Sunday, June 29, 2008

इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं लोग


विचार मर चुका है। विचार मर नहीं सकता है। विचार जिंदाबाद। विचार अमर रहे। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में जब विचार(धारा) का अंत होने और न होने को लेकर इस तरह का विमर्श जोरों पर था, उसी दौरान इस कविता का जन्म हुआ था। उन दिनों विचार के साथ ही कविता के अंत की भी उद्घोषणाएं की जा रही थीं। यह दीगर बात है कि नई शताब्दी में भी न विचार मरा है न कविता, पर यह जरूर है कि दोनों के जिंदा रहने की शर्तें लगातार विकट होती गई हैं। यह कविता दस साल पूर्व मध्य प्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका साक्षात्कार के जनवरी 1998 के अंक में छपी थी।

और एक छोटी सी सूचना : इसी कविता के साथ कुछ समय के लिए ब्लागिंग से अवकाश ले रहा हूं। सात साल से एक उपन्यास अटका पड़ा है। प्रकाशक का दबाव है कि अगले दो तीन महीने में स्क्रिप्ट दे दूं। मित्रों का भी यही कहना है कि इसे ठिकाने लगाओ, तभी कुछ नया लिख पाओगे। तो दोस्तो, उपन्यास को ठिकाने लगाकर जैसे ही कुछ नया लिखा, हाजिर हो जाऊंगा। तब तक के लिए यह आग आपके पास छोड़कर जा रहा हूं।


इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं लोग


कुछ दिनों पहले मिला मुझे एक विचार

आग का एक सुर्ख गोला

सुबह के सूरज की तरह दहकता हुआ बिलकुल लाल

और तब से इसे दिल में छुपाए घूम रहा हूं

चोरों, बटमारों, झूठे यारों और दुनियादारों से बचाता हुआ


सोचता हूं कि सबके सब इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं


उस दोस्त का क्या करूं

जो इसे गुलाब का फूल समझ

अपनी प्रेमिका के जूड़े में खोंस देना चाहता है


एक चटोरी लड़की इसे लाल टमाटर समझ

दोस्ती के एवज में मांग बैठी है

वह इसकी चटनी बना मूंग के भजिए के साथ खाना चाहती है


माननीय नगर सेठ इसे मूंगा समझ

अपनी अंगूठी में जडऩा चाहते हैं

ज्योतिषियों के अनुसार मूंगा ही बचा सकता है उनका भविष्य


राजा को भी जरूरत आ पड़ी है इसी चीज की

मचल गया है छोटा राजकुमार इसे लाल गेंद समझ

लिहाजा, राजा के सिपाही मेरी तलाश में हैं


और भी कई लोग अलग-अलग कारणों से

मुझसे छीन लेना चाहते हैं यह आग

हिरन की कस्तूरी सरीखी हो गई है यह चीज

कि इसके लिए कत्ल तक किया जा सकता हूं मैं

फिर इतनी खतरनाक चीज को

आखिर किसलिए दिल में छुपाए घूम रहा हूं मैं


दरअसल मैं इसे

उस बुढिय़ा के ठंडे चूल्हे में डालना चाहता हूं

जो सारी दुनिया के लिए भात का अदहन चढ़ाए बैठी है

और सदियों से कर रही है इसी आग का इंतजार।

- अरुण आदित्य

(साक्षात्कार, जनवरी 1998 में प्रकाशित)

22 comments:

Geet Chaturvedi said...

बहुत बढि़या कविता.

और ढेर सारी शुभकामनाएं. इस बार उपन्‍यास पूरा करना ही हुआ.

अमिताभ मीत said...

क्या बात है. बहुत बढ़िया. वाह !

महेन said...

इस कविता ने महफ़िल लूट ली अरुण जी।
उपन्यास पूरा होने का इंतज़ार रहेगा और आपके वापस आने का भी… कमसे कम ब्लोगजगत पर नज़र तो रखियेगा।
शुभम।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

बहुत सुंदर विचार.
वैसे उपन्यास पूरा कर डालने का विचार भी कम सुंदर नहीं.

