बाबा नागार्जुन ने 6 अगस्त 1992 को उनकी डायरी में लिखा था- 'प्रिय हरि मृदुल, तुम्हारी रचनाओं में बेहद ताजगी मिली। आप बहुत आगे जाओगे, सुदूर निकलोगे।' और हरि मृदुल ने बाबा की भविष्यवाणी को गलत नहीं साबित होने दिया है। हाल ही में प्रकाशित हरि के कविता संग्रह 'सफेदी में छुपा काला की कविताएं बाबा की बातों की तसदीक करती हैं। इसी संग्रह पर हरि को हेमंत स्मृति सम्मान भी मिला है। संग्रह की भूमिका में निदा फाजली ने लिखा है, 'इनके रचना संसार के केंद्र में जो दृष्टि उभरती है जो उन्हें उस कबीले से जोड़ती है, जिसका हिस्सा समाज में तीन चौथाई है। यहां सड़क, पानी, रोशनी और अनाज की ओर दौड़ता हुआ वह इंसान है, जो आज का सच्चा हिंदुस्तान है।' हरि मृदुल कवि के साथ-साथ पत्रकार और सुपरिचित फिल्म समीक्षक भी हैं। आजकल अमर उजाला के मुंबई ब्यूरो में कार्यरत हैं। पेश हैं उनकी दो कविताएं जो उनकी कविता की रेंज की एक झलक देती हैं ...
नाम तुम्हारा
जुहू बीच की नम रेत पर
नाम तुम्हारा लिखता हूं
मिटाता नहीं
लहरों को यह काम सौंप रखा है
मैं खड़ा रहता हूं जैसे पहरेदार।
स्पॉट बॉय
स्पॉट बॉय ने फिल्म रिलीज के पहले दिन के
पहले शो का टिकट लिया
बड़े गौर से निहारा हजारों किलोमीटर
दूर देश-विदेश की उन जगहों को
जो बड़ी बारीकी से अभी तक उसकी स्मृति में थीं
परदे पर एकदम अलग अंदाज में उन्हें देखकर
वह थोड़ा विस्मित हुआ लेकिन आश्चर्यचकित कतई नहीं
उसे हीरोइन का दुख देखकर
ग्लिसरीन की एक बड़ी सी शीशी याद आई
हीरो की बहादुरी देखकर नकली बंदूक
हीरोइन के बाप का गुस्सा देखकर निर्देशक की फूहड़ डांट
और हीरो के बाप का झुंझलाना देखकर
प्रोड्यूसर का बार-बार सिर पीटना
परदे पर बम विस्फोट और खून ही खून देखकर उसने
एक बार माथा जरूर पकड़ा
फिर बिना अगल-बगल बैठे लोगों की परवाह किए
अपनी सीट के नीचे थूक दिया
हीरो-हीरोइन की अदायगी पर उसका कोई ध्यान नहीं था
बल्कि संवाद, गाने या किसी खास भाव-भंगिमा पर
तालियां बजते देख उसे बड़ी कोफ्त हुई
अलबत्ता कुछ एक्सट्रा कलाकारों को उसने
खास तौर पर देखना चाहा
जो हीरोइन के साथ लेकिन पीछे की तरफ नाची थीं
और उन्हें, जो हीरो के हाथों पिटते-पिटते
सचमुच घायल हो गए थे
फिल्म खत्म होते-होते उसने परदे पर
बड़ी सावधानी से अपनी नजर गड़ाई
और तीन घंटे की अवधि में पहली बार उसके चेहरे पर
संतोष पाया गया
तेजी से सरकती कास्टिंग की पंक्तियों में
वह सुरक्षित था अपने साथियों के साथ
स्पॉट बॉयज- भोला, आसिफ, नरोत्तम, जोसफ, बब्बन
और नारिया उर्फ नारायण।
- हरि मृदुल
14 comments:
लहरों को यह काम सौंप रखा है
मैं खड़ा रहता हूं
जैसे पहरेदार।
अच्छी लगीं कविताएं।
स्पॉटब्वाय वाली कविता बहुत अच्छी लगी।
डूबने और उगने वाली कविता...
अरुण जी,
मृदुल जी पर बाबा और
निदा फ़ाजली साहब का
नज़रिया कविताओं में बोल उठा है.
