Sunday, May 18, 2008

शमीम फरहत को जानते हैं आप

उर्दू की लिपि में उनकी कोई किताब नहीं

कुछ रंग थे। थोड़ी खुशबू थी। थोड़ी धूप थी, कुछ रूप था। इन सब को मिला दो तो एक आदमी बनता था। आदमी से थोड़ा ज्यादा आदमी। दुनियादार से थोड़ा कम दुनियादार। नाम शमीम था और तखल्लुस फरहत। काम था शायरी और कमजोरी थी शराब। दोनों में एक साथ इस कदर डूबा हुआ कि न इसमें से निकलना आसां न उसमें से। शायरी के बारे में वो लिखता है,
गीत गाना जो छोड़ देता हूँ, गीत ख़ुद मुझको गाने लगते हैं।
और शराब के बारे में भी उसकी राय बहुत आशिकाना थी-
ये तौहीने बादानोशी है, लोग पानी मिला के पीते हैं
जिनको पीने का कुछ सलीका है, जिंदगानी मिला के पीते हैं।

और वो शायर जो रंग, रूप और खुशबू की बात करता था, खून की उल्टियाँ करने लगा। वरिष्ठ जनवादी लेखक राम प्रकाश त्रिपाठी ने प्रगतिशील वसुधा के अंक ७० में शमीम पर एक अद्भुत संस्मरण लिखा है। जनवादी लेखक संघ ने उनका एक संग्रह छापा है, दिन भर की धूप। शीर्षक दुष्यंत के संग्रह साए में धूप से मिलते-जुलता लगता है, लेकिन यह शमीम के एक चर्चित शेर - वो आदमी है रंग का खुशबू का रूप का/कैसे मुकाबला करे दिन भर की धूप का- से लिया गया था। राम प्रकाश जब शमीम साहब को इसकी स्क्रिप्ट दिखाने ले गए तो फर्श पर खून की उलटी देखी। राम प्रकाश ने चिंता जतायी तो इस इन्कलाबी शायर ने हंस कर कहा- अपनी जितनी कुब्बत है, उतनी धरती पर तो लाल रंग बिछा जायें। और उनसे जितनी धरती लाल हो सकती थी, उतनी लाल करके शमीम साहब ९ अगस्त १९८५ की रात ५१ बरस की उम्र में दुनिया को नमस्कार कर गए।
एक जमाने में निदा फाजली और शमीम फरहत ग्वालियर की उभरती हुई पहचान थे। बाद में निदा मुम्बई चले गए। स्टार हो गए। शमीम पद्मा विद्यालय में उर्दू पढाते रहे। मोहल्ले में इन दिनों उर्दू के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बहस चल रही है। इस सन्दर्भ में राम प्रकाश त्रिपाठी की ये पंक्तियाँ भी बहुत कुछ कहती हैं- '' अफ़सोस है कि शमीम उर्दू के थे। उनकी कोई किताब उर्दू की लिपि में नहीं है। (जनवादी लेखक संघ ने जो संग्रह छापा है वह देवनागरी में है।) मध्य प्रदेश की उर्दू अकादमी इस पशोपेश में रही कि hindi में छपी हुई किताब को उर्दू में लाना , कहीं उर्दू की तौहीन तो नहीं होगी।'' शमीम साहब भी अगर मुम्बई चले गए होते तो शायद स्टार बन जाते। प्रकाशक उनके आगे पीछे घूमते। अकादमियां उन्हें आगे बढ़ कर सम्मानित करतीं। पर क्या तब भी यह लिख पाते-

हम हकीकत की तरह दिल में चुभेंगे यारों

हम कहानी की तरह याद नहीं आयेंगे।

उनके संग्रह दिन भर की धूप से पेश हैं उनकी दो गजलें


एक

जीने से चढ़ के छत पे खड़ी हो गई है वो

रगोशियाँ हुईं कि बड़ी हो गई है वो


मलबूस में उभरते हुए जिस्म के नुकूश

देखो तो मोतियों की लड़ी हो गई है वो



बेबाक शोखियों पे मैं शरमा के रह गया

ऐसा लगा कि मुझसे बड़ी हो गई है वो



तय कर लिए हैं उसने समंदर के रास्ते

यादों के पास आके खड़ी हो गई है वो ।


दो


न तेरे नाम का कूचा न मेरे नाम का शहर

कहीं अल्लाह की बस्ती है कहीं राम का शहर



जिंदगी जह्दे मुसलसल के सिवा कुछ भी नहीं

यार मैंने भी बसाया नहीं आराम का शहर



कितने खामोश मोहल्ले कई उतरे चेहरे

तुम मेरे जाम में देखो तो मेरे जाम का शहर



जंग है भूख है अफ्लास है बेकारी है

जिस जगह जाऊँ मिले है दिले नाकाम का शहर



अब भी जलते हैं उम्मीदों के दिए गम के चराग

तूने देखा नहीं अब तक दिले बदनाम का शहर

- शमीम फरहत









19 comments:

Nandini said...

