( करीब दो माह बाद ब्लॉग पर वापस लौटा हूँ। उपन्यास 'उत्तर -वनवास ' का काम लगभग पूरा हो गया है। अब थोड़ी राहत मिली है। एक छोटा -सा अंश यहाँ दे रहा हूँ। इस पर आप लोगों के विचार मेरे लिए मार्गदर्शक होंगे। कभी लघुकथा तक न लिखनेवाले ने सीधे उपन्यास में हाथ डाल दिया है। पता नहीं कुछ बात बन भी रही, या या वैसे ही कागज काले किए जा रहा हूँ। )
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घनी बबुराही और बंसवारी के बीच वह एक झोपड़ी थी।
नहीं, एक नहीं तीन झोपडिय़ां थीं, एक दूसरे से लगी हुई। जैसे एक मकान में कई कमरे होते हैं। यानी यह तीन झोपडिय़ों का मकान था। लेकिन मकान की प्रचलित अवधारणा के मुताबिक इसे मकान नहीं कहा जा सकता था। मकान के होने के लिए दीवारों और छत का होना जरूरी है। पर यहां तो छत के नाम पर तीन छप्पर थे, जो बबूल की थूनों और बांस की बड़ेर पर टिके हुए थे। दीवार की जगह एक झोपड़ी में फूस की टाटियां लगी हुई थीं, बाकी दो में वह भी नहीं थीं। बहरहाल आप इसे मकान मानें या न मानें, लेकिन सन् 1952 के लोकसभा चुनावों की मतदाता सूची में यह मकान नंबर 151 के रूप में दर्ज था, जिसमें दो मतदाता रहते थे। चूंकि गांव में कुल 151 मकान थे, इसलिए इसे गांव का अंतिम मकान और इसमें रहने वाले आदमी को गांव का अंतिम आदमी (या अंतिम मकान में रहने वाला आदमी) कहा जा सकता था। सूची में मकान नंबर एक की जगह दिनेश सिंह की हवेली तनी थी। दिनेश सिंह गांव के पूर्व जमींदार और वर्तमान सरपंच थे।
अंतिम आदमी या अंतिम मकान में रहने वाले आदमी का यह मकान नंबर 151 बबूल और बांस के झुरमुटों से घिरा होने के कारण किसी सुंदर भूदृश्य-सा लगता था।
बांस की कोठों में कई जहरीले सांप रहते थे, और बबूल के कांटे अक्सर इस घर में रहने वालों को चुभते थे; लेकिन यह बांस और बबूल ही थे, जो इस भूदृश्य में हरा रंग भरते थे। एक कलाकार इधर से गुजरते हुए इस मनोरम दृश्य को देखकर ठिठक गया था। उसने बबुराही और बंसवारी के बीच बसी इन झोपडिय़ों के कई स्केच बनाए थे। बाद में इन्हीं स्केचों में से एक को डेवलप करके उसने एक सुंदर भूदृश्य बनाया था, जिसे एक विदेशी कंपनी ने एक हजार डॉलर में खरीदा था।
मकान नंबर 151 में रहने वालों को तो पता भी नहीं होगा कि वे एक बहुमूल्य कलाकृति में रहते हैं। पता भी होता तो उनकी जीवनचर्या में क्या कोई फर्क पड़ जाता? क्या वे कलाकार से अपनी गरीबी की रॉयल्टी मांगते? ये सवाल काल्पनिक हैं, इनके जवाब भी काल्पनिक ही होंगे, लेकिन यह सच था कि वे एक हजार डॉलर की कीमत वाली कलाकृति की वास्तविकता के भीतर रह रहे थे और उन्हें इस बात का पता नहीं था। पता था तो सिर्फ इतना कि वे सांपों और कांटों के बीच एक कठिन जीवन जी रहे थे। लेकिन अपने जीवन-संघर्ष को लेकर वे चिंतित नहीं थे। उनकी एकमात्र चिंता अपने बेटे रामचंद्र के भविष्य को लेकर थी।
हालांकि उनके नाम दशरथ और कौशल्या नहीं, मायाराम और मंगला थे, लेकिन उन्होंने राम नवमी के दिन जनमे इस बेटे का नाम रामचंद्र रखा था। रामचंद्र के जन्म के समय पुरोहित जी ने कहा था— मायाराम! तुम्हारी तो किस्मत चमक उठी। यह तो कस्तूरी है, कस्तूरी। देखना, इसकी सुगंध बहुत दूर तक जाएगी। वाकई इस कस्तूरी के आते ही दो लोगों का यह परिवार हिरन की तरह चौकड़ी भरने लगा था। मायाराम और मंगला को लगता जैसे उनका अपना बचपन लौट आया हो। जिस समय वे बच्चों की