Monday, May 11, 2009

कृष्णा सोबती से बातचीत


जिंदगीनामा से लेकर समय सरगम तक फैला रचना संसार उनकी कलम के जादू का गवाह है। उनसे बात करना एक विलक्षण अनुभव हैहालाँकि वे आसानी से बातचीत के लिए तैयार नहीं होतीं, लेकिन बात शुरू हो जाए तो फ़िर बेलाग बोलती हैंहमने भी जब कृष्णा जी को बातचीत के लिए राजी कर लिया तो साहित्य से लेकर समाज और राजनीति तक पर काफी बातें हुईंपेश है उस विस्तृत बातचीत का एक अंश जो अमर उजाला के रविवारीय परिशिष्ट सन्डे आनंद में २६ अप्रैल २००९ को प्रकाशित हुआ है

लेखक की व्यक्तिगत सामाजिक और

मानसिक प्रतिबद्धता के पैमाने बदल गए


कृष्णा सोबती से अरुण आदित्य की बातचीत

'जिंदगीनामा' से 'समय सरगम' तक आपकी भाषा कथ्य के मुताबिक बदलती रही है, पर एक चीज जो नहीं बदली वह है एक विशिष्ट तरह की लयात्मकता, जिसके कारण आपकी कोई भी रचना पढ़ते हुए, लगता है जैसे हम किसी लहर के साथ तैर रहे हैं। भाषा की यह लय आपने अभ्यास से अर्जित की है, या उस इलाके की सहज देन है, जहां आपका जन्म हुआ है?

- जिस भाषाई लयात्मकता की ओर आपका संकेत है, उसकी खूबी इतनी लेखक की नहीं, जितनी रचनात्मक विचार और पात्रों के निजी संवेदन की है। पात्र की सामाजिकता, उसका सांस्कृतिक पर्यावरण उसके कथ्य की भाषा को तय करते हैं। उसके व्यक्तित्व के निजत्व को, मानवीय अस्मिता को छूने और पहचानने के काम लेखक के जिम्मे हैं। भाषा वाहक है उस आंतरिक की जो अपनी रचनात्मक सीमाओं से ऊपर उठकर पात्रों के विचार स्रोत तक पहुंचता है। सच तो यह है कि किसी भी टेक्स्ट की लय को बांधने वाली विचार-अभिव्यक्ति को लेखक को सिर्फ जानना ही नहीं होता, गहरे तक उसकी पहचान भी करनी होती है। अपने से होकर दूसरे संवेदन को समझने और ग्रहण करने की समझ भी जुटानी होती है। एक भाषा वह होती है जो हमने मां-बोली की तरह परिवार से सीखी है- एक वह जो हमने लिखित ज्ञान से हासिल की है। और एक वह जो हमने अपने समय के घटित अनुभव से अर्जित की है। जिस लयात्मकता की बात आपने की, समय को सहेजती और उसे मौलिक स्वरूप देती वैचारिक अंतरंगता का मूल इसी से विस्तार पाता है।

पंजाब के गुजरात में जहां मेरा जन्म हुआ था वहां का भाषाई ध्वनि संस्कार काफी कडिय़ल, दो टूक और खुरदरा है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले की राजधानी दिल्ली और शिमला में बचपन के जिस देशी-विदेशी अनुशासित आबो-हवा में बड़ी हुई उसमें भाषा का अजीब सम्मिश्रण था। उसमें एक साथ विदेशी का स्वीकार और भारतीयता के अपनत्व के नाते देशी भाषा जो नागरी थी, उसका गहरा सत्कार था। अंग्रेजी हुकूमत के रोबीले अहंकार के सामने हर दिल में इसके लिए आदर और विश्वास का भाव था। ऊपरी सतह पर सत्ता का जो भी प्रभाव था, नेपथ्य से झांकता देसी पोथियों का साहित्य संसार था। हमारा भाषाई संसार समय के साथ बदलता भी रहा। शासित होने और आजादी के संघर्ष में जीवट वाली भाषा और बोलियां उभरीं। फिर विभाजन की विभीषिका और स्वाधीन होने का आत्मविश्वास। नए भाषाई तेवर उभरे। इस प्रक्रिया को जानने और पहचानने की क्षमता और सामथ्र्य मिली अपने परिवार से, जिसने इन बारीकियों को देखने, समझने और ग्रहण कर शब्दों को नए अर्थ देने की तालीम दी।

