Thursday, April 30, 2009

फूंकि फूंकि धरनी पग धारौ, महा कठिन है समौ अजोग


कल का दिन सूरदास को समर्पित रहा। सुबह साढ़े दस बजे सूर बाबा की जन्मस्थली सीही (फरीदाबाद) की रज को माथे लगाने का अवसर मिला। देश निर्मोही, डॉ. सुभाष और कई स्थानीय साहित्यकार साथ थे। सबने सीही में सूर स्मारक परिसर में महाकवि की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। उससे पहले वहां के एक भक्त ने हम सब का तिलक किया। स्मारक न्यास के प्रमुख ने बताया कि परिसर में एक पुस्तकालय खोलने की भी योजना है। जब भी कहीं पुस्तकालय खुलने की सूचना मिलती है मन उछल पड़ता है। सो कल दिन की शुरुआत बहुत अच्छी रही। इस सुखद शुरुआत के बाद साहित्यकारों का जत्था फरीदाबाद के मैगपाई टूरिस्ट सेंटर पहुंचा। वहां हरियाणा साहित्य अकादमी ने सूरदास की ५३१ वीं जयंती के उपलक्ष्य में सूरदास: एक पुनर्मूल्यांकन शीर्षक से एक परिसंवाद का आयोजन किया था। परिसंवाद में सुपरिचित समालोचक डॉ. मैनेजर पांडे, सुपरिचित कवि मनमोहन, कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक डॉ. सुभाष के व्याख्यान के अलावा मैंने भी एक संक्षिप्त पर्चा पढ़ा। पर्चा आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है:

सूरदास: एक पुनर्पाठ

फूंकि फूंकि धरनी पग धारौ

-अरुण आदित्य

किसी कवि के पुनर्मूल्यांकन के लिए उसके समग्र रचनाकर्म का अध्ययन आवश्यक है। इस लिहाज से मैं अत्यंत विनम्रता के साथ यह स्वीकार करता हूं कि मैं अभी तक सूर-साहित्य के महासागर की कुछ बूंदों का ही स्पर्श कर पाया हूं। सूर सागर के लाख से अधिक पद, फिर सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयंती, व्याहलो आदि प्राप्य-अप्राप्य रचनाओं का विशाल महासागर और इसके बरक्स मेरी अपनी सीमाएं। विज्ञान का विद्यार्थी रहा। साहित्य का पठन-पाठन स्वरुचि और सुविधा के मुताबिक जितना संभव हुआ उतना ही कर पाया। हालांकि सूरदास, तुलसी और कबीर जनमानस में इस कदर रचे बसे हैं कि इन पर थोड़ा-बहुत बोलने का अधिकारी कोई भी हो सकता है, लेकिन वह इन महाकवियों का मूल्यांकन नहीं होगा। मैं भी जो कुछ कहने जा रहा हूं वह मूल्यांकन नहीं है। सिर्फ एक पुनर्पाठ है। मेरा अपना पाठ। यानी आज के संदर्भ में एक पाठक के रूप में मैं महाकवि सूर को किस रूप में पढ़ता हूं। दूसरे शब्दों में कहूं तो आज की जटिल गुत्थियों को समझने या सुलझाने में सूरदास मेरे कितने काम आते हैं। मुझे अपनी सीमाएं पता हैं, इसलिए सूर बाबा के शब्दों का सहारा लेकर पहले ही माफी मांग लेता हूं कि प्रभु मोरे अवगुन चित न धरौ।
सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं। आज दलित और स्त्री-विमर्श हमारे साहित्य के मुख्य स्वर हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि सूरदास के काव्य में ये दोनों किस रूप में मौजूद हैं। भ्रमर गीत में जिस तरह गोपियां खुलकर प्रेम की बात करती हैं, वहां स्त्री के स्वातंत्र्य और साहस के बीज देखे जा सकते हंै। गोपियां साफ-साफ कह देती हैं कि वे वही करेंगी, जो उनका मन कहेगा-ऊधो, मन माने की बात। कोई भी प्रलोभन या भय उन्हें नहीं डिगा सकता है। वे अमृत के अस्वीकार के साथ ही विष और अंगार को स्वीकार करने का भी साहस रखती हैं। देखिए कितने बेबाक तरीके से वे अपनी बात कहती हैं:
ऊधो, मन माने की बात।
दाख छुहारो छांडि़ अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥

जो चकोर को देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।

मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥

ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात।

सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥

आज हमारे यहां स्त्री को अपने मन की करने का ऐसा उद्घोष करने की कितनी स्वतंत्रता है? इसी तरह दलित विमर्श के बीज भी सूर के काव्य में देखे जा सकते हैं। कृष्ण जब विदुर के घर भोजन करते हैं तो दुर्योधन पूछता है-
षटरस व्यंजन छाडि़ रसौई साग बिदुर घर खाये॥
ताकी कुटिया में तुम बैठे, कौन बड़प्पन पायौ।

जाति पांति कुलहू तैं न्यारो, है दासी कौ जायौ॥

इस पर सूर दुर्योधन को कृष्ण से जो जवाब दिलवाते हैं उसमें जाति-भेद का स्पष्ट नकार है। वे स्पष्ट संदेश देते हैं कि भेदभाव से मुक्त और प्रेम आधारित समाज ही कृष्ण का अभीष्ट है।
जाति-पांति हौं सबकी जानौं, भक्तनि भेद न मानौं।
संग ग्वालन के भोजन कीनों, एक प्रेमव्रत ठानौं॥

आज के संदर्भ में हम देखें कि किस तरह हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को जातिवाद किस तरह खोखला कर रहा है। हालांकि आज सवर्ण प्रभु वर्ग के लोग दलित की झोपड़ी में खाना खा रहे हैं और दलित राजनीति भी उच्च वर्ग से सौजन्य बिठा रही है, लेकिन यह सब स्वहित के लिए हो रहा है। श्रीकृष्ण किसी स्वार्थ के तहत नहीं बल्कि नीति के तहत ऐसा करते हैं। स्वार्थ या शक्ति-संतुलन की बात होती तो वे दीनहीन विदुर के बजाय सर्वथा शक्तिशाली दुर्योधन का ही आमंत्रण स्वीकार करते। लेकिन यह राजनीति के विपरीत होता। कृष्ण के समय समय नीति और राजनीति का अर्थ एक ही था। लेकिन सूर के समय में नीति और राजनीति लगभग विपरीतार्थी शब्द हो चुके थे। सूर नीति की बात करके सत्ता को जाति-निरपेक्ष होने का संकेत दे रहे थे तो समाज को भी संदेश दे रहे थे कि अगर ईश्वर मनुष्य और मनुष्य में भेद नहीं करता तो तुम क्यों करते हो?
सूरदास आज इसीलिए प्रासंगिक हैं कि उन्होंने अपनी कविता में अपने समय को दर्ज किया है। दरअसल कोई भी कवि तभी कालातीत होता है जब वह अपने देश-काल की धड़कन को अपनी रचना में व्यक्त कर पाता है। पर सवाल यह है कि सूर का समय क्या था। अमृतलाल नागर ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास खंजन नयन की शुरुआत में ही उस समय की एक हलकी सी झलकी दिखा दी है-
'मथुरा मती जइयो। आज खून की मल्हारें गाई जा रही हैं वां पे।'
सुनकर नाव पर बैठी सवारियां सन्न रह गईं। ...सभी के होशो-हवास सूली पर टंग गए। '
आखिर बात क्या हुई भैयन?'

