Saturday, February 23, 2008

चोखेर बाली और चोखेर अश्रु

शिल्प , शिल्पा, शिल्पायें

कश्मीर से कन्या कुमारी तक सजा है तोरण द्वार
पुष्प अक्षत बरसाए जा रहे हैं लगातार
वो आ रही है राष्ट्रीय गौरव की प्रतिमूर्ति
सफलता के गरुण पर सवार
हवा में चुम्बन उछालती जुल्फें लहराती
जताती देश वासियों के प्रति हार्दिक आभार

महात्मा गाँधी ने शुरू की थी जो लड़ाई
नेल्सन मंडेला जिसके लिए बरसों रहे जेल में
हमारी चित्र-पट नायिका ने जीत लिया उसे खेल-खेल में
नस्लभेद का चक्रव्यूह अपने आंसुओं से भेद
उसने बढ़ाया है देश का मान
उसके स्वागत में गाए जा रहे स्वस्तिगान

भारतीय संस्कृति की वह नई ब्रांड अम्बेस्डर
उसने दिखा दी है ब्रांड इंडिया की ताकत
कि झुक कर माफ़ी मांग रहा है इंग्लिस्तान
वाकई उसके आंसुओं में है बहुत जान
सलोने गालों पर कितने करीने से सजे हैं
मोतिओं की तरह झिलमिलाते

जिन्हें इतनी नजाकत से पोंछती है वह
कि लगता है आंसू पोंछना भी एक कला है


सारे चैनल्स पर छाया है उसका अश्रु-वैभव
पर चैनल्स के बाहर भी एक ऐसी दुनिया है
जहाँ नस्लभेद का होना ओर न होना
दोनों का मतलब है रोना और रोना


हमारे पड़ोस में एक शिल्पा रो रही है
कि उसे घुसने नहीं दिया ठाकुर जी के मन्दिर में
उससे भी ज्यादा करुण स्वर में रो रही है एक और शिल्पा
कि अब वह ठाकुर के लिए अछूत नहीं रही

बार-बार रोना न पड़े इसलिए एक शिल्पा
मार दी गई माँ की कोख में
एक और शिल्पा जो नहीं मरी तमाम प्रयासों के बावजूद
अब मार खा रही है
कि क्यों खा गई भाई के लिए रखी रोटी


और भी हैं हजारों हजार शिल्पायें
जिल्लत और किल्लत का शिकार
अपनी नियति पर रोती जार-जार
पर किसी काम का नहीं है उनका रोना
कि उनके पास नहीं है रोने का शिल्प


उनके आंसुओं की चर्चा नहीं होती कहीं
कि वे फकत आंसू हैं मोती नहीं

- अरुण आदित्य

वसुधा के अंक-७३ में प्रकाशित। प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका वसुधा के प्रधान संपादक कमला प्रसाद और संपादक राजेंद्र शर्मा और स्वयं प्रकाश हैं। पता है-
एम-३१, निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल - ४६२००३







6 comments:

यशवंत सिंह yashwant singh said...

bhayi, dekhiye maine aapko khoj liya...

Arun Aditya said...
This comment has been removed by the author.
अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया। शानदार ।

Ek ziddi dhun said...

अश्रु-वैभव..
is waqt ko samjhne ke liye jaroori kavita

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

अरूण साहब, वाकई में घोर सतजुग है। अब तो कुछ न करे ढाले भी हंस ही मोती चुगेगा और सबके काम आने वाला बेचारा कौआ पितरो की भूख शांत करने के लिये डाले गये भात के लिये भी तरसेगा। बिल्कुल दिल छुती बात कह गये कविता के माध्यम से। भाई हमारे कारपोरेट मिडीया को हिन्दोस्ता के बांशिदो से क्या लेना देना उनका इंडिया शाईन होता रहे बस। चक दे इंडिया, भाड में जाये हिन्दोस्ता।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आदित्य जी,
अचर्चित आँसुओं पर
चर्चा कर आपने उन्हें
मोती तो करार दे ही दिया .
आपकी लेखनी का स्पर्श पाकर
अब वे फक़त आँसू कहाँ रह गये ?

वैसे भी आँसुओं का शिल्पीय वैश्वीकरण
महज़ बाज़ार की माँग के उछाह से
रत्ती भर अधिक कुछ भी नहीं है !
आपकी कविता इस पर प्रहार करती है .

ये शेर भी क़ाबिले गौर है -
अश्क जो पलकों पे ठहर जाएँ तो मोती समझो
और जो आँख से गिर जाएँ तो कीमत न रहे .