भारतीय ज्ञानपीठ पाने वाले हिंदी लेखकों में कवियों की संख्या अधिक है। पंत, दिनकर, अज्ञेय, श्रीनरेश मेहता, निर्मल वर्मा और कुंवर नारायण, इनमें से विशुद्ध कथाकार सिर्फ निर्मल वर्मा हैं। बाकी या तो कवि हैं या कवि-कथाकार। अज्ञेय कवि-कथाकार थे, लेकिन पुरस्कार कविता-कृति के लिए ही मिला। विशुद्ध कथा विधा के एकमात्र लेखक निर्मल वर्मा को पुरस्कार पूरा नहीं मिला, बल्कि गुरदयाल सिंह के साथ साझा मिला। यह संयोग मात्र है या हमारे निर्णायक गण कविता को कहानी की अपेक्षा ज्यादा महत्व देते हैं?

यह तो मानना ही होगा कि साहित्य की तमाम विधाओं में कविता मानवीय मन की विशिष्टतम अभिव्यक्ति है। इसका स्रोत मानवीय मन की उस गहन अनुभूति से है जो आत्मा रूह से जुड़ी है। इसे लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है। साहित्य संगठनों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार-सम्मानों की चुनाव प्रक्रियाएं संगठन और उसके द्वारा बनाए गए न्यास के माननीय सदस्यों पर निर्भर हैं। आज के समयों में उस पर विश्वास करने के अलावा कोई और चारा नहीं। यह निर्णय संगठन की आचार संहिता और राजनीति से अलग नहीं किए जा सकते। चुनाव प्रक्रियाएं असंख्य बारीकियों से घिरी रहती हैं। उदाहरण के लिए निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को दिया गया ज्ञानपीठ सम्मान विवाद के घेरे में रहा, जो इतना गलत भी नहीं था। राजनीति की दो विरोधी धाराओं की नुमाइंदगी करने वाली दो भाषाओं हिंदी और पंजाबी को बीच में रखकर सम्मान की बांट कर दी गई। जिससे दोनों भाषाओं के महत्वपूर्ण लेखकों की गौरव-हानि हुई। वैसे निर्मल जी चाहते तो कह सकते थे कि अपनी भाषा के सम्मान के लिए मैं इस साझेदारी का विरोध करता हूं।

आज देश के जो हालात हैं और जिस तरह की बयानबाजियां हो रही हैं...

देखिए राम कितने मितभाषी थे और लोग उनके नाम को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। यह मर्यादा पुरुषोत्तम की प्रतिष्ठा का हनन है। प्रधानमंत्री के बारे में कहा जा रहा है कि वे कमजोर हैं। हमको एक मर्द प्रधानमंत्री चाहिए। कमजोर कहना प्रधानमंत्री पद की गरिमा का हनन है। अगर यह कहते कि वे राजनीतिक दृष्टि से कमजोर हैं तो कोई बात नहीं थी। हो सकता है कि वे यही कहना चाह रहे हों लेकिन शब्दों के चयन में समझदारी दिखानी चाहिए। आज अगर हम माइनॉरिटी को, दलितों को, पिछड़ों को अपमानित करने वाली बात करेंगे, तो देश की एकता कैसे कायम रह पाएगी। लेकिन राजनीतिज्ञ ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं। और हमारा लेखक समाज भी इस पर मौन है।

एक तरफ लेखक देश की राजनीति को लेकर निस्संग है, दूसरी तरफ साहित्य की राजनीति में पूरी तरह डूबा हुआ है। पिछले दिनों महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका हिंदी के संपादन को लेकर गगन गिल द्वारा ममता कालिया को मीडियॉकर कहना और बदले में 'नया ज्ञानोदय' का संपादकीय। फिर एक अखबार में गगन जी का लेख। इस तरह के विवाद समाज में लेखक की किस तरह की छवि प्रस्तुत कर रहे हैं?

