कई दिनों से जाति के नाम पर विमर्श चल रहा है। इसी सन्दर्भ में अचानक ही अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई। ९० के दशक में इंदौर के साहित्यिक मित्रों के बीच यह काफी लोकप्रिय हुआ करती थी और गोष्ठियों में अक्सर इसे सुनाने की फरमाइश होती थी। यह मेरे पहले कविता संग्रह ' रोज ही होता था यह सब ' में भी शामिल है। जाति को लेकर चल रहे समकालीन विमर्श में यह कविता कुछ योगदान कर सकती है या नहीं, यह तो प्रबुद्ध पाठक ही तय करेंगे। पेंटिंग सुपरिचित युवा चित्रकार-कथाकार रवीन्द्र व्यास की है।
रमकलिया की जात न पूछो
रमकलिया की जात न पूछो
कहाँ गुजारी रात न पूछो
नाक पोछती, रोती गाती
धान रोपती, खेत निराती
भरी तगारी लेकर सिर पर
दो-दो मंजिल तक चढ़ जाती
श्याम सलोनी रामकली से
कोठे की रमकलिया बाई
बन जाने की बात न पूछो।
बोल चाल में सीधे सादे
लेकिन मन में स्याह इरादे
खरे-खरों की बातें खोटी
अंधियारे में देकर रोटी
आटे जैसा वक्ष गूंथने-
वाले किसके हाथ न पूछो
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
हों या न हों भाई-भाई
रमकलिया पर सब की आँखें
सभी एक बरगद की शाखें
इस बरगद की किस शाखा में
कितने-कितने पात न पूछो
रोज-रोज मरती, जी जाती
आंसू पीकर भी मुस्काती
रमकलिया के बदले तेवर
नई साड़ियाँ महंगे जेवर
बेचारी क्या खोकर पाई
यह महँगी सौगात न पूछो
पूछ लिया तो फंस जाओगे
लिप्त स्वयं को भी पाओगे
रमकलिया के हर किस्से में
उसके दुःख के हर हिस्से में
अपना भी चेहरा पाओगे
सिर नीचा कर बंद रखो मुंह
खुल जायेगी बात न पूछो
रमकलिया तो परंपरा है
उसकी कैसी जात-पांत जी
परंपरा में गाड़े रहिये
अपने तो नाख़ून दांत जी
सोने के हैं दांत आपके
उसकी तो औकात न पूछो।
रमकलिया की जात न पूछो
कहाँ गुजारी रात न पूछो- अरुण आदित्य