अच्‍छी गजलें हैं... इस बेहतरीन शायर से परिचय कराने के लिए आभार...

शायदा said...

हम हकीकत की तरह दिल में चुभेंगे यारों
हम कहानी की तरह याद नहीं आयेंगे
शानदार।
बढि़या लेख। बधाई स्‍वीकार करें।

विजय गौड़ said...

शमीम फरहत की मासूमियत सी शख्सियत सी है उनकी रचनायें :
बेबाक शोखियों पे मैं शरमा के रह गया
ऐसा लगा कि मुझसे बड़ी हो गई है वो
और उतना ही सहज आपका कथन, "कुछ रंग थे। थोड़ी खुशबू थी। थोड़ी धूप थी, कुछ रूप था। इन सब को मिला दो तो एक आदमी बनता था।"
अच्छा संस्मरण है, रचनायें तो हैं ही ---

Rajesh Roshan said...

वो आदमी है रंग का खुशबू का रूप का/कैसे मुकाबला करे दिन भर की धूप का

kya line hai. bahut hi badhiya

ravindra vyas said...

शमीम फरहत को पढ़ा है, रामप्रकाश जी के जिस लेख का आपने जिक्र किया वह भी। शायरों की फितरत ही कुछ ऐसी रहती हैं जैसी फरहत साहब की थी। जीशान साहिल की मौत के बाद से ही इन दिनों भारतीय-पाकिस्तानी शायरों को गहरी दिलचस्पी के साथ फिर से पढ़ रहा हूं।
और हां आपकी एक पुरानी कविता जो लगभग गीत का मजा देती है पढ़ी, मार्मिक है लेकिन नई कविताअों के क्या हाल हैं?

डॉ .अनुराग said...

क्या कहूँ ....दिल भर आया ओर गजल पढने की इछाये बैचैन हो गई.....क्या गजल है?सुभान अल्लाह..क्या आप उनकी ओर गजले अगली पोस्ट मे ड़ाल सकते है ?

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

क्या बात है!

sushant jha said...

दिल चुरा लिया आपने..बधाई स््वीकार करें...

Unknown said...

लेख बहुत अच्छा लगा। एक उम्दा शायर के बारे में लिखने का अंदाज़ भी उम्दा है। बधाई।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

न तेरे नाम का कूचा न मेरे नाम का शहर
कहीं अल्लाह की बस्ती है कहीं राम का शहर
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अरुण जी,
इस नाम के इस कूचे से गुज़रने का
ये जो मौका आपने दिया
उस नाम पर तो दिल की ये
पूरी बस्ती नज़र की जा सकती है .
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उम्दा क़लमगोई का ऐसा नायाब मोती
चुनकर ले आए हैं आप...कि क्या कहें
बस यही कि इस पेशकश की हर बात निराली है.
ब्लॉग-पोस्ट का हमेशा सहेजकर
रखने योग्य तोहफा है यह !
बधाई....आभार....शुभकामनाएँ.
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डा.चंद्रकुमार जैन

प्रदीप कांत said...

अच्छी ग़ज़लों के लिये बधाई.

जंग है भूख है अफ्लास है बेकारी है
जिस जगह जाऊँ मिले है दिले नाकाम का शहर

जिन्होने सचमुच संर्घष किया हो वही ऐसे शेर लिख सकते हैं।

-प्रदीप कान्त

Arun Aditya said...

नंदिनी, शायदा, रवीन्द्र, विजय गौर, राजेश रोशन, सुशांत झा, अनुराग आर्य, विजय शंकर, ललित, प्रदीप कान्त और डाक्टर जैन साहब आप सब का बहुत-बहुत शुक्रिया। आते रहें।

11111 said...

सर, बधाई अच्छा लेख है।

Arun Aditya said...

shukriya anuja.

idharsedekho said...

शुक्रिया कि आपने मेरा ब्लोग पर नज़र घुमाई.क्या आपकू मेरे लेख पसन्द आ रहे है,जो जनसत्ता के लिए मेन? लिख रहा हुन?
बहुत दिन हुए मिले हुए? क्या खयाल हे कि जल्द ही एक शाम साथ बैथे?

Anshu Mali Rastogi said...

अरूणजी,
इस गंभीर और वैचारिक लेख के लिए बधाई व शुभकामनाएं। इस विषय पर आगे भी कुछ दें।

11111 said...
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महेन said...

ये तो सुदर्शन फ़ाकिर की सी कहानी लगती है। आपने अपनी बात को सलीके से समेटा है। शमीम जी से मिलवाने के लिये शुक्रिया।

Arun Aditya said...

सीरज, अंशुमाली जी और महेंद्र जी, शुक्रिया। आते रहिएगा।