Monday, January 25, 2010

जब इस तरह घना हो कोहरा




'कोहरा 'कविता द पब्लिक एजेंडा मैगजीन के ताजा अंक में छपी है। द पब्लिक एजेंडा से हिंदी के दो सुप्रसिद्ध कवि जुड़े हुए हैं। इसके संपादक मंगलेश डबराल और साहित्य संपादक मदन कश्यप हैं।

कोहरा


कई दिनों से छाया हुआ है कोहरा घना
कंपकंपाती ठंड और सूरज का कहीं अता पता नहीं
जहां तक नजर जाए बस धुआं ही धुआं
और धुएं में उलझे हुए जलविंदु अतिसूक्ष्म

जरा सी दूर की चीज भी नजर नहीं आ रही साफ-साफ
टीवी अखबार से ही पता चलता है
कि क्या हो रहा है हमारे आस-पास

45 रेलगाड़ी से कट मरे
54 सड़क दुर्घटनाओं में
140 ठंड से
अलग-अलग कारणों से मरे नजर आते हैं ये 239 लोग
पर वास्तव में तो ये कोहरा ही है इनकी मौत का जिम्मेदार

इनके अलावा और कितने लोग
और कितनी चीजें हुई हैं इस कोहरे की शिकार
इसका हिसाब तो मीडिया भी कैसे दे सकता है
जो स्वयं है इस धुंध की चपेट में

जब इस तरह घना हो तो कोहरे में देखते हुए
सिर्फ कोहरे को ही देखा जा सकता है
और उसे भी बहुत दूर तक कहां देख पाते हैं हम
थोड़ी दूर का कोहरा
दिखने ही नहीं देता बहुत दूर के कोहरे को
और बहुत पास का कोहरा भी कहां देख पाते हैं हम

घने से घने कोहरे में भी
हम साफ-साफ देख लेते हैं अपने हाथ-पांव
इसलिए लगता है
कि एक कोहरा मुक्त वृत्त में है हमारी उपस्थिति
जबकि हकीकत में इस वृत्त में भी
होता है कोहरा उतना ही घना
कि दस गज दूर खड़ा मनुष्य भी नहीं देख सकता हमें
ठीक उसी तरह जैसे उसे नहीं देख पाते हैं हम

इस घने कोहरे में
जब जरा से फासले पर खड़ा मूर्त मनुष्य ही नहीं दिखता मनुष्य को
तो मनुष्यता जैसी अमूर्त चीज के बारे में क्या कहें?

महर्षि पराशर !
आपने अपने रति-सुख के लिए
रचा था जो कोहरा
देखो, कितना कोहराम मचा है उसके कारण

इस बात से पता नहीं तुम खुश होगे या दुखी
कि धुंध रचने के मामले में
तुम्हारे वंशज भी कुछ कम नहीं
अपने स्वार्थ के लिए
और कभी-कभी तो सिर्फ चुहल के लिए ही
रच देते हैं कोहरा ऐसा खूबसूरत
कि उसमें भटकता हुआ मनुष्य
भूल जाता है धूप-ताप और रोशनी की जरूरत

भूल ही नहीं जाता बल्कि कभी-कभी तो
उसे अखरने भी लगती हैं ये चीजें
जो करती हैं इस मनोरम धुंध का प्रतिरोध।

- अरुण आदित्य

चित्र यहाँ से साभार

Wednesday, January 13, 2010

उत्तर वनवास के बारे में वरिष्ठ कथाकार संजीव की राय


उपन्यास उत्तर वनवास का आवरण तैयार हो गया है। वरिष्ठ चित्रकार-कथाकार प्रभु जोशी की पेंटिंग से सज्जित यह आवरण आपको कैसा लग रहा है, जरूर बताएं। उम्मीद है कि उपन्यास दिल्ली के पुस्तक मेले में आधार प्रकाशन के स्टाल पर उपलब्ध रहेगा। बहरहाल उपन्यास के आने से पहले आइए देखते हैं कि वरिष्ठ कथाकार और हंस के कार्यकारी संपादक संजीव की इस उपन्यास के बारे में
क्या राय है?







