Wednesday, December 10, 2008

जो किसी की प्यास बुझाना चाहते हैं


लोटे


देवताओं को जल चढ़ाने के काम आते रहे कुछ

कुछ ने वजू कराने में ढूंढ़ी अपनी सार्थकता

प्यासे होंठों का स्पर्श पाकर ही खुश रहे कुछ

कुछ को मनुष्यों ने नहाने या नित्यकर्म का पात्र बना लिया

बहुत समय तक अपनी अपनी भूमिका में सुपात्र बने रहे सब


पर आजकल बदल गई हैं इनकी भूमिकाएं

जल चढ़ाने और वजू कराने वाले लोटे

अब अकसर लड़ते झगड़ते हैं

और बाद में शांति अपीलें जारी करते हैं

काफी सुखी हैं ये लोटे

पर सबसे ज्यादा सुखी हैं वे, जो बिना पेंदी के हैं
परेशान और दुखी हैं वे, जो किसी की प्यास बुझाना चाहते हैं

आजकल पात्रों की सूची से गायब होता जा रहा है उनका नाम

जग -मग के इस दौर में लोटों का क्या काम?


राष्ट्रीय लुढ़कन के इस दौर में

जब गेंद की तरह इस पाले से उस पाले में

लुढ़क रही हैं अंतरात्माएं

कितना आसान है वोटों का लोटों में तब्दील हो जाना

ये जो आसानी है

कितनी बड़ी परेशानी है ।


- अरुण आदित्य

(मध्य प्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका साक्षात्कार में प्रकाशित। हिमाचल के युवा कवि प्रकाश बादल इस कविता को यहां देने के लिए बार-बार आग्रह करते रहे हैं। )