Friday, May 30, 2008

ठोकर तो पत्थर को भी लगती है


ठोकर


हम अपनी रौ में जा रहे होते हैं

अचानक किसी पत्थर की ठोकर लगती है

और एक टीस सी उठती है

जो पैर के अंगूठे से शुरू होकर झनझना देती है दिमाग तक को


एक झनझनाहट पत्थर में भी उठती है

और हमारे पैर की चोट खाया हुआ हत-मान वह

शर्म से लुढ़क जाता है एक ओर


एक पल रुककर हम देखते हैं ठोकर खाया हुआ अपना अंगूठा

पत्थर को कोसते हुए सहलाते हैं अपना पांव

और पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी

झाड़ती है भय संकोच की धूल और ला खड़ा करती है उसे

किसी और के गुरूर की राह में।

-अरुण आदित्य

(पल-प्रतिपल के सितंबर-दिसंबर2 000 अंक में प्रकाशित। पल प्रतिपल का पता है : पल प्रतिपल, एससीएफ-267, सेक्टर-16, पंचकूला। देश निर्मोही इसके संपादक हैं। )

15 comments:

Rachna Singh said...

पल-प्रतिपल kaa email id ublabdh ho saktaa hae kya ??

विजय गौड़ said...

sundar hai arun ji.

11111 said...

सर, उम्दा कविता है। शायद पीड़ितों को कुछ राहत मिले।

Geet Chaturvedi said...

बहुत अच्‍छी कविता.

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छी रचना.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

'...और पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी', उम्दा पंक्ति. अच्छी कविता.

Alpana Verma said...

पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी

झाड़ती है भय संकोच की धूल और ला खड़ा करती है उसे

किसी और के गुरूर की राह में।

bahut hi sundar rachna..gahare bhaav liye hue!

बालकिशन said...

वाह जी वाह.
बहुत अच्छी कविता.
बधाई.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आपकी ये कविता चित्र जैसी
और
चित्र कविता जैसा ही है !
बधाई.===============
===============
पत्थर मिला जो राह में पाषाण कह दिया
महलों में लगा देखा तो निर्माण कह दिया
मंदिर में कोई मूरत जो दिख गई कहीं
इंसान ने पाषाण को भगवान कह दिया.
शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन

प्रदीप कांत said...

भाई अरूण,

बेहतरीन कविता के साथ बेहतरीन चित्र के लिय बधाई। काश चित्र के साथ छायाकार का नाम भी होता।

- प्रदीप कान्त

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

वाह भाई क्या बात कही है, कविता मरहम का काम करेगी एसी आशा है। सिर्फ मरहम ही न दिजीयेगा, अरूण भाई टिका टिप्पणिया के बीच इन ब्लागियो को आटे दाल तेल पेट्रोल का भाव भी अगली कविता में याद दिलवा दिजीयेगा।
हम तो ठहरे मोह माया में फसे सासांरिक प्राणी, ये ब्लागी लोग क्या बहस करते रहते है ये कबीरा की समझ के बाहर है।

Arun Aditya said...

रचना, विजय गौर, अनुजा, गीत, समीरलाल जी, विजयशंकर, अल्पना, बालकिशन जी, डॉक्टर जैन साहब, प्रदीप कान्त और परेश भाई आप सब को बहुत-बहुत धन्यवाद ।
@ रचना - पल प्रतिपल का ईमेल आईडी है palpratipal@yahoo.com

समर्थ वाशिष्ठ / Samartha Vashishtha said...

कामयाब कविता है अरुणजी! पोस्ट करने के लिए धन्यवाद।

Arun Aditya said...

शुक्रिया समर्थ।

Anonymous said...

Bahut sunder! Very touching