Friday, September 3, 2010

शमशेरियत : कुछ बातें, टूटी हुई, बिखरी हुई



बात
बोलेगी हम नहीं !


- अरुण आदित्य

ज्यादातर लोग (अब तक के अभ्यासवश) अपने समाधान पाने के लिए सुगम से सुगमतर रास्तों की ओर उन्मुख होते हैं, पर हमारी आस्था दुर्गम के पक्ष में होनी चाहिए, क्योंकि प्राणवंत चीजें इसी तर्ज पर चलती हैं।'
- राइनेर मारिया रिल्के


कई
लोगों को शिकायत है कि शमशेर सहज दिखते-दिखते अचानक दुरूह हो जाते हैं। इसी तरह की शिकायत मुक्तिबोध को लेकर भी की जाती है। यह दुरूह होना क्या है? एक टेढ़ी-मेढ़ी, ऊबडख़ाबड़ पगडंडी किसी को दुरूह लग सकती है, जबकि एक सीधी सपाट पक्की सड़क सरल दिखती है। पर जरा इनके सृजन के उत्स देखिए। पगडंडियां लोगों की आवाजाही से सहज ही बन जाती हैं, जबकि पक्की सड़कें बनानी पड़ती हैं। पगडंडी का टेढ़ामेढ़ापन, ऊबडख़ाबड़पन उसकी दुरूहता नहीं बल्कि सहजता है, और इसी में उसका सहज सौंदर्य है, जबकि पक्की सड़क की सीधी-समतल सरलता कृत्रिम है। और सिर्फ सौंदर्य की ही बात नहीं है, गंतव्य का भी सवाल है। सड़क जहां आपको छोड़ देती है, पगडंडी वहां से आगे ले जाती है। पगडंडियां जिन दुर्गम जगहों तक ले जाती हैं, पक्की सड़क से वहां पहुंच ही नहीं सकते। शमशेर का अपराध यह है कि ऐसी जगहों की तलाश में वे पक्की सड़क पर चलते हुए अचानक किसी पगडंडी पर मुड़ जाते हैं। अगर आप सरपट सड़क के अभ्यस्त हैं तो इसमें कवि का क्या कुसूर? जब तक हमारी आस्था दुर्गम के पक्ष में नहीं होगी हमें शमशेर या मुक्तिबोध के सहज सृजन की पगडंडियां दुरूह ही लगती रहेंगी।
................

जब तुम तन्हाई में नाउम्मीद हो जाओ
तो यार के साए तले खुरशीद हो जाओ

फारसी के प्रसिद्ध कवि मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी के इस शेर में शमशेर के जीवन, दर्शन और सृजन को निबद्ध किया जा सकता है। यार के साए तले आमतौर पर लोग शीतल-मंद बयार हो जाना चाहते हैं, लेकिन शमशेर का प्यार उन्हें खुरशीद यानी सूरज जैसा ओज, तेज, तपिश और रोशनी देता है। सूरज, जिसकी किरणों के भास्वित कण उनकी तनहाई और तंगहाली के अंधेरों को भी खुशी से दिपदिपा देते हैं-
खुश हूं कि अकेला हूं,
कोई पास नहीं है-

बजुज एक सुराही के

बजुज एक चटाई के

बजुज एक जरा से आकाश के

जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर

और सिर्फ अभाव में खुश रहने का ही सवाल नहीं है, उससे भी बड़ा सवाल है प्रेम की ताकत पर भरोसा। मुहब्बत में फना हो जाने के किस्से तो तमाम हैं, लेकिन तन्हाई और नाउम्मीदी के बीच जिसमें यार के साए तले खुरशीद हो जाने का आत्मविश्वास हो वही कह सकता है-
जब करूँगा प्रेम /पिघल उठेंगे युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर । किंतु मैं हूँ मौन आज
शमशेर के यहां बोलने से ज्यादा मौन का महत्व है। और जब वे मौन न हों तो भी मितकथन में यकीन करते हैं। तुलसीदास के अरथ अमित अति आखर थोड़े की तर्ज पर। उन्हें पता है कि अंतराल भी एक अभिव्यक्ति है। इसीलिए वे शब्दों और वाक्यों के बीच अंतराल छोड़ देते हैं। और जो चीज छूट गयी है, या छोड़ दी गई है, उसका भेद वक्ता को नहीं, बात को ही खोलना है, भेद खोलेगी बात ही। पर इस भेद तक पहुंचने के लिए पाठक को बात की तह तक जाना होगा। इस तरह पाठक को भी शमशेर अपने खेल में शामिल कर लेते हैं कि आओ इस कविता तक पहुंच पाना है तो तुम भी थोड़ी मशक्कत करो।
................

