Friday, October 29, 2010

कहेउ नामवर सुनहु सुजाना

उपन्यास 'उत्तर वनवास' पर
वरिष्ठ आलोचक डॉ. नामवर सिंह की यह टिप्पणी
पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा' के
29 सितंबर 2010 के अंक में
'सबद निरंतर' कॉलम में प्रकाशित हुई है।

नए ढांचे का उपन्यास
नामवर सिंह

अरुण आदित्य युवा कवि हैं। अब तक वे कविता के लिए ही जाने जाते रहे हैं। उत्तर वनवास उनका पहला उपन्यास है। मैं एक सांस में इस उपन्यास को पढ़ गया। लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों का यह उपन्यास इतना बांधे हुए था। बार-बार श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी की याद आ रही थी। उपन्यास में व्यंग्य का सटीक प्रयोग हुआ है। कोई वाक्य ऐसा नहीं है, जिस पर अवध की विशिष्ट संस्कृति की छाप न हो। और सबसे खास पक्ष है इसका विन्यास। विषय-वस्तु का विस्तार आपातकाल से लेकर रामजन्मभूमि विवाद और आज की राजनीति तक है। इस पूरे काल को समेटता यह उपन्यास गांव से निकले हुए एक आदमी रामचंद्र रामायणी को केंद्र में रखकर लिखा गया है।
उपन्यास दस अध्यायों में बंटा है। हर अध्याय का एक शीर्षक दिया है और सारे ही शीर्षक बड़े दिलचस्प हैं। पहले अध्याय का शीर्षक है- 'तीन झोपडिय़ां बनाम तेरह सौ डॉलर की कलाकृति।' दूसरे अध्याय का शीर्षक भी बहुत दिलचस्प है- 'अंडे का फूटना और बछड़े का होंकडऩा'। अवधी की छौंक यहां भी है। पूरी भाषा में एक तंज है। शायद ही कोई वाक्य हो जिसमें भाषा का खेल न हो। शायद यह अवध की अपनी खूबी है।
एक तो रामचंद्र थे त्रेता युग वाले, दूसरे इनके रामचंद्र हैं। वैसे तो रामचंद्र नाम बहुत मिलते हैं पर ये रामायणी हैंं। बहुत अच्छे वक्ता, राम-कथा कहने वाले। तुलसीदास के रामचरित मानस की चौपाइयों का प्रयोग गांव के लोग कदम-कदम पर करते हैं। रामचरित मानस उनके मुहावरे में शामिल है। इस उपन्यास में भी तुलसी की चौपाइयों और अर्धालियों का सटीक प्रयोग हुआ है।
उपन्यास शुरू होता है कैफी आजमी की मशहूर नज्म से,
'पांव सरयू में अभी राम ने धोए भी थे
कि नजर आए उन्हें खून के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फजा आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा वनवास मुझे'
मैं खास तौर पर लेखक की राजनीतिक परिपक्वता का जिक्र करना चाहूंगा। हिंदूवादी राजनीतिक पार्टी, जिसका नारा था कि मंदिर वहीं बनाएंगे, उसे लेखक ने नाम दिया है राष्ट्रवादी पार्टी। रामचंद्र रामायणी उसी पार्टी के नेता हैं, लेकिन उन्हें गर्व से कहो हम हिंदू हैं, जैसे नारों पर आपत्ति है। इस पर लंबी बहस है इस उपन्यास में। रामचंद्र कहते हैं कि हिंदू शब्द तो हमारे लिए अपमानजनक है। यह शब्द तो विदेशियों का दिया हुआ है। हम अपने देश को हिंद नहीं भारत कहते हैं। अगर हम अपने को हिंदू के बजाय भारतीय के रूप में पहचानें तो इस पहचान के नीचे मुसलमान भी आ जाएंगे, ईसाई भी आएंगे और जो भी भारत में रहते हैं, सभी आएंगे। स्वामी रामचंद्र रामायणी उस राष्ट्रवादी पार्र्टी में बहुत ऊंचे पद पर हैं, लेकिन पार्टी से उनका यह मतभेद शुरू से है और अंत तक रहता है।
जहां तक उपन्यास की अंतर्वस्तु की सवाल है, इसकी कथा की शुरुआत आपातकाल से होती है। मुझे नहीं लगता कि आपातकाल पर हिंदी में कोई महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा गया है। भाषा की बानगी के तौर पर उपन्यास का एक अंश देखिए :
'रामचंद्र की हंसी अपने को गलत समझ लिए जाने से शर्मिंदा हो गई। वह शर्म से संकुचित हुई तो उसमें छिपे व्यंग्य को तकलीफ हुई और वह चुपचाप निकल भागा। व्यंग्य को विस्थापित होते देख हंसी उदास हो गई।
'उदास मत हो बहन।' हंसी को ताज्जुब हुआ कि यहां उसे ढाढ़स बंधाने वाला कौन गया। ढाढ़स बंधानेवाली का स्वर मिश्री-सा था, 'विस्थापन का दर्द मैं समझती हूं बहन। पर आपका व्यंग्य तो विस्थापित होकर भी किस्मत वाला है।'
हंसी ने आगंतुक की ओर कुछ इस तरह से देखा, कि जैसे उसका देखना यह पूछ रहा हो कि आप कौन हैं और मेरे व्यंग्य के बारे में क्या जानती हैं?
'मैं नीति हूं, जिसे राजनीति ने बेदखल कर रखा है। दर-दर भटक रही हूं, कहीं ठौर नहीं मिलता। जहां जाती हूं राजनीति पहले ही पसरी हुई मिलती है। पर आपका व्यंग्य तो वाकई भाग्यशाली है। उसे मैंने जबलपुर की ओर जाते देखा है।'
'जबलपुर?'
'हां, वहां हरिशंकर परसाई नाम का लेखक रहता है। उसकी कलम बहुत बड़ी है। दुनिया भर का व्यंग्य उसमें समा सकता है। पर मैं कहां जाऊं? क्या मेरे लिए कोई ठौर नहीं?'
'एक दिन इन्हीं कंधों पर मिलेगा तुम्हें ठौर। ' रामचंद्र की हंसी ने रामचंद्र के कंधों की ओर इशारा करते हुए कहा, 'आज जरूर इन पर राजनीति का हाथ है, लेकिन एक दिन राजनीति के लिए ये कंधे असहज हो जाएंगे और तुम इन पर निवास करोगी। रामचंद्र को मैं बचपन से जानती हूं इसलिए कह सकती हूं कि ये कंधे तुम्हारे लिए ही बने हुए हैं।'
इस अंश में हरिशंकर परसाई आते हैं। इसी तरह इस पूरी प्रक्रिया में लेखक ने साहित्यिक परिवेश को भी समेटा है। इसमें अनेक कवि उपस्थित हैं। अनेक कविताएं उद्धृत की हैं और बिलकुल सटीक जहां करना चाहिए, वहीं उनका उपयोग हुआ है। उपन्यास में पीपल का एक पेड़ है, जिसे कथानायक रामचंद्र अपना बोधिवृक्ष कहते हैं, जब उन्हें कोई दुविधा होती है तो वहीं जाकर उसके नीचे बैठ जाते हैं। या फिर एक क्रांतिकारी कवि सत्यबोध के पास जाते हैं। सत्यबोध कम्युनिस्ट हैं। इस बात को वे छिपाते नहीं और उनसे स्वामी रामचंद्र की खूब बहस होती है। स्वामी जी का जीवन इस बात का गवाह है कि ऊपर से संत महात्मा दिखाते हुए लोगों के मन में प्रेम से जुड़ी संवेदनाएं और मानवीय कमजोरियां भी होती हैं।
'उत्तर वनवास' इस दौर में लिखे गए उपन्यासों में नए ढांचे, नई कथादृष्टि वाली एक उल्लेखनीय कृति है।
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उपन्यास : उत्तर वनवास
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, एससीएफ- 267
सेक्टर-16, पंचकूला-134113 (हरियाणा)
मोबाईल - 09417267004
मूल्य : 200 रुपए