'सुलतान के राज में मारकाट के काजे कभी कोऊ बात होवे है भला। त्योहार को दिना, हमारी मां बहिन के माथे कौ सिंदूर आग की लपटों सो उठ रयो है चौराए चौराए पै।'
क्या हमें नहीं लगता कि हम सूर के जमाने का नहीं अपने ही जमाने का कोई संवाद सुन रहे हैं। इसे पढ़ते हुए यह सवाल बार-बार मन में आता है कि क्या हमारा समय सूर के समय से अलग है? बहरहाल सूर का समय जैसा भी रहा हो पर आज के समय में भी बहुत सी स्थितयों और समस्याओं के संदर्भ में मुझे अकसर सूर के पद याद आते हैं। ऐसी स्थितियों को अलग से खोजने की जरूरत नहीं है, अनेक उदाहरण अपने आस पास ही मिल जाएंगे। मसलन, आज हमारे आसपास ऐसे अनेक चेहरे नजर आते हैं जो धर्म का चोला ओढ़ कर अधार्मिक कृत्यों में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों पर सीधे हमला करना न तब खतरे से खाली था और न अब। इसलिए सूरदास खुद के बहाने इन लोगों की खबर लेते हैं-
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
राजनीत से समाज तक, और देवालय से कार्यालय तक महा मोह के घुंघरू बजाने वाले निंदा रस में डूबे लोगों की पूरी की पूरी फौज नजर आ रही है। ऐसा लग रहा है जैसे निंदा हमारे लोकतंत्र का पांचवां खंबा है। एक दूसरे की ऐसी तैसी करना ही डेमोक्रेसी है। ऐसे लोगों की हरकतों पर गौर कीजिए और फिर इन पंक्तियों में उन्हें खोजिए:
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
माया का फेंटा बांधे, और लालच का तिलक लगाए लोग, जो तरह-तरह से कलाबाजी दिखा रहे हैं, उन्हें क्या इस बात से कोई मतलब है कि उनकी इस कलाबाजी का देशकाल से कोई संबंध है? वे तो देशकाल की परवाह न करते हुए उपदेश-आश्वासन दिए जा रहे हैं। पर क्या उन्हें इस बात की चिंता है कि वे उपदेश जनता के लिए कितने प्रासंगिक होते हैं। इस संदर्भ में मुझे सूर के एक और पद की याद आ रही है। गोपियों और उद्धव के संवाद के बहाने वे अपने समय के प्रभु वर्ग को साफ-साफ कहते हैं कि हमें ऐसे उपदेश दीजिए जो हमारे काम के हों -
ऊधो, हम लायक सिख दीजै।
आगे वे और भी कठिन सवाल खड़ा कहते हैं-
यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥

यानी तुम्हारा यह उपदेश हमें आग जैसा जला रहा है, हम इस पर अमल कैसे करें? आज हमारे प्रभुवर्ग के लोग कैसे-कैसे आश्वासन दे रहे हैं, लेकिन उन पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं है। कोई कहता है स्विस बैंक का पैसा लाएंगे और देश को मालामाल कर देंगे। हम सुन लेते हैं लेकिन यह नहीं पूछते कि लाएंगे कैसे? कोई यह सवाल नहीं उठा रहा कि लोग रोटी को तरस रहे हैं और आप उन्हें मुफ्त मोबाइल या मुफ्त लैपटॉप देने की बात कर रहे हैं। ऐसे में फिर-फिर सूर की पंक्तियां याद आती हैं -
सूर, कहौ सोभा क्यों पावै आंखि आंधरी आंजै॥
यानी जिसके पास आंख ही नहीं है, उसे आप अंजन लगाकर खुश करना चाहते हैं। जो आदमी दो जून की रोटी का मोहताज है उसे लैपटाप देने की बात करेंगे तो उसके तन बदन में आग नहीं लगेगी तो क्या होगा? पर वहां तो तन बदन में आग लगने पर उसे अभिव्यक्त करने का साहस था। हम तो ठगों को यह भी नहीं कह पाते कि यह ठगी हमें स्वीकार्य नहीं है। क्या वे गोपियां हमसे ज्यादा साहसी नहीं थीं जो खुलेआम कृष्ण के दूत से कह देती हैं कि तुम्हारा यह ठगी का धंधा यहां नहीं चलने वाला है-
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहैं।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥

क्या हम अपने कर्णधारों से यह कह सकते हैं कि हम तुम्हारा धंधा नहीं चलने देंगे।
अंत में फिर एक बार सूर के समय की चर्चा। एक पद में देखिए कि वे किस तरह अपने समय को बूझते हैं। इस पद में समय की क्रूरता और उससे निपटने के लिए आवश्यक सजगता दोनों का उल्लेख है-
हम अहीर ब्रजवासी लोग
ऐसे चलौ हंसै नहिं कोऊ, घर में बैठि करौ सुख भोग

सिर पै कंस मधुपुरी बैठ्यों छिनकहि में करि डारै सोग
फूंकि फूंकि धरनी पग धारौ, महा कठिन है समौ अजोग।

कंस तो द्वापर में था फिर सूर कलयुग में किस कंस की बात कर रहे हैं। जाहिर है कि वे अपने समय के कंस की बात कर रहे हैं जो क्षण भर में ही शोक रच सकता है। सूरदास समौ अजोग यानी कठिन समय की बात करते हैं पर हमारा समय तो और भी अजोग है। जिधर नजर डालते हैं उधर ही कोई कंस मुस्कराता नजर आता है। लिहाजा बहुत ही फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है। खासकर इस समय जब हम अपने भाग्यविधाता का चुनाव करने जा रहे हैं।