बात बोलेगी हम नहीं। यह सिर्फ चार शब्द नहीं हैं, कविता का एक दर्शन है। पर कैसे बनती है वह बात, जो वाकई बोलती है। शमशेर इसका खुलासा नहीं करते, उनकी कविता जरूर इसकी तस्दीक करती है। लेकिन इसके कुछ सूत्र रिल्के के एक गद्यांश में मिलते हैं, ''कविता मात्र आवेग नहीं, अनुभव है। एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात में खिलने की मुद्रा। अज्ञात प्रदेशों और अनजानी सड़कों को पलट कर देखने का आस्वाद। औचक के मिलन। कब से प्रस्तावित विछोह। बचपन के निपट अजाने दिनों के अबूझे रहस्य। .... नहीं इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं। तुम्हें और भी कुछ चाहिए- इस स्मृति संपदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनंत धीरज। ... जानते हुए कि इस बार जब वे लौटकर आएंगी तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, भाव और मुद्रा में घुल चुकी अनाम धपधप होगी। जो अचानक अनूठे शब्दों में फूटकर किसी भी घड़ी बोल देना चाहेगी अपने आप।'' हां इसी तरह बिल्कुल इसी तरह आती है शमशेर की कविता। जिसके बारे में वे कह सकते हैं कि बात बोलेगी हम नहीं। यह कवि की गर्वोक्ति नहीं, विनम्रता है कि उसके पास जो कुछ है सब कविता की गठरी में बांध दिया है, उसके पास बताने या दिखाने को और कुछ नहीं है।
................

शमशेर की कविता मुझे अकसर किसी वेगवती नदी की धार जैसी लगती है। इसके किनारे बैठकर सुनो, कल-कल का अनूठा संगीत सुनाई देगा। इसमें उतर जाइए, जोरदार थपेड़े आपके मन की परतों को हिलोर देंगे। इसकी लहरों में जो लय है, वही उस कविता की लय है। और जिस तरह बेगवती नदी के प्रवाह में जगह-जगह भंवर बन जाते हैं, जिनमें आकर लहरें बिला जाती हैं, उसी तरह शमशेर की कविता में भी अनेक भंवर हैं जहां उनकी लय, क्रम सब भंग हो जाती है। इस भंवर को समझे बिना शमशेर की कविता को नहीं समझा जा सकता है।
पर इस संगीत और मधुरता और लय और लयभंग को ही शमशेर की कविता समझ लेना उस वेगवती नदी की सामथ्र्य के प्रति असम्मान होगा। इस संगीतमयी धार में इतना आवेग है कि यह यथास्थिति के कगारों को निरंतर काटती चलती है।
................

अनेक बड़े लेखकों को पढ़ते हुए बार बार यह प्रश्न सामने आता है कि कला और अंतर्द्वन्द्व के बीच क्या कोई अन्योन्याश्रित संबंध होता है। गहरी रचनाएं गहरे अंतर्द्वन्द्व से जन्म लेती हैं या फिर कला के शिखर की ओर चढ़ते हुए कलाकार के अंतर्द्वन्द्व और गहरे होते जाते हैं। शमशेर के अंतद्र्वंद्व इतने गहरे हैं कि कई बार पाठक को भ्रम भी हो सकता है कि असली शमशेर कहां हैं। एक जगह वे कहते हैं-
मैं समाज तो नहीं; मैं कुल जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल /एक कण।
पर दूसरी जगह वही शमशेर काल से होड़ लेते हुए कहते हैं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियां, कम्यून, कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।

अब आप यह मत कहिए कि इन दोनों में से असली शमशेर किस 'मैं' में रहते हैं। दरअसल दोनों 'मैं' के बीच जो अंतर्द्वन्द्व है, शमशेर उसी का नाम है।
................

शमशेर ने तुलसी की तरह कोई विनय पत्रिका नहीं लिखी, लेकिन उनकी अनेक रचनाएं पढ़ते हुए तुलसी का विनत भाव याद आता है-
कुशल कलाविद् हूं न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूं प्यार

केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूं प्यार।

शमशेरियत देखिए कि एक पंक्ति में वे अपनी दीनता का विनम्र बयान कर रहे हैं तो अगली पंक्ति प्यार का उद्घोष करने लगती है। उनके 'दैन्यम्' के साथ 'पलायनम्' की तुक नहीं बनती है। दरअसल उनका 'दैन्यम्' भी 'कोअहम्' को जानने का एक आलंब है।
कण-समूह में हूँ मैं केवल एक कण ।
-कौन सहारा ! मेरा कौन सहारा !
अपने को कण समूह का महज एक कण समझने वाले शमशेर को यह भान भी है कि वह कण कोई साधारण कण नहीं है। वह जीवित कण-किरण है:
कन किरन जीवित, एक, बस।
एक पल की ओट में है कुल जहान।

यह भान ही उनके दैन्य भाव को तुलसी से अलग करता है। जब वे 'मेरा कौन सहाराÓ जैसा सवाल करते हैं तो भी उन्हें यह पता होता है कि कोई ईश्वर उन्हें सहारा देने वाला नहीं है। तुलसी की तरह वे अपने दैन्य का बखान तो करते हैं, लेकिन अपनी दीनता के बरक्स किसी सर्वशक्तिमान भगवान को खड़ा नहीं करते। वे तो उसे अपने से भी ज्यादा निरीह समझते हैं:
तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम

और क्या दिया
मुझे
भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह !

................

अपनी विशिष्ट संवेदना, स्पष्ट सरोकार के अलावा शमशेर शमशेर का महत्व इसलिए भी है कि वे भाषा को कुछ नए शब्द, नई अभिव्यक्तियां नए बिम्ब देते हैं। बेठोस जैसा शब्द, उनसे पहले मुझे कहीं और देखने को नहीं मिलता। एक नीला आईना बेठोस-सी यह चांदनी और अंदर चल रहा हूं मैं। उसी के महातल के मौन में। चांदनी के लिए बेठोस नीला आईना का बिम्ब शमशेर ही सोच सकते हैं। उनके बिम्ब-विधान में अनूठेपन के एक से एक उदाहरण हैं। महुए की लाल लाल कोपलों के लिए वे सुर्ख दिए का बिम्ब लाते हैं-
यह अजब पेड़ है जिसमें कि जनाब
इस कदर जल्द कली फूटती है
कि अभी कल देखो
मार पतझड़ ही पतझड़ था इसके नीचे
और अब

सुर्ख दिये, सुर्ख दियों का झुरमुट।

सुर्ख दियों का झुरमुट आशा की लौ का झुरमुट है। शमशेर की कविता में जहां नैराश्य के घने अंधेरे हैं, वहीं इस तरह आशा के तमाम झुरमुट भी हैं-
कुहास्पष्ट हृदय- भार, आज हीन
हीनभाव, हीनभाव

मध्यवर्ग का समाज, दीन

उधर पथ-प्रदर्शिका मशाल
कमकर की
मुट्ठी में - किन्तु उधर :
आगे आगे जलती चलती है
लाल-लाल
सुर्ख दिए या लाल मशाल के बिम्ब सायास नहीं हैं। यह उनकी अपनी जीवनदृष्टि से उपजे बिम्ब हैं।
................

शमशेर प्रकृति और सौंदर्य के अनन्यतम कवि हैं। एजरा पाउंड और टीएस इलियट से प्रभावित रहे शमशेर के कलागत आग्रह अत्यंत प्रबल हैं, परंतु वे कलावादी नहीं हैं। उनकी कविता में प्रकृति और सौंदर्य से जुड़े बिम्बों की अद्भुत छटा है, पर कभी भी उनका ध्यान अपने सरोकार से नहीं हटा है। उनकी एक चर्चित कविता है 'सूर्योदय'। इस कविता में प्रात-नभ के लिए वे बिम्बों की झड़ी लगा देते हैं- जैसे बहुत नीला शंख, जैसे राख से लीपा हुआ चौका, जैसे थोड़े से लाल केसर से धुली हुई काली सिल, जैसे किसी ने स्लेट पर लाल खडिय़ा मल दी हो, जैसे कि नीले जल में कोई गौरवर्णी देह झिलमिला रही हो। इतने सारे बिम्बों से एक खूबसूरत जादुई सौंदर्य रचने के बाद कविता की अंतिम पंक्तियों में वे यथार्थ का झटका देते हैं-
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है

इस सूर्योदय के साथ ही वे हमें उषा-सौंदर्य के उस जादू से बाहर यथार्थ की रोशनी में ला खड़ा करते हैं कि जिसमें हम समय को साफ-साफ देख सकें। जादू रचने और तोडऩे का खेल शमशेर की कई कविताओं में देखा जा सकता है। शमशेरियत की खूसूसियत ही यही है कि इतने कला-आग्रह के बावजूद उनके सरोकार कभी कला के किले में कैद होकर नहीं रह जाते। वे कला को अंगवस्त्र की तरह नहीं अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं, ताकि काल से होड़ ले सकें। और वे ऐसा कर पाते हैं क्योंकि उनके यहां कितनी नावों में कितनी बार जैसा कोई असमंजस नहीं है। वे एक ही नाव के सवार हैं और उन्हें अपनी दिशा पता है। और इस दिशा पर कला का कोई कुहासा नहीं है-
वाम-वाम वाम दिशा
समय साम्यवादी।

................................................................................

साहित्यिक पत्रिका बया के ताज़ा अंक में प्रकाशित। संपादक: गौरीनाथ । पता - अंतिका प्रकाशन , सी- 56/ यू जीएफ -4 , शालीमार गार्डेन एक्सटेंशन -2, गाज़ियाबाद (उ प्र ) फ़ोन : 0120- ६४७५२१२