उत्तर वनवास : एक अभिनव प्रयास

संजीव
हिंदी पट्टी के लोकजीवन में 'राम चरित मानस का प्रभाव बहुत गाढ़ा रहा है। वर्षों पहले प्रतापगढ़ में बाबा रामचंद्र दास ने किसान आंदोलन में इसकी चौपाइयों-दोहों का धनात्मक उपयोग किया था। अग्रणी बांग्ला कथाकार सतीनाथ भादुड़ी ने रामचरित मानस का अपने उपन्यास 'ढोंड़ाय चरित मानस' में पुन: उपयोग किया। इस बार का मानस तुलसी के मानस का एंटी मैटर था। एक राजनीतिक पार्टी के लिए 'राम चरित मानस' को सीढ़ी बनाकर सत्ता तक पहुंचना जितना आसान है, एक रचनाकार के लिए उसका सकारात्मक उपयोग उतना ही मुश्किल होता है।
इधर अक्सर ही कहा जाने लगा है कि हिंदी की युवा पीढ़ी के पास अपना कोई उपन्यास नहीं है या कि उसमें उपन्यास लेखन की क्षमता नहीं है। दूसरी तरफ भाषा की सामथ्र्य के दोहन का भी मुद्दा है। भाषा के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने को इच्छुक हर शब्द साधक का पहले की अपेक्षा अधिक सामथ्र्य संपन्न होना लाजमी हो गया है। इन सारी चुनौतियों का जवाब बन कर आया है युवा कथाकार अरुण आदित्य का उपन्यास उत्तर-वनवास।
कथानायक रामचंद्र की मुठभेड़ उन तत्वों से होती है जो राम का उपयोग अपने निहित स्वार्थों के लिए करना चाहते हैं। अंत:, वाह्य दोनों स्तरों पर यह द्वंद्वात्मकता परवान चढ़ती है, स्थूल रुप में भी और प्रतीक रूप में भी। वहां राम का चौदह वर्षों का वनवास है, यहां सत्रह वर्षों का, रामचंद्र का ही नहीं, उनकी चेतना का भी।
सामंती मानसिकता के क्रोड़ में रचे-रसे अवध के गांव, गांव के ठाकुरों और ब्राह्मणों में वर्चस्व का द्वंद्व, द्वंद्व में पिसते दलित और स्त्रियां, धर्म, अध्यात्म, राजनीति और कदाचार, वर्ण और वर्ग, गत और अनागत, परछाइयां और आहटें - सब को अपने ढंग से पिरोता, पछींटता, खंगालता अपने भाषिक वितान में फैलाता चलता है उपन्यास। पारदर्शिता के स्तर पर, मौजूदा व्यवस्था की कारक शक्तियों के चेहरों और चरित्रों को आसानी से पहचाना जा सकता है; भाषा के स्तर पर, विश्लेषण के स्तर पर, फंतासी और कल्पनाशीलता के स्तर पर अरुण का यह एक अभिनव प्रयोग है।
बानगी के तौर पर उपन्यास के कुछ अंश- 'दरअसल हम एक डरे हुए समय में जी रहे हैं। डरी हुई राजनीति, डरा हुआ धर्म और डरा हुआ समाज बहुत खतरनाक होते हैं। और इन सब से ज्यादा खतरनाक होती है डरी हुई पत्रकारिता। और ये हमारे देस का दुर्भाग्य है कि हमें इन डरी हुई चीजों के बीच ही रहना पड़ रहा है।'
'... रामचंद्र उसके पीछे इतनी तेजी से लपके कि नींद से बाहर निकल गए। नींद से बाहर आने के बाद भी सपने से बाहर आने में उन्हें काफी देर लगी।'
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पुनश्च:
कुछ मित्रों ने आधार प्रकाशन का पता जानना चाहा है। पता इस प्रकार है:
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पंचकूला, हरियाणा।

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