Friday, February 26, 2010
डर के पीछे जो कैडर है
एम एफ हुसैन का आत्म निर्वासन हो, या तस्लीमा नसरीन का निर्वासन, सलमान रुश्दी के खिलाफ मौत का फतवा हो या सफदर हाशमी की हत्या...इनके जरिए फासीवादी शक्तियां सिर्फ इन व्यक्तियों को ही नहीं, अपने सोच से अलग सोच रखने वाले हर दिमाग को नियंत्रित करना चाहती हैं। वे बहुरंगी संस्कति में यकीन नहीं करते, पूरी दुनिया को एक ही रंग में रंग देना चाहते हैं। यह प्रवृत्ति नई नहीं है, लेकन हाल के वर्षों में यह और ज्यादा घातक हुई है। सृजन-संस्कृति पर इस प्रवृत्ति के भयावह प्रभाव को रेखांकित करती है यह कविता जो हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा में 2008 में छपी थी। आज हुसैन के बहाने यह फिर प्रासंगिक लग रही है...
डर के पीछे जो कैडर है
यह केसरिया करो थोड़ा और गहरा
और यह हरा बिल्कुल हल्का
यह लाल रंग हटाओ यहाँ से
इसकी जगह कर दो काला
हमें तस्वीर के बड़े हिस्से में चाहिए काला
यह देवता जैसा क्या बना दिया जनाब
इसके बजाय बनाओ कोई सुंदर भूदृश्य
कोई पहाड़, कोई नदी
अब नदी को स्त्री जैसी क्यों बना रहे हो तुम
अरे, यह तो गंगा मैया हैं
इन्हें ठीक से कपड़े क्यों नहीं पहनाये
कर्पूर धवल करो इनकी साड़ी का रंग
कहाँ से आ रही है ये आवाज
इधर-उधर देखता है चित्रकार
कहीं कोई तो नहीं है
कहीं मेरा मन ही तो नहीं दे रहा ये निर्देश
पर मन के पीछे जो डर है
और डर के पीछे जो कैडर है
जो सीधे-सीधे नहीं दे रहा है मुझे धमकी या हिदायत
उसके खिलाफ कैसे करूं शिक़ायत?
- अरुण आदित्य
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
17 comments:
सांप्रदायिक शक्तियां यह लड़ी बिना किसी मुकाबले के जीती हैं. सेक्युलर ताकतों ने मोर्चा ही कहाँ लिया? बल्कि जनवादी खेमों में बैठे रंगे सियार भी शायद माहौल बदलने ka hee इंतज़ार kar rahe थे. आप अभी भी इस सब को चिंताजनक मान रहे हैं वरना तो साहित्य को समाज से क्या मतलब? फिर बदले माहौल में क्यूँ किसी से बिगाड़ी जय? आखिर itne `सेक्युलर` aur `वामपंथी` bloger is मसले पर खामोश क्यूँ हैं?
बेहद सटीक और मौजूं कविता है।
sach hai jab man hi is tarah ke nirdesh paane lage to kahan rah gaya srajan aur kaisi abhivyakti. kya pahre lagaen hain hamne eekisvin sadi mein
डर के पीछे जो रंग हैं... विचलित करने वाले. वाक़ी हमें पूरी तस्वीर ही काली चाहिए.
हाय, यह कम्युनिस्ट से मुसलमान बनने की कहानी भी बड़ी रोचक है। जिंदगी भर कम्युनिस्टी गिरोह में काम करने का कोई असर नहीं दिखा। संस्कृत का वह श्लोक ... हिन्दी में -
" श्वान को यदि राजा बना दिया जाय तो क्या वह जूता खाना छोड़ देगा? ...."
yah ek badi kavita hai. ab tak nahin padhi thi..thoda afsos ho raha hai...bade bhai salaam aapko.
behad prasangik
बिल्कुल नहीं अनुनाद जी
मंत्री, परधान मंत्री और मुख्यमंत्री बनने के बाद भी भेड़िये ने ख़ून पीना कहा छोड़ा?
सटीक कविता|
सर, बहुत आसान है नफरत के इस माहौल में किसी का भी डर जाना, लेकिन जिन चारों कलाकारों का आपने यहाँ जिक्र किया है उन्होंने बड़ी
बेबाकी से अपने-अपने तालिबानों का मुकाबला किया और उसके आगे कभी घुटने नहीं टेके...लेकिन मुझे वाकई लगता है की कहीं इस सब के बीच हमारी 'अभिव्यक्ति' तो दम नहीं तोड़ रही!!!
badhai arun ji. mai shireesh se poori tarah sahmat hun. adbhut kavita hai. apne hi khas andaj wali abhivyakti. samkaalin kavita mai vishisht swar. bahut der se padi, par bahut 2 badhai.
hari mridul.
यहाँ सारे भीष्म पितामह बैठे हैं क्या !
डर के पीछे जो कैडर है .. बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्त हुआ है इस कविता में ।
ताज़ी पोस्ट = http://wwwsharadkokas.blogspot.com पर
dhanyavaad doston.
प्रख्यात चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के बहाने आपने जिन फासीवादी शक्तियों को बेनकाब किया है वह काबिलेतारीफ है .....,इतनी सुंदर अभिव्यक्ति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई ।
आपका ब्लॉग देखा- बहुत ही सुरुचिपूर्ण और समृद्ध .शमशेर पर आपका लेख पढ़ा - आपका यह कहना सही है कि वे एक ही नाव के सवार हैं और उन्हें अपनी दिशा पता है.और इस दिशा पर कला का कोई कुहासा नहीं है. उनपर अक्सर यह आरोप की तरह दुहराया जाता रहा है कि उनकी कविता में कला का आधिक्य है.
डर के पीछे जो कैडर है यह कविता मुझे बहुत अच्छी लगी. हुसैन के निर्वासन को लेकर हिंदी का साहित्य दो अलग अलग विचारों का प्रतिनिधित्व करता है. पर इस के नेपथ्य में जो काला रंग है उसकी ओर आपने ठीक ध्यान दिलाया. यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं--
यह केसरिया करो थोड़ा और गहरा
और यह हर बिल्कुल हल्का
यह लाल रंग हटाओ यहाँ से
इसकी जगह कर दो काला
हमें तस्वीर के बड़े हिस्से में चाहिए काला
सुन्दर और बेबाक अभिव्यक्ति.
Post a Comment