जाती है। यह दुरूह होना क्या है? एक टेढ़ी-मेढ़ी, ऊबडख़ाबड़ पगडंडी किसी को दुरूह लग सकती है, जबकि एक सीधी सपाट पक्की सड़क सरल दिखती है। पर जरा इनके सृजन के उत्स देखिए। पगडंडियां लोगों की आवाजाही से सहज ही बन जाती हैं, जबकि पक्की सड़कें बनानी पड़ती हैं। पगडंडी का टेढ़ामेढ़ापन, ऊबडख़ाबड़पन उसकी दुरूहता नहीं बल्कि सहजता है, और इसी में उसका सहज सौंदर्य है, जबकि पक्की सड़क की सीधी-समतल सरलता कृत्रिम है। और सिर्फ सौंदर्य की ही बात नहीं है, गंतव्य का भी सवाल है। सड़क जहां आपको छोड़ देती है, पगडंडी वहां से आगे ले जाती है। पगडंडियां जिन दुर्गम जगहों तक ले जाती हैं, पक्की सड़क से वहां पहुंच ही नहीं सकते। शमशेर का अपराध यह है कि ऐसी जगहों की तलाश में वे पक्की सड़क पर चलते हुए अचानक किसी पगडंडी पर मुड़ जाते हैं। अगर आप सरपट सड़क के अभ्यस्त हैं तो इसमें कवि का क्या कुसूर? जब तक हमारी आस्था दुर्गम के पक्ष में नहीं होगी हमें शमशेर या मुक्तिबोध के सहज सृजन की पगडंडियां दुरूह ही लगती रहेंगी।
................

जब तुम तन्हाई में नाउम्मीद हो जाओ
तो यार के साए तले खुरशीद हो जाओ

फारसी के प्रसिद्ध कवि मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी के इस शेर में शमशेर के जीवन, दर्शन और सृजन को निबद्ध किया जा सकता है। यार के साए तले आमतौर पर लोग शीतल-मंद बयार हो जाना चाहते हैं, लेकिन शमशेर का प्यार उन्हें खुरशीद यानी सूरज जैसा ओज, तेज, तपिश और रोशनी देता है। सूरज, जिसकी किरणों के भास्वित कण उनकी तनहाई और तंगहाली के अंधेरों को भी खुशी से दिपदिपा देते हैं-
खुश हूं कि अकेला हूं,
कोई पास नहीं है-

बजुज एक सुराही के

बजुज एक चटाई के

बजुज एक जरा से आकाश के

जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर

और सिर्फ अभाव में खुश रहने का ही सवाल नहीं है, उससे भी बड़ा सवाल है प्रेम की ताकत पर भरोसा। मुहब्बत में फना हो जाने के किस्से तो तमाम हैं, लेकिन तन्हाई और नाउम्मीदी के बीच जिसमें यार के साए तले खुरशीद हो जाने का आत्मविश्वास हो वही कह सकता है-
जब करूँगा प्रेम /पिघल उठेंगे युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर । किंतु मैं हूँ मौन आज
शमशेर के यहां बोलने से ज्यादा मौन का महत्व है। और जब वे मौन न हों तो भी मितकथन में यकीन करते हैं। तुलसीदास के अरथ अमित अति आखर थोड़े की तर्ज पर। उन्हें पता है कि अंतराल भी एक अभिव्यक्ति है। इसीलिए वे शब्दों और वाक्यों के बीच अंतराल छोड़ देते हैं। और जो चीज छूट गयी है, या छोड़ दी गई है, उसका भेद वक्ता को नहीं, बात को ही खोलना है, भेद खोलेगी बात ही। पर इस भेद तक पहुंचने के लिए पाठक को बात की तह तक जाना होगा। इस तरह पाठक को भी शमशेर अपने खेल में शामिल कर लेते हैं कि आओ इस कविता तक पहुंच पाना है तो तुम भी थोड़ी मशक्कत करो।
................