भूमिका में होते, गरीबी नेपथ्य में चली जाती। इस पवित्र खेल को बिगाडऩे की हिम्मत शायद उसमें नहीं थी। या फिर वह थोड़ी ढील देकर देखना चाहती होगी कि देखो कितना उड़ पाते हैं। रामचंद्र जैसे-जैसे बड़े हो रहे थे, वैसे-वैसे कस्तूरी की सुगंध भी तीव्र हो रही थी। हिरन को नहीं पता होता है कि कस्तूरी उसकी नाभि में है, इसलिए वह उसकी सुगंध की खोज में पागल बना भटकता रहता है। यदि उसे पता चल जाए कि कस्तूरी उसकी नाभि में है और उसकी सुगंध ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन है तो संभव है कि इस सुगंध के बारे में उसके विचार बदल जाएं। शायद न भी बदलें, क्योंकि हिरन आखिर हिरन है, कोई मनुष्य नहीं। शायद उसे फख्र हो कि उसके पास एक ऐसी कीमती चीज है, जिसके लिए कोई उसकी जान भी ले सकता है। लेकिन गांव के अंतिम मकान में रहने वाला यह परिवार हिरन नहीं था, बल्कि कस्तूरी मिलने के आह्लाद में हिरन हो गया था। शुरू-शुरू में कस्तूरी की महक परिवार वालों को अच्छी लगी थी। लेकिन वे दुनियादार लोग थे, उन्हें बहुत जल्दी समझ में आ गया कि हिरन की सबसे बड़ी दुश्मन कस्तूरी ही होती है। लिहाजा जैसे-जैसे कस्तूरी की सुगंध तीव्र हो रही थी, वैसे-वैसे उनका डर बढ़ रहा था ।
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इस तरह बबूल के कांटों, बांस-कोठ के सांपों और मां-बाप के डर के बीच रामचंद्र बड़े हो रहे थे। उनका बड़ा होना कुछ लोगों को छोटा बना रहा था। रामचंद्र की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी। पर, इच्छा से क्या होता है? भगवान राम भी कहां चाहते थे कि सीता स्वयंवर का वर्णन करते हुए तुलसीदास को लिखना पड़े कि - प्रभुंहि देखि नृप सब हिय हारे, जनु राकेश उदय भएं तारे।
यदि राम चंद्र मकान नंबर एक में पैदा हुए होते तो उनके बड़े होने से दूसरों का छोटा होते जाना मां-बाप के लिए गर्व का विषय होता। लेकिन उनके मकान का नंबर 151 था, लिहाजा यह गर्व का नहीं चिंता का विषय था। पर हमेशा से ही ऐसा ऐसा नहीं था। शुरू-शुरू में एक बार उन्हें भी गर्व हुआ था। राम चंद्र उस समय नौ साल के थे। चौथी कक्षा का रिजल्ट लेकर आए थे। रिजल्ट क्या था, सपनों का एक घोड़ा था! आते ही घोड़े की रास पिता को थमा दी थी- ''पूरी कक्षा में अव्वल आया हूं। छोटे कुंवर को दूसरा स्थान मिला है।'' राम चंद्र का वाक्य पूरा होते-होते पिता सपनों के इस घोड़े पर सवार होकर अपनी झोपड़ी बनाम एक हजार डॉलर की कलाकृति से बाहर निकल गए थे। बाहर जाते हुए चूंकि वे घोड़े पर सवार थे, इसलिए न तो कोई कांटा चुभा था और न ही कोई सांप दिखा था। जिंदगी भर कांटों और सांपों के बीच पैदल घिसटने वाले पिता को इस घोड़े पर बड़ा आनंद आ रहा था। थोड़ी दूर जाकर उन्होंने पलट कर देखा। मकान नंबर 151 के आस-पास का दृश्य वाकई एक सुंदर कलाकृति-सा लगा। यह कलाकृति उस पेंटर द्वारा बनाए गए भूदृश्य जैसी ही थी। बस एक छोटा सा अंतर था — तीन झोपडिय़ों की जगह तीस कमरों की हवेली नजर आ रही थी । हवेली का नक्शा बिल्कुल मकान नंबर एक की तरह था।
