Saturday, March 1, 2008

मेरे मठ में मेरा हठ है


सबका अपना-अपना मठ है

मेरे मठ में मेरा हठ है

मैं, मैं, मैं, मैं मंत्र हमारा

मैं की खातिर तंत्र हमारा

मेरा मैं है मुझको प्यारा

मैं अपने ही मैं से हारा

मेरे मैं की जय है, जय है

मेरा मैं ही मेरा भय है

मेरे मैं को आबाद करो

मुझको मैं से