विदा होती बेटी
जैसे पलट-पलट कर देखती है माँ की देहरी
जाते-जाते अचानक ठिठक कर देखती है ठंड
और कांप उठते हैं दिन- रात
जैसे कांपता है मां का हृदय बेटी की सिसकियों के साथ
कांपते समय को पीछे छोड़ आगे बढ़ती है ठंड
और मौसम वसंत हो जाता है
जिसकी हवाओं पर
बर्फ के फाहों की तरह जमा हैं जनवरी की स्मृतियाँ
जिन्हें हौले-हौले पिघला रही है मार्च के आने की उम्मीद
जनवरी के जाने और मार्च के आने के बीच
यह जो अलग सी ठंड है, और अलग सी गरमी है
और यह जो न ठंड है, न गरमी है
जिसे न तीस चाहिए न इकतीस
उनतीस या अट्ठाईस दिन पाकर भी
जिसकी झोली भरी है
वही तो फरवरी है
ये फकत एक माह नहीं
जीने की राह है प्यारे
-अरुण आदित्य
( गौरीनाथ द्वारा संपादित साहित्यिक पत्रिका बया में प्रकाशित)
10 comments:
सुन्दर कविता ।
बहुत ख़ूबसूरत है भाई. बहुत ही बढ़िया रचना.
अच्छी बात। सुंदर कविता। बधाई।
Bahut sundar kavita.
कविता मे जान कहूँ या कि जान मे कविता कहूँ ? बेहद सुंदर भाव ! आप मस्त लिखते रहे हम पढ़ते ही रहेंगे .
फरवरी को लेकर समय का सटीक पड़ताल। बधाई अरूण।
बहुत खूबसूरत..
http://kavikulwant.blogspot.com
कवि कुलवंत सिंह
nice poems
सचमुच जीने की राह सुझाती
प्रेरक कविता ......बधाई !
धन्यवाद, धीरे-धीरे ही सही पर लिखना शुरु किया है.
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