देश के राजनीतिक सांस्कृतिक परिदृश्य को बारीकी से देखें तो महसूस करेंगे कि लेखक वर्ग की व्यक्तिगत सामाजिक और मानसिक प्रतिबद्धता के पैमाने बदल गए हैं। लेकिन इसके लिए मात्र लेखक समाज ही जिम्मेदार नहीं। साहित्य को नियंत्रित करते राजनीतिक और सांस्कृतिक गलियारों के गठबंधन ने रचनात्मक मैनेजमेंट की अपनी बारीकियों से लेखकों के दृष्टिकोण को आर्थिक गुणा-भाग के स्वहित-साध्य में परिवर्तित कर दिया है। इस स्थिति ने लेखक की आंतरिक जटिलताओं, गहराइयों को निहायत हलके स्तर में रूपांतरित कर दिया है। लेखक बिरादरी की मनमौजी असावधान समझदारी ने देखते-देखते अपने अनुशासन को संस्थानों की रीति-नीति के अनुरूप ढाल लिया है। अकारण नहीं कि स्वयं लेखक खुद को और साहित्य को हाशिए पर देखने का आदी हो गया है। लेखक अपने आत्मपक्षी उत्साह उछाह में लेखकीय अस्मिता को फीका तो कर ही रहे हैं। साहित्यिक विवादों पर कुछ भी कहना नहीं चाहती। जब अनुभवी संपादक राजधानी के डेस्क से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को न उठाकर घरेलू प्रसंगों वाले संपादकीय लिखें, तो क्या पाठक भी उसे समयानुकूल समझ कर आदर और श्रद्धा से स्वीकार करेंगे?

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में इतना अच्छा लेखन हो रहा है, लेकिन उसे अंग्रेजी के बराबर महत्व क्यों नहीं मिल पाता?

हर भाषाई परिवार की संस्कृति और संस्कार गहरे तक उसके पाठक समाज से जुड़े होते हैं। भारतीय भाषाओं की रचनात्मक ऊर्जा नि:संदेह अंग्रेजी से कम नहीं। लेकिन अंग्रेजी के साहित्यिक वैभव, विभिन्न अनुशासनों के प्रकाशन और अंतरराष्ट्रीय बाजार के पाठक वर्ग तक पहुंच पाना हमारे भाषा लेखकों के लिए आज इतना आसान नहीं। भाषायी साहित्य का पाठक वर्ग सीमित है। इलीट अंग्रेजी को तरजीह देता है। भारतीय भाषाओं के अनुवाद के लिए एक अंतर्भारतीय और अंतरराष्ट्रीय अनुवाद संस्थान का होना जरूरी है, ताकि विविध भारतीय भाषाओं की रचनाओं के अनुवाद हो सकें।

आपने व्यास सम्मान अस्वीकार कर दिया, ताकि युवा पीढ़ी को मौका मिले। जबकि हिंदी के कई वरिष्ठ लेखक साल भर पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ करते रहते हैं और न मिलने पर विवाद खड़ा कर देते हैं। आखिर हमारे लेखकगण पुरस्कारों को इतना महत्व क्यों देते हैं?

'समय सरगम' के लिए व्यास सम्मान को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर मैं माननीय निर्णायक मंडल का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहती थी कि लेखकों को पुरस्कृत करने की नीति में कुछ बदलाव हो। युवा पीढ़ी और अपेक्षाकृत प्रौढ़ पुरानी पीढ़ी की लेखकीय ऊर्जा और उनसे जुड़ी संभावनाओं को ध्यान में रखकर निर्णायक मंडल निर्णय लें। किसी भी अच्छी कृति को एक सम्माननीय पुरस्कार तक पहुंचने में अगर आठ दस बरस लगें, तो उसे अनदेखा करना ही साहित्य के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा। पुरानी पीढ़ी और पुरानी कृति के सन्मुख नई कृति के पुरस्कृत होने के संयोग को निरर्थक हो जाने देना ठीक नहीं है। यहां यह कहना भी जरूरी है कि साहित्य अकादमी के खासे बड़े बजट में आज भी पुरस्कार राशि पचास हजार ही क्यों ? हर भाषा के लिए कम से कम लाख का प्रावधान तो होना ही चाहिए। यहां छोटे व्यक्तिगत पुरस्कारों के बारे में भी यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि लेखकों की दयनीय स्थिति के प्रसंग उभारकर उन्हें पुरस्कार देना उनका ही नहीं, शब्द- संस्कृति का भी अपमान है। हम व्यवस्था, संगठनों और लेखकों से यह कहना चाहते हैं कि एकांत क्षेत्र में लेखकों के आवास और कार्यकारी सुविधाओं की बात हम क्यों नहीं सोचते। हर प्रदेश ऐसी योजना को अंजाम दे सकता है। साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट भी ऐसी पहल कर सकते हैं।



15 comments:

Ek ziddi dhun said...