कवि का नाम मानस-पटल पर
अंकित तो था,लेकिन इस प्रस्तुति ने
उस नाम का पहरेदार भी बना दिया है.
सच का चश्मदीद और
फरेब का गवाह तो हर इंसान है,
फिर भी दुनिया के स्क्रीन पर
कम-अज़-कम नाम दिख जाने का
इत्मीनान,शायद हर शख्स जी रहा है.
==============================
आपको बधाई इस पेशकश के लिए,
सर्जक का आभार.
डा. चन्द्रकुमार जैन
दोनों ही रचनाऐं बहुत सुन्दर एवं सटीक हैं. बहुत आभार इन्हें प्रस्तुत करने का.
जुहू बीच की नम रेत पर
नाम तुम्हारा लिखता हूं
मिटाता नहीं
लहरों को यह काम सौंप रखा है
मैं खड़ा रहता हूं
जैसे पहरेदार।
इस कविता ने मुझे अपनी एक ग़ज़ल का शेर याद दिला दिया -
करती भी क्या आते जाते
लहरों ने तट धोया फिर से
और स्पॉट बॉय तो में मृदुलजी की तीक्ष्ण संवेदनामक दृष्टि बहुत गहरे तक प्रभावित करती है। मृदुलजी को बधाई और आपका आभार। ऐसे ही पढ़वाते रहिए।
- प्रदीप कान्त और साथ में मधु कान्त
बडे गहरे भाव हैं दोनों कविताओं के। हरि मृदुल जी को बधाई। साथ ही अरुण जी आपका भी धन्यवाद।
कविताओं के बारे में मेरी समझ बहुत ज़्यादा तो नहीं है लेकिन हाँ, मैं समाज विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और वामपंथ की और झुकाव भी रखता हूँ. स्पॉट ब्वाय कविता एक नकली और फार्मूलाबद्ध कविता है. कोई बताये कि फ़िल्म इंडस्ट्री के कितने ऐसे स्पॉट ब्वाय हैं जिन्हें निर्माता विदेश ले जाते हैं. कविता में स्पॉट ब्वाय को देस-विदेश के दृश्य तक याद आ रहे हैं. और ऐसा जो विरला स्पॉट ब्वाय होता भी है उसे थियेटर में जाकर टिकट नहीं खरीदना पड़ता जनाब! वह मेम साहब की गाड़ी में घूमा करता है.
कविता की ये लाइनें देखिये-
'हीरो-हीरोइन की अदायगी पर उसका कोई ध्यान नहीं था
बल्कि संवाद, गाने या किसी खास भाव-भंगिमा पर
तालियां बजते देख उसे बड़ी कोफ्त हुई'.
अगर अपना अथक श्रम लगा देने वाली फ़िल्म से ही स्पॉट ब्वाय (श्रमिक) को इतनी कोफ्त थी और अपना नाम देखने की तमन्ना तो फ़िल्म के एकदम आख़िर में चला जाता! टिकट ले ही रखा था. एक श्रमिक के चरित्र और श्रम का यह कैसा क्रूर मज़ाक उड़ाया गया है? क्या ऐसा उथला ओब्सेर्वेशन स्पॉट ब्वाय को जलील नहीं करता? क्या हम किसी एक उदाहरण विशेष पर आश्रित होकर इस तरह कवितायें लिख सकते हैं जो उस वर्ग विशेष को लजवा दे?
दूसरी कविता में जब नाम मिटाने का काम लहरों को सौंप ही रखा है तब पहरेदार बन कर खड़ा रहना मूर्खता के सिवा क्या हो सकता है? नकली प्रेम कविता लिखने का यही नतीजा होता है.