बात बोलेगी हम नहीं। यह सिर्फ चार शब्द नहीं हैं, कविता का एक दर्शन है। पर कैसे बनती है वह बात, जो वाकई बोलती है। शमशेर इसका खुलासा नहीं करते, उनकी कविता जरूर इसकी तस्दीक करती है। लेकिन इसके कुछ सूत्र रिल्के के एक गद्यांश में मिलते हैं, ''कविता मात्र आवेग नहीं, अनुभव है। एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात में खिलने की मुद्रा। अज्ञात प्रदेशों और अनजानी सड़कों को पलट कर देखने का आस्वाद। औचक के मिलन। कब से प्रस्तावित विछोह। बचपन के निपट अजाने दिनों के अबूझे रहस्य। .... नहीं इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं। तुम्हें और भी कुछ चाहिए- इस स्मृति संपदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनंत धीरज। ... जानते हुए कि इस बार जब वे लौटकर आएंगी तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, भाव और मुद्रा में घुल चुकी अनाम धपधप होगी। जो अचानक अनूठे शब्दों में फूटकर किसी भी घड़ी बोल देना चाहेगी अपने आप।'' हां इसी तरह बिल्कुल इसी तरह आती है शमशेर की कविता। जिसके बारे में वे कह सकते हैं कि बात बोलेगी हम नहीं। यह कवि की गर्वोक्ति नहीं, विनम्रता है कि उसके पास जो कुछ है सब कविता की गठरी में बांध दिया है, उसके पास बताने या दिखाने को और कुछ नहीं है।
................

शमशेर की कविता मुझे अकसर किसी वेगवती नदी की धार जैसी लगती है। इसके किनारे बैठकर सुनो, कल-कल का अनूठा संगीत सुनाई देगा। इसमें उतर जाइए, जोरदार थपेड़े आपके मन की परतों को हिलोर देंगे। इसकी लहरों में जो लय है, वही उस कविता की लय है। और जिस तरह बेगवती नदी के प्रवाह में जगह-जगह भंवर बन जाते हैं, जिनमें आकर लहरें बिला जाती हैं, उसी तरह शमशेर की कविता में भी अनेक भंवर हैं जहां उनकी लय, क्रम सब भंग हो जाती है। इस भंवर को समझे बिना शमशेर की कविता को नहीं समझा जा सकता है।
पर इस संगीत और मधुरता और लय और लयभंग को ही शमशेर की कविता समझ लेना उस वेगवती नदी की सामथ्र्य के प्रति असम्मान होगा। इस संगीतमयी धार में इतना आवेग है कि यह यथास्थिति के कगारों को निरंतर काटती चलती है।
................

अनेक बड़े लेखकों को पढ़ते हुए बार बार यह प्रश्न सामने आता है कि कला और अंतर्द्वन्द्व के बीच क्या कोई अन्योन्याश्रित संबंध होता है। गहरी रचनाएं गहरे अंतर्द्वन्द्व से जन्म लेती हैं या फिर कला के शिखर की ओर चढ़ते हुए कलाकार के अंतर्द्वन्द्व और गहरे होते जाते हैं। शमशेर के अंतद्र्वंद्व इतने गहरे हैं कि कई बार पाठक को भ्रम भी हो सकता है कि असली शमशेर कहां हैं। एक जगह वे कहते हैं-
मैं समाज तो नहीं; मैं कुल जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल /एक कण।
पर दूसरी जगह वही शमशेर काल से होड़ लेते हुए कहते हैं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियां, कम्यून, कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।

अब आप यह मत कहिए कि इन दोनों में से असली शमशेर किस 'मैं' में रहते हैं। दरअसल दोनों 'मैं' के बीच जो अंतर्द्वन्द्व है, शमशेर उसी का नाम है।
................

शमशेर ने तुलसी की तरह कोई विनय पत्रिका नहीं लिखी, लेकिन उनकी अनेक रचनाएं पढ़ते हुए तुलसी का विनत भाव याद आता है-
कुशल कलाविद् हूं न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूं प्यार

केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूं प्यार।

शमशेरियत देखिए कि एक पंक्ति में वे अपनी दीनता का विनम्र बयान कर रहे हैं तो अगली पंक्ति प्यार का उद्घोष करने लगती है। उनके 'दैन्यम्' के साथ 'पलायनम्' की तुक नहीं बनती है। दरअसल उनका 'दैन्यम्' भी 'कोअहम्' को जानने का एक आलंब है।
कण-समूह में हूँ मैं केवल एक कण ।
-कौन सहारा ! मेरा कौन सहारा !
अपने को कण समूह का महज एक कण समझने वाले शमशेर को यह भान भी है कि वह कण कोई साधारण कण नहीं है। वह जीवित कण-किरण है:
कन किरन जीवित, एक, बस।
एक पल की ओट में है कुल जहान।