लयात्मकता का रचनात्मक विचार और पात्रों के निजी संवेदन से संबध होने की बात ठीक ही कह रही हैं सोबती जी. मर्द पीएम् की मांग और `साहित्यिक` विवाद जैसे मसलों पर भी उनकी राय पढ़कर अच्छा लगा कि इस उम्र में भी वे कितनी चेतन हैं.

हरिओम तिवारी said...

Arun ji congrat.Its a good interview

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प रहा उनका ये पहलू भी....

Unknown said...

is sundar,sajeele,sahityik va sarthak samvaad k liye
shandar badhaiyan

शायदा said...

badhiya interview. mujhe yaad ho aaya krishna jee ka shimla pravas aur unse baatcheet. uske baad apne hi samay sargam par mujhse sameeksha likhwai thee.

Anshu Mali Rastogi said...

बंधु, कब तक इन थक चुकी आत्माओं से बातचीत करते रहेंगे। इनसे हमें अब कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। यह नया दौर है। इस नए दौर के नए लेखकों से साहित्य और समाज पर बात करें। जो नई पीढ़ी दे सकती है वैसी सोच पुरानी पीढ़ी के पास कहां।

आभा said...

अच्छा साक्षात्कार.....बुढ़ापा हो तो ऐसा हो....

उषा वर्मा said...

कृषणा जी भाषा के विषय में आपके सुलझे विचार पढ़ कर बहुत कुछ सीखने को मिला।अत्यंत स्पष्ट।
वह दिन दूर नहीं जब साहित्यकारों पर से लोगों का विश्वास उठ जाएगा जैसे राजनीतिज्ञों पर से जनता का उठ गया है।
उषा वर्मा

प्रदीप कांत said...

विरासत का सम्मान ही नया करने को प्रेरित करता है. एक अच्छी बात चीत के लिये बधाई.

- प्रदीप कान्त
मधु कान्त

विवेक भटनागर said...

पहले भी पढ़ चुका था. दोबारा पढ़कर अच्छा लगा. आपके सभी इंटरव्यू महत्वपूर्ण होते हैं. आगे चलकर आपकी पूंजी बनेंगे.
www.andaz-e-byan.blogspot.com

varsha said...

shandar sakshatkar jaise dhadhar sawal vaise belag jawab.

मुकेश कुमार तिवारी said...

अरूण जी,

पहले श्री प्रदीप मिश्रा से आपके ब्लॉग के बारे में सुना था, फिर मेरे कवि मित्र श्री जीतेन्द्र चौहान (इन्दौर) से मिलने के बाद आज आ पाया, इस देरी के बड़ी शिद्दत से महसूस किया।

सुश्री कृष्णा सोबती जी से मुलाकात ने बीते हुये से लगाकर वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में राजनैतिक उतार चढावों का साहित्य पर असर और साहित्य की वर्तमान दशा पर खुलकर विचार व्यक्त किये। और आपने बाखूबी कलमबंद किया और हम सब तक पहूँचाया।

रोचक चर्चा के लिये धन्यवाद,


सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

Ashok Kumar pandey said...

कृष्णा जी का भाषा के संबद्ध में विचार हम युवाओं के लिये बेहद महत्वपूर्ण है।
जो लोग यह मानते हैं कि कथ्य के बिना केवल कला से लयात्मक भाषा पैदा कर कृति को रोचक बनाया जा सकता है वे उनके लिखे से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
प्रस्तुति के लिये आभार
अंशुमाली भाई…विचार नये या पुराने होते हैं…व्यक्ति नहीं…यह यूं ही तो नहीं कि नयी पीढी के तमाम लोग कलावाद के पुरामे ढोल पर नया राग निकालने की कोशिश कर रहे हैं। यहां राहुलीय आलाप-प्रलाप नहीं चलता।

Arun Aditya said...

shukriya dosto.

desh nirmohi said...

uday ji ka sakshertar harigandha may prakashit ho gaya hai ank mila hoga