मकान नंबर एक मायाराम की कल्पना का घर था। उनके पिता ने बताया था कि चार पुश्त पहले यह हवेली उन्हीं के पूर्वजों की थी। यह हवेली मायाराम के पुरखों के हाथ से निकल कर दिनेश सिंह के पुरखों के पास कैसे पहुंच गई, इसकी एक लंबी गाथा है, जिसे अगर अभी यहां लिखना शुरू किया तो 'ढाई घर' जैसा एक उपन्यास तो इसी प्रसंग में पूरा हो जाएगा और रामचंद्र की कथा अलग ही पड़ी रह जाएगी। मायाराम के पिता ने जो बताया था, उसका सार यह था कि उनके पुरखे बहुत सीधे थे और उनकी सीधाई का फायदा उठाकर दिनेश सिंह के पुरखों ने हवेली पर कब्जा कर लिया था। उधर दिनेश सिंह की तरफ से बताया जाने वाला इतिहास कुछ और कहता था। इतिहास हमेशा विजेता का पक्ष लेता है, सो राम चंद्र के परिवार को छोडक़र सारा गांव दिनेश सिंह के द्वारा बताए जाने वाले इतिहास को सही मानता था। पर गांव में एक दो ऐसे लोग भी थे जो दोनों के इतिहास से अलग एक नया ही इतिहास बताते थे। मतलब यह कि इतिहास पर काफी धूल थी... और इतिहासकारों के पास पहले ही इतने विवादास्पद मुद्दे पेंडिंग हैं कि उन्हें एक और विवाद में उलझाने के बजाय आइए फिलहाल की चिंता करें।
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फिलहाल तो मायाराम तीन झोपडिय़ों की हैसियत से बाहर स्वप्न-अश्व पर सवार हैं। और इस समय उन्हें तीन झोपडिय़ों की जगह तीस कमरों की हवेली नजर आ रही है। वे इस घोड़े से उतरना नहीं चाहते हैं। इस पर सवार कोई भी व्यक्ति उतरना नहीं चाहता है। पर कोई ज्यादा समय तक इसकी पीठ पर टिक भी नहीं सकता है। अधिकांश लोग औंधे मुंह गिरकर ही इसकी पीठ खाली करते हैं। चंद लम्हों की सवारी के बाद मायाराम के साथ भी यही हुआ । घोड़े से गिरने पर उन्होंने देखा कि उनके सपने लहूलुहान हैं। सपने ही नहीं, उन्हें अपना यथार्थ भी लहूलुहान दिखा : राम चंद्र के सिर से बुरी तरह खून बह रहा था। बेटे के सिर से खून बहता देखकर मायाराम का अपना खून खौल उठा। गुस्से में उन्होंने तलवार निकालने के लिए कमर की तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन वहां न तो तलवार थी और न म्यान। अलबत्ता एक चुनौटी जरूर वहां खुंसी हुई थी। तलवार की जगह चुनौटी हाथ में आने पर उन्हें होश आया कि वे घोड़े पर चढ़े जमींदार नहीं, अपनी झोपड़ी के बाहर खड़े मायाराम हैं। होश में आते ही जोश ठंडा हो गया। रौद्र रस को पीछे धकेल कर करुण रस आगे आ गया। आदि कवि की कविता की पहली पंक्ति सरीखा आर्त-वाक्य उनके मुंह से निकला — ''किस कसाई ने किया मेरे लाल का ये हाल? ''
जवाब में चुप्पी।
मतलब, कविता को समझने वाला वहां कोई नहीं था। इसलिए वे सीधे अकविता पर आ गए — ''किस मादरचोद ने....'' मायाराम वाक्य पूरा कर पाते इसके पहले ही किसी ने उनका मुंह दाब दिया।
'' जबान को लगाम दो मायाराम! बात आगे चली गई तो अनर्थ हो जाएगा।'' किसी और ने कहा।
''छोटे कुंवर को गाली देने का अंजाम जानते हो ? '' किसी तीसरे ने चेताया।
छोटे कुंवर का नाम सुनकर मायाराम सन्न रह गए — यह मैंने क्या कर दिया। ये तो पिट-पिटाकर आया ही है, अब मुझे भी हल्दी मट्ठा पिलवायेगा । मां की गाली बकने से पहले मैंने कुछ सोचा क्यों नहीं? पर मैं भी क्या करता, इसका खून देखकर मेरा दिमाग खराब हो गया था। सारी गलती तो इस पिल्ले की है। न ये छोटे कुंवर से पिट कर आता न मेरे मुंह से गाली निकलती। किसी दिन ये मुझे मरवाकर ही रहेगा। अपनी गलती के अंजाम से वे डर गए। पर वे ठाकुर थे। अपने को डरा हुआ कैसे दिखाते। सो डर को मन के एक कोने में दफन कर दिया और वहां से एक सवाल निकाल लाए- '' मेरे राम ने उनका बिगाड़ा क्या था? '' माया राम ने इस सवाल को दोहराया-तिहराया, लेकिन वहां जवाब देने वाला कोई नहीं था। भीड़ तो कब की छंट चुकी थी।