यह भान ही उनके दैन्य भाव को तुलसी से अलग करता है। जब वे 'मेरा कौन सहाराÓ जैसा सवाल करते हैं तो भी उन्हें यह पता होता है कि कोई ईश्वर उन्हें सहारा देने वाला नहीं है। तुलसी की तरह वे अपने दैन्य का बखान तो करते हैं, लेकिन अपनी दीनता के बरक्स किसी सर्वशक्तिमान भगवान को खड़ा नहीं करते। वे तो उसे अपने से भी ज्यादा निरीह समझते हैं:
तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम

और क्या दिया
मुझे
भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह !

................

अपनी विशिष्ट संवेदना, स्पष्ट सरोकार के अलावा शमशेर शमशेर का महत्व इसलिए भी है कि वे भाषा को कुछ नए शब्द, नई अभिव्यक्तियां नए बिम्ब देते हैं। बेठोस जैसा शब्द, उनसे पहले मुझे कहीं और देखने को नहीं मिलता। एक नीला आईना बेठोस-सी यह चांदनी और अंदर चल रहा हूं मैं। उसी के महातल के मौन में। चांदनी के लिए बेठोस नीला आईना का बिम्ब शमशेर ही सोच सकते हैं। उनके बिम्ब-विधान में अनूठेपन के एक से एक उदाहरण हैं। महुए की लाल लाल कोपलों के लिए वे सुर्ख दिए का बिम्ब लाते हैं-
यह अजब पेड़ है जिसमें कि जनाब
इस कदर जल्द कली फूटती है
कि अभी कल देखो
मार पतझड़ ही पतझड़ था इसके नीचे
और अब

सुर्ख दिये, सुर्ख दियों का झुरमुट।

सुर्ख दियों का झुरमुट आशा की लौ का झुरमुट है। शमशेर की कविता में जहां नैराश्य के घने अंधेरे हैं, वहीं इस तरह आशा के तमाम झुरमुट भी हैं-
कुहास्पष्ट हृदय- भार, आज हीन
हीनभाव, हीनभाव

मध्यवर्ग का समाज, दीन

उधर पथ-प्रदर्शिका मशाल
कमकर की
मुट्ठी में - किन्तु उधर :
आगे आगे जलती चलती है
लाल-लाल
सुर्ख दिए या लाल मशाल के बिम्ब सायास नहीं हैं। यह उनकी अपनी जीवनदृष्टि से उपजे बिम्ब हैं।
................

शमशेर प्रकृति और सौंदर्य के अनन्यतम कवि हैं। एजरा पाउंड और टीएस इलियट से प्रभावित रहे शमशेर के कलागत आग्रह अत्यंत प्रबल हैं, परंतु वे कलावादी नहीं हैं। उनकी कविता में प्रकृति और सौंदर्य से जुड़े बिम्बों की अद्भुत छटा है, पर कभी भी उनका ध्यान अपने सरोकार से नहीं हटा है। उनकी एक चर्चित कविता है 'सूर्योदय'। इस कविता में प्रात-नभ के लिए वे बिम्बों की झड़ी लगा देते हैं- जैसे बहुत नीला शंख, जैसे राख से लीपा हुआ चौका, जैसे थोड़े से लाल केसर से धुली हुई काली सिल, जैसे किसी ने स्लेट पर लाल खडिय़ा मल दी हो, जैसे कि नीले जल में कोई गौरवर्णी देह झिलमिला रही हो। इतने सारे बिम्बों से एक खूबसूरत जादुई सौंदर्य रचने के बाद कविता की अंतिम पंक्तियों में वे यथार्थ का झटका देते हैं-
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है

इस सूर्योदय के साथ ही वे हमें उषा-सौंदर्य के उस जादू से बाहर यथार्थ की रोशनी में ला खड़ा करते हैं कि जिसमें हम समय को साफ-साफ देख सकें। जादू रचने और तोडऩे का खेल शमशेर की कई कविताओं में देखा जा सकता है। शमशेरियत की खूसूसियत ही यही है कि इतने कला-आग्रह के बावजूद उनके सरोकार कभी कला के किले में कैद होकर नहीं रह जाते। वे कला को अंगवस्त्र की तरह नहीं अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं, ताकि काल से होड़ ले सकें। और वे ऐसा कर पाते हैं क्योंकि उनके यहां कितनी नावों में कितनी बार जैसा कोई असमंजस नहीं है। वे एक ही नाव के सवार हैं और उन्हें अपनी दिशा पता है। और इस दिशा पर कला का कोई कुहासा नहीं है-
वाम-वाम वाम दिशा
समय साम्यवादी।

................................................................................

साहित्यिक पत्रिका बया के ताज़ा अंक में प्रकाशित। संपादक: गौरीनाथ । पता - अंतिका प्रकाशन , सी- 56/ यू जीएफ -4 , शालीमार गार्डेन एक्सटेंशन -2, गाज़ियाबाद (उ प्र ) फ़ोन : 0120- ६४७५२१२

Thursday, July 8, 2010

झोपड़ी के हिस्से में किस्से


यह कविता साहित्यिक पत्रिका हंस के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है। कई मित्रों ने वहां पढ़ लिया होगा, जो न पढ़ सके हों , उनके इसे लिए इसे यहाँ फिर से प्रकाशित किया जा रहा है।

झोपड़ी के हिस्से में किस्से

पता नहीं झोपड़ी का दर्द जानने की आकांक्षा थी
या महज एक शगल
कि झोपड़ी में एक रात गुजारने को आ गया महल

झोपड़ी फूली नहीं समा रही
उमंग से भर गया है जंग लगा हैंडपंप
प्यार से रंभा रही है मरियल गाय
कदम चूम कर धन्य है उखड़ा हुआ खड़ंजा

अपनी किस्मत पर इतरा रही है टुटही थाली
गर्व से तन गई है झिलंगा खटिया
अभिमान से फूल गई है कथरी
अति उत्साह में कुछ ज्यादा ही तेल पी रही है ढिबरी

आग से ठिठोली कर रहा है चूल्हा
उम्मीद से नाचने लगी है चक्की

ऐसे खुशगवार माहौल में पुलकित महल ने
हुलसित झोपड़ी से पूछा, बताओ तुम्हें कोई दुख तो नहीं
झोपड़ी को लगा कि उसके दुख से बड़ा है आज का यह सुख
और उसने यह भी सुना था कि महल के आने से
अपने आप ही दूर हो जाते हैं सब दुख

महल ने फिर पूछा
फिर-फिर पूछा, इस राज में कोई तकलीफ तो नहीं तुम्हें
वह कहना चाहती थी कि कई दिनों से ठंडा पड़ा है चूल्हा
पर चूल्हे की उमंग देख उसे लगा कि ऐसा कहना
रंग में भंग करने जैसा अपराध होगा


सवाल पूछते-पूछते थक गया महल
थके हुए महल को गर्व से तनी खटिया
और मान से फूली कथरी पर मिला चेंज
और रोज से ज्यादा आई नींद
इधर झोपड़ी जागती रही रात भर
कि उसके सोने से कहीं सो न जाए उम्मीद

सुबह महल झोपड़ी से निकला
और सबके देखते ही देखते खबर बन गया

झोपड़ी के हिस्से में अब सिर्फ किस्से हैं
जिन्हें वह आने-जाने वालों को रोक-रोककर सुनाती है
कि किस तरह महल ने यहां गुजारी थी एक रात

पर जब कोई नहीं सुनता उसकी बात
तो खड़ंजा हो जाता है उदास, हैंडपंप निराश
ढीली पड़ जाती है खटिया, लस्त हो जाती है कथरी
मद्धिम पड़ जाती है ढिबरी की लौ
सन्न हो जाते हैं चूल्हा-चक्की
और सब मिलकर झोपड़ी से कहते हैं
झोपडिय़ा दादी, सुनाओ जरा वह किस्सा
कि किस तरह महल ने गुजारी थी यहां एक रात।
- अरुण आदित्य

इलस्ट्रेशन : एस टी गिल, http://www.tocal.com/homestead/vandv/vv18.htm से साभार

Friday, June 25, 2010

देखिये, नामवर सिंह क्या कहते हैं?


शनिवार 26 जून की सुबह 7 :50 बजे डी डी नेशनल चैनल पर प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह और कवि मदन कश्यप उपन्यास उत्तर वनवास पर चर्चा करेंगे। यह दूसरी बार है, जब नामवर जी उत्तर वनवास पर कुछ कहेंगे इससे पहले इसके लोकार्पण के अवसर पर उन्होंने कहा था कि 'उत्तर-वनवास आभास देता है एक पौराणिक नाम और कथा का, परंतु वास्तव में आज के यथार्थ की सच्ची कहानी है।' देखिये इस बार क्या कहते हैं।
कार्यक्रम विवरण
शनिवार 26 जून, सुबह 7 :50 बजे
डी डी नेशनल चैनल
कार्यक्रम : आज सवेरे (शब्द निरंतर)

Saturday, June 5, 2010

रमकलिया की जात न पूछो



कई दिनों से जाति के नाम पर विमर्श चल रहा है। इसी सन्दर्भ में अचानक ही अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई। ९० के दशक में इंदौर के साहित्यिक मित्रों के बीच यह काफी लोकप्रिय हुआ करती थी और गोष्ठियों में अक्सर इसे सुनाने की फरमाइश होती थी। यह मेरे पहले कविता संग्रह ' रोज ही होता था यह सब ' में भी शामिल है। जाति को लेकर चल रहे समकालीन विमर्श में यह कविता कुछ योगदान कर सकती है या नहीं, यह तो प्रबुद्ध पाठक ही तय करेंगे। पेंटिंग सुपरिचित युवा चित्रकार-कथाकार रवीन्द्र व्यास की है।


रमकलिया की जात पूछो


रमकलिया की जात न पूछो
कहाँ गुजारी रात न पूछो

नाक पोछती, रोती गाती
धान रोपती, खेत निराती
भरी तगारी लेकर सिर पर
दो-दो मंजिल तक चढ़ जाती
श्याम सलोनी रामकली से
कोठे की रमकलिया बाई
बन जाने की बात न पूछो।

बोल चाल में सीधे सादे
लेकिन मन में स्याह इरादे
खरे-खरों की बातें खोटी
अंधियारे में देकर रोटी
आटे जैसा वक्ष गूंथने-
वाले किसके हाथ न पूछो

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
हों या न हों भाई-भाई
रमकलिया पर सब की आँखें
सभी एक बरगद की शाखें
इस बरगद की किस शाखा में
कितने-कितने पात न पूछो

रोज-रोज मरती, जी जाती
आंसू पीकर भी मुस्काती
रमकलिया के बदले तेवर
नई साड़ियाँ महंगे जेवर
बेचारी क्या खोकर पाई
यह महँगी सौगात न पूछो


पूछ लिया तो फंस जाओगे
लिप्त स्वयं को भी पाओगे
रमकलिया के हर किस्से में
उसके दुःख के हर हिस्से में
अपना भी चेहरा पाओगे
सिर नीचा कर बंद रखो मुंह
खुल जायेगी बात न पूछो

रमकलिया तो परंपरा है
उसकी कैसी जात-पांत जी
परंपरा में गाड़े रहिये
अपने तो नाख़ून दांत जी
सोने के हैं दांत आपके
उसकी तो औकात न पूछो।

रमकलिया की जात न पूछो
कहाँ गुजारी रात पूछो

- अरुण आदित्य






Friday, March 5, 2010

तर्पण और उत्तर वनवास पर चर्चा


तर्पण और उत्तर वनवास पर चर्चा

स्व. द्वारिका प्रसाद सक्सेना स्मृति न्यास के तत्वावधान में

शिवमूर्ति के उपन्यास तर्पण
और अरुण आदित्य
के उपन्यास उत्तर वनवास
पर आयोजित विचार गोष्ठी में
आप सादर आमंत्रित हैं।

दिनांक- रविवार, 7 मार्च, 2010
समय - अपराह्न 2 बजे
स्थान- इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट स्टडीज
ए-8 बी, सेक्टर-62, नोएडा



आमंत्रित अतिथिगण

अध्यक्षता- राजेंद्र यादव

मुख्य अतिथि- संजीव, चित्रा मुद्गल, भारत भारद्वाज

विशिष्ट अतिथि - वल्लभ डोभाल, मैत्रेयी पुष्पा, हरि नारायण, अपूर्व जोशी, अशोक माहेश्वरी, देश निर्मोही

प्रमुख वक्ता- महेश दर्पण, मदन कश्यप, विज्ञानव्रत, सुषमा जुगरान, तजेंद्र लूथरा, रमेश प्रजाप्रति, देवेंद्र कुमार देवेश। संचालन- वीरेंद्र आजम।