शायदा जी, राजेश रोशन जी, समीर लाल जी, सतीश यादव जी, डॉक्टर जैन साहब, प्रदीप कान्त और अबरार जी शुक्रिया। शशि भूषण थानेदार साहब के प्रति विशेष आभार, कविता की खामियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए। शशि जी यह मत कहिये कि आपकी कविता की समझ अच्छी नहीं है। आज के कई युवा और नामचीन आलोचकों से ज्यादा समझ आप में है।
Thanedar ji
kavita ki samajh nahi hai to kahe ko pasena baha rahe ho.
vambanth ke ese jhukav ne he to hindi sahitya ki esi tasi ki hai.
beta pahle thoda marksvad ki buniyadi kitabein padh lo fir apne akal palne.
apne durmati se Acchi khasi kavit par tumne jo leed khai hai uske cheten logo par bhi padegein itna to socha hota
Vijay
श्री थानेदार ने पहली कविता (नाम तुम्हारा) की आलोचना में जो कहा है मैं उससे सहमत हूं।
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
बताइए? कभी सोचा भी न था कि कविता में भी कुछ स्वयंभू थानेदार इस अंदाज में डंडा घुमाते नजर आएंगे। थानेदार उर्फ शशि भूषण ने मेरी दोनों कविताओं 'स्पॉट बॉय' और 'नाम तुम्हारा' के बारे में जैसी टिप्पणी की है, मैं कतई चकित नहीं हूं। इसका कारण यह है कि उनकी महानता की गाथा दिल्ली से मुंबई तक समान रूप से चर्चाओं में रहती है। वैसे भी महाज्ञानी जन जो बोल दें, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। इसी में साहित्य और साहित्यकार दोनों की भलाई है। बाबा नागार्जुन ने ऐसे ही गुणीजनों के लिए कहा था - 'जो नहीं हो सके पूर्ण-काम, मैं उनको करता हूं प्रणाम।' तो सर्वप्रथम इन स्वयं भू थानेदार साहब को मेरा कई बार सावधान-विश्राम के बाद 'जय हिंद।' अब मैं डरते-कांपते और रिरियाते-घिंघियाते हुए घुटनों के बल बैठकर अपनी बात रखना चाहता हूं। मेरी कविताओं को थानेदार साहब ने नकली करार दिया है, उनकी पारखी नजर का मैं कायल हो चुका हूं। लेकिन इस मामले में कई दिक्कतें आ रही हैं। दरअसल मुझे प्रख्यात शायर निदा फाजली और प्रसिद्ध कवि-समीक्षक विष्णु खरे पर तरस आ रहा है। निदा साहब ने मेरे कविता संग्रह की भूमिका में खास तौर पर उसी कविता का जिक्र किया है, जो थानेदार साहब को नागवार गुजरी है। पच्चीसों वर्षों से फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े रहने के बावजूद उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि स्पॉट बॉयज को किसी भी फिल्म की तमाम कास्ट और क्रू के साथ शूटिंग के लिए ले जाया जाता है या नहीं। लानत है। फोकट में थानेदार साहब को नाराज कर दिया। खुद मुझे अपने विवेक पर तरस आ रहा है कि पिछले पंद्रह वर्षों से फिल्म पत्रकारिता से नियमित जुड़े रहने के बावजूद मैंने इतनी बड़ी अज्ञानता का परिचय दिया। सचमुच मैं शर्मिंदा हूं, मुझे माफ कर दीजिए थानेदार साहब। आपके डंडे से मैं बहुत डरता हूं। आप जो कहते हैं, वही सही। मैं हैरत में हूं कि अपने विष्णु खरे साहब को क्या हो गया? कविता ही नहीं, उनके फिल्मी ज्ञान पर कभी कोई उंगली नहीं उठी। आखिर मेरे मामले में ही उनसे चूक होनी थी? माफी महराज माफी। दुहाई हो दुहाई। थानेदार साहब, बता दूं कि तकरीबन छह साल पहले की बात है। विष्णु खरे साहब का मुंबई में एक बड़े साहित्यिक