इंतज़ार है.

Unknown said...

उम्दा।

Anil Pusadkar said...

Bhai Wahh, kya kahane

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया...

अनेकों शुभकामनाऐं आपके उपन्यास के लिए.

इन्तजार रहेगा.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

इस आग का
जीवित रहना ही
सब कुछ बच जाना है.
अरुण जी,
बेशक आप उपन्यास को
ठिकाने लगाएँ
पर ये भी याद रहे कि
आपकी लेखनी और प्रस्तुति के
दीवाने आपका पता-ठिकाना पूछते रहेंगे.
वैसे जी चाहता है कि आप ब्लॉग पर
बावज़ूद वाजिब सबब के माह में
दो-एक बार अवश्य आलोकित होते रहें
....आदित्य तो हैं ही आप !
============================
बहरहाल शुभकामनाएँ
डा.चन्द्रकुमार जैन

Rajesh Roshan said...

जो कमेन्ट दिए गए हैं वो मेरी उम्र से बड़े लोगो के द्वारा दिए गए हैं, मैं २७ साल का हू तो वैसी झलक देने लिए मैं कहना चाहूँगा...

This poems consits full of love and energy. Simply Superb.
Complete ur Novel, till then njoy ur space.
Cheers
Rajesh Roshan

ravindra vyas said...

अरुण, कभी-कभी दबाव में ही अच्छा लिखा जाता है। इसलिए तुम्हारा फैसला ठीक ही लगता है लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि दो-तीन महिने की फुरसत पाकर फैल जाने की आशंका भी बनी रहती है। सो लगे रहना भाई, पूरा करके ही उठना। क्या अच्छा हो कि कभी-कभार अपने उपन्यास का कोई छोटा-सा अंश ही ब्लॉग पर डाल देना। ब्लॉग भी चलता रहेगा, उपन्यास भी।
रवींद्र व्यास, इंदौर

seema gupta said...

"bhut sunder"
Regards

प्रदीप मिश्र said...

ठीक है आग जरूरी है। काश इस आग में तप कर कुछ शब्द निकलें, जिनके भरोसे बेहतर दुनिया साकार हो। बधाई- प्रदीप, रजनी रमण और देवेन्द्र

cartoonist ABHISHEK said...

ek achchhi kavita ke liye dhanyawaad....

Arun Aditya said...

प्रिय गीत, मीत जी , महेंद्र जी , विजयशंकरजी , ललित जी, अनिल जी, समीर लाल जी, राजेश रोशन जी, प्यारे रवींद्र, प्रदीप, देवेन्द्र, रजनीरमण, सीमा जी, डॉक्टर जैन साहेब और चम्बल घाटी वाले अभिषेक भाई आप सब का बहुत-बहुत आभार। आप लोगों का दबाव बना रहा तो उपन्यास जल्दी पूरा हो जाएगा।

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

अरूण जी आपके व आपके उपन्यास के इंतजार में।
बहुत बहुत शुभकामनाएं।

Ashish said...

बहुत अच्छे

Ishwar Dost said...

कविता अच्छी लगी. अन्तिम बिम्ब इशारा करता है कि विचारों में आग इन्साफ और एकजुटता की गहरी भावना से ही आती है. काश कि यह बात अकादमिया तक भी पहुंचे.
तपिश और आंच से भरे उपन्यास का इन्तेज़ार रहेगा.

Arun Aditya said...

परेश, आशीष और ईश्वर भाई, आप सबके प्रति भी बहुत-बहुत आभार।

cartoonist ABHISHEK said...

badhaai...
aazaadi ki.....

jitendra srivastava said...

priya bhai,
apka blog dekhata rahata hoon.sambhav ho to apna phon no den.
jitendra srivastava
m-9818913798

varsha said...

namaste
kavita ke liye sadhuwad.poori koshish hogi ki shahidji ka likha blog par sajha karoon.

Anonymous said...

Arun Bhai Kavita sachmuch bahut pasand aai.