Sunday, February 3, 2008

फरवरी

विदा होती बेटी
जैसे पलट-पलट कर देखती है माँ की देहरी
जाते-जाते अचानक ठिठक कर देखती है ठंड
और कांप उठते हैं दिन- रात
जैसे कांपता है मां का हृदय बेटी की सिसकियों के साथ

कांपते समय को पीछे छोड़ आगे बढ़ती है ठंड
और मौसम वसंत हो जाता है
जिसकी हवाओं पर
बर्फ के फाहों की तरह जमा हैं जनवरी की स्मृतियाँ
जिन्हें हौले-हौले पिघला रही है मार्च के आने की उम्मीद

जनवरी के जाने और मार्च के आने के बीच
यह जो अलग सी ठंड है, और अलग सी गरमी है
और यह जो न ठंड है, न गरमी है
जिसे न तीस चाहिए न इकतीस
उनतीस या अट्ठाईस दिन पाकर भी
जिसकी झोली भरी है
वही तो फरवरी है

ये फकत एक माह नहीं
जीने की राह है प्यारे

-अरुण आदित्य
( गौरीनाथ द्वारा संपादित साहित्यिक पत्रिका बया में प्रकाशित)

10 comments:

अफ़लातून said...

सुन्दर कविता ।

अमिताभ मीत said...

बहुत ख़ूबसूरत है भाई. बहुत ही बढ़िया रचना.

अजित वडनेरकर said...

अच्छी बात। सुंदर कविता। बधाई।

समर्थ वाशिष्ठ / Samartha Vashishtha said...

Bahut sundar kavita.

संजय शर्मा said...

कविता मे जान कहूँ या कि जान मे कविता कहूँ ? बेहद सुंदर भाव ! आप मस्त लिखते रहे हम पढ़ते ही रहेंगे .

प्रदीप मिश्र said...

फरवरी को लेकर समय का सटीक पड़ताल। बधाई अरूण।

Kavi Kulwant said...

बहुत खूबसूरत..
http://kavikulwant.blogspot.com
कवि कुलवंत सिंह

neelima garg said...

nice poems

Dr. Chandra Kumar Jain said...

सचमुच जीने की राह सुझाती
प्रेरक कविता ......बधाई !

idharsedekho said...

धन्यवाद, धीरे-धीरे ही सही पर लिखना शुरु किया है.