विचार मर चुका है। विचार मर नहीं सकता है। विचार जिंदाबाद। विचार अमर रहे। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में जब विचार(धारा) का अंत होने और न होने को लेकर इस तरह का विमर्श जोरों पर था, उसी दौरान इस कविता का जन्म हुआ था। उन दिनों विचार के साथ ही कविता के अंत की भी उद्घोषणाएं की जा रही थीं। यह दीगर बात है कि नई शताब्दी में भी न विचार मरा है न कविता, पर यह जरूर है कि दोनों के जिंदा रहने की शर्तें लगातार विकट होती गई हैं। यह कविता दस साल पूर्व मध्य प्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका साक्षात्कार के जनवरी 1998 के अंक में छपी थी।
और एक छोटी सी सूचना : इसी कविता के साथ कुछ समय के लिए ब्लागिंग से अवकाश ले रहा हूं। सात साल से एक उपन्यास अटका पड़ा है। प्रकाशक का दबाव है कि अगले दो तीन महीने में स्क्रिप्ट दे दूं। मित्रों का भी यही कहना है कि इसे ठिकाने लगाओ, तभी कुछ नया लिख पाओगे। तो दोस्तो, उपन्यास को ठिकाने लगाकर जैसे ही कुछ नया लिखा, हाजिर हो जाऊंगा। तब तक के लिए यह आग आपके पास छोड़कर जा रहा हूं।
इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं लोग
कुछ दिनों पहले मिला मुझे एक विचार
आग का एक सुर्ख गोला
सुबह के सूरज की तरह दहकता हुआ बिलकुल लाल
और तब से इसे दिल में छुपाए घूम रहा हूं
चोरों, बटमारों, झूठे यारों और दुनियादारों से बचाता हुआ
सोचता हूं कि सबके सब इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं
उस दोस्त का क्या करूं
जो इसे गुलाब का फूल समझ
अपनी प्रेमिका के जूड़े में खोंस देना चाहता है
एक चटोरी लड़की इसे लाल टमाटर समझ
दोस्ती के एवज में मांग बैठी है
वह इसकी चटनी बना मूंग के भजिए के साथ खाना चाहती है
माननीय नगर सेठ इसे मूंगा समझ
अपनी अंगूठी में जडऩा चाहते हैं
ज्योतिषियों के अनुसार मूंगा ही बचा सकता है उनका भविष्य
राजा को भी जरूरत आ पड़ी है इसी चीज की
मचल गया है छोटा राजकुमार इसे लाल गेंद समझ
लिहाजा, राजा के सिपाही मेरी तलाश में हैं
और भी कई लोग अलग-अलग कारणों से
मुझसे छीन लेना चाहते हैं यह आग
हिरन की कस्तूरी सरीखी हो गई है यह चीज
कि इसके लिए कत्ल तक किया जा सकता हूं मैं
फिर इतनी खतरनाक चीज को
आखिर किसलिए दिल में छुपाए घूम रहा हूं मैं
दरअसल मैं इसे
उस बुढिय़ा के ठंडे चूल्हे में डालना चाहता हूं
जो सारी दुनिया के लिए भात का अदहन चढ़ाए बैठी है
और सदियों से कर रही है इसी आग का इंतजार।
- अरुण आदित्य
(साक्षात्कार, जनवरी 1998 में प्रकाशित)