15 comments:

arun dev said...

अरुण जी. बधाई हो. नामवर सिंह ने बहुत अच्छा लिखा है.

निर्मला कपिला said...

बहुत अच्छी समीक्षा की ह। आपको बहुत बहुत बधाई।

अजेय said...

भाई, इसे पढ़ूँगा. वादा था मेरा.

Ashok Kumar pandey said...

अच्छी समीक्षा…नामवार जी का कहना अब भी मायने रखता है

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

readable article.

प्रदीप कांत said...

अच्छी समीक्षा

बधाई .........

शरद कोकास said...

इस बात की भी बधाई ।

जयकृष्ण राय तुषार said...

very nice blog ke bahane aapke darshan hue

योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishna said...

उत्तर वनवास के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।
अवसर मिलते ही पढना चाहूंगा…

रतन चंद 'रत्नेश' said...

डॉ.नामवर सिंह की समीक्षा बांधती है. अरुण आदित्य ने अध्यायों का जो शीर्षक दिए हैं, वे गज़ब के हैं, ठीक उनकी कविताओं की तरह...

Arvind Mohan said...

nice blog...intelligent posts
inviting you to have a view of my blog when free.. http://www.arvrocks.blogspot.com .. do leave me some comment / guide if can.. if interested can follow my blog...

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

Bahut badhiya laga hindi ke sheersh purush ki prashansa padh kar,aap ko hardik badhai/Is liye bhi khushi hui ki aap hamarey ghar angan ki khushbu sametey hue ho/
aap sey samvaad hota rahega/aaj kal kaha ho aap?
Mera cell no 9425898136 hai/man ho to batiyaiyega kabhi fursat sey
sasneh
dr.bhoopendra
rewa mp

Unknown said...

बहुत ही सुन्दर समी़क्षा माननीय नामवर सिह द्वारा ....आपके उपन्यास के लिये लिखी है...शुभकाम्नाये...

प्रदीप मिश्र said...

अरूण क्षमा चाहता हूँ, विलम्ब से उपस्थित होने के लिए। नामवर जी ने तुम्हारे उपन्यास पर मन से लिखा है। वे बहुत कम ऐसा करते हैं। मैं बधाई तो क्या दूँ। हाँ इस उन्यास से मुझे बहुत उम्मीद है। देखते हैं, पाठक किस तरह से स्वीकृति प्रदान करते हैं।

सर्वेश मिश्र "नगरहा" said...

SIR JI MAI KAVITAYE LIKHTA HU PAR PUBLISH NAHI HO PATI KOI UPAI BATYE
ANYONE