समारोह में कविता पाठ था। उन्होंने अपने कविता पाठ से पहले खचाखच भरे हाल में युवा कविता पर बात की, जैसा कि वे आमतौर पर करते हैं। इस मौके पर मुंबई की सारी नामी-गिरामी साहित्यिक हस्तियां मौजूद थीं। सार्वजनिक रूप से विष्णु जी ने कहा, 'कई युवा कवि बहुत अच्छी कविताएं लिख रहे हैं, उनमें एक मुंबई का लडक़ा भी है। लेकिन मैं उसका नाम नहीं जानता। हां, उसकी दस्तावेज में प्रकाशित कविता स्पॉट बॉय आज वर्षों बाद भी मुझे याद है। यह अद्भुत कविता है।' गलती से मैं सामने ही बैठा हुआ था। प्रसिद्ध कवि और आलोचक विजय कुमार, जो कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे, उन्होंने जानकारी दी कि यह हरि मृदुल की कविता है। वे सामने ही बैठे हैं...। समारोह खत्म हो जाने के बाद विष्णु जी ने एक बार फिर मुझे शाबासी दी। अगर मैं जरा भी झूठ बोल रहा होऊं, तो मेरी जीभ कट जाए मेरी ही बतीसी से। यह इत्तफाक है हुजूर कि पिछले दिनों ही विष्णु जी से मुंबई में सुपरिचित कवि अनूप सेठी के घर पर मुलाकात हुई। उन्होंने न केवल हाल ही में प्रकाशित मेरे संग्रह सफेदी में छुपा काला पर सकारात्मक टिप्पणी की, बल्कि एक बार फिर कविता स्पॉट बॉय की तारीफ कर दी। जाहिर है कि मैं बहुत खुश हुआ। इतने बड़े कवि ने एक बार फिर मेरी पीठ थपथपाई। लेकिन अब मैं उनसे काफी नाराज हूं। ऎसी तारीफ किस काम की, जो आपको नहीं जंचे। मैं किसी भी हालत में आप जैसे थानेदार की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता हूं। आप यकीन करें या न करें, इस समय यह सब लिखते समय भी मैं रह रहकर कांप रहा हूं। हां, तो थानेदार साहब मैं बता रहा था कि जाने अनजाने में कितनी बड़ी गल्तियां हो जाती हैं बड़े-बड़े लोगों से। किसी को कहां पता था कि आपकी भृकुटि इस तरह टेढ़ी हो जाएंगी। हुजूर एक गुजारिश है कि निदा साहब और विष्णु जी पर डंडे ना बरसइयो, इस पुनीत काज के लिए मेरी पीठ हमेशा हाजिर। नाराज ना हों हुजूर, लगे हाथों एक और गलती बता देना चाहता हूं। सचमुच कम्बख्त नार्या उर्फ नारायण मिल जाए, तो उसे आपके हवाले कर दूं। कमीने ने लगभग दस साल पहले फिल्म सिटी में मुझे यह किस्सा बताया था। मैंने सहज ही भरोसा कर लिया। सच कहता हूं हुजूर कि अगर मुझे आपकी नाराजगी की जरा भी भनक लगती, तो कभी ऐसी कविता लिखने की जुर्रत नहीं करता। हुजूर, आज भी ये कमीने स्पॉट बॉय देश विदेश कास्ट और क्रू के साथ जाते हैं। आपके फरमान जारी करने के बावजूद। मेरा वश चले, तो आपका डंडा लेकर इन्हें ऐसे हांकूं कि जख्मी होकर अपने अपने घर बैठने पर मजबूर हो जाएं। आखिर इनकी इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि ये मामूली श्रमिक होने के बावजूद हीरो की नकली बंदूक और हीरोइन के ग्लिसरीन के आंसुओं का मजाक उड़ाएं? आखिर ये परदे पर बम विस्फोट और बिना बात का खून खराबा देखकर बिना अगल-बगल बैठे लोगों की परवाह किए सीट के नीचे कैसे थूक सकते हैं? इतने छोटे लोग इतने बड़े निर्माताओं की सोच के खिलाफ इस तरह का प्रतीकात्मक विरोध करेंगे, तो जाएंगे कहां? आपकी यह सलाह एकदम सही है हुजूर कि अगर टिकट खरीद ही लिया, तो भी इन्हें पूरी फिल्म देखने की क्या जरूरत? इनके एक्सट्रा कलाकार दोस्त तो हीरो के हाथों सचमुच पिटकर घायल हो जाते हैं, ऐसे फटीचरों को परदे पर क्या देखना? हीरोइन के साथ लेकिन पीछे की तरफ नाचने वाली लड़कियों को देखने की क्या आवश्यकता? वाकई स्पॉट बॉय को अपनी औकात में रहना चाहिए हुजूर। प्रोड्यूसरों का इतना बारीक मजाक उड़ाएंगे, तो सालों पर हुजूर के डंडे ही बरसेंगे। नोटों की बरसात थोड़े ही होगी?हुजूर की 'नाम तुम्हारा' कविता पर तो टिप्पणी गजब की है। ऐसी दो टूक टिप्पणी इस कलि काल में बड़े नसीबवालों को पढऩे-सुनने को मिलती है। हुजूर का यह कहना एकदम वाजिब है कि जब नाम मिटवाना ही है, तो फिर लिखते ही क्यों हो? इतनी सी बात खोपड़ी में नहीं आई हुजूर। भला कैसे आती? इतनी ही अक्ल होती, तो हम भी आपकी तरह थानेदार हो जाते।
-आपका हल्कट हितैषी
हरि मृदुल
प्रिय अरुण आदित्य जी,
थानेदार ने बड़ी मेहनत से बड़ी टिप्पणी लिखी है और ये मेहनत इन दो सुंदर कविताओं को कुपाठ करने के लिए की गई है। क्या वे सभी ब्लागों में इसी तरह प्रकाशित हर सामग्री पर तत्परता से टिप्पणी करते हैं? यदि नहीं तो अचानक दो सरल सी अच्छी सी कविताओं पर उनको इतनी लंबी टिप्पणी लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? हिंदी में ब्लॉग एक नई विधा है, भविष्य में यह एक ताकतवर और प्रभावी माध्यम हो सकता है। हिंदी साहित्य और उसका संसार जिस अवसाद और अरचनात्मक माहौल से गुजर रहा है, उससे उसे निकालने का एक औजार भी बन सकता है पर देखने में यही आ रहा है कि आत्मप्रचार, परनिंदा, गुटबाजी और प्रतिभाहीनता आरंभ से ही इस माध्यम को कुंद करने में लग गए हैं, हिंदी साहित्य के उस दूषित माहौल, ने जिसे लेकर हर संवेदनशील व्यक्ति चिंतित रहा है, इस विधा पर आरंभ से ही अपना साया डालना शुरू कर दिया है। हरि मृदृल की कविताओं के साथ थानेदार का व्यवहार उनकी कविता संबंधी नासमझी को तो प्रकट करता ही है, साथ ही वह एक औसत ईर्ष्यालु मानसिकता का भी परिचायक है। मैं पिछले 25 सालों से हिंदी कविता का सजग पाठक रहा हूँ । हरि मृदुल की छोटी सी यह प्रेम कविता अपनी अनुगूंज पैदा करती है, और स्पॉट ब्वाय अपनी तरह की अलग कविता है, वह फिल्म इंडस्ट्री के जिन तथ्यों को उठाती है, और उसे जो संवेदनात्मक रचाव देती है, वह अनूठा है। बहरहाल कविताओं को डिफेंड करने की बहुत आवश्यकता नहीं है। उनमें कुछ कमियां भी हो सकती हैं और सब की पसंद अलग-अलग और समझ भी अलग-अलग हो सकती है परन्तु आपत्ति की बात यह है कि थानेदार की टिप्पणी हनन करने के मकसद से ही लिखी गई है ।हिंदी में इस तरह के युवा तुर्क आज पूरी हिंदी पट्टी में विद्यमान हैं, और कभी वे किसी नौकरी की सत्ता की ताकत से, कभी किसी प्रभावी आका की छाया की ताकत तो कभी आत्मग्रस्त बदतमीजी की ताकत से बिना कोई वृहत्तर कंसर्न रखे आप्त वाक्य बोलते रहते हैं। ऐसी प्रवृत्तियों को अनदेखा भी किया जा सकता है परंतु ये प्रवृत्तियां अनदेखा करने पर बढ़ती हैं, और रचनात्मक माहौल का ह्रास करती हैं। मैं थानेदार द्वारा की गई हरि मृदुल की कविता की भार्त्सनानुमा आलोचना का नहीं, उस प्रवृत्ति का निषेध करता हूं, जिससे उनकी यह टिप्पणी चालित है।
आलोक श्रीवास्तव
मुंबई
'स्पॉटब्वाय'- बहुत ही मार्मिक और जिन्दगी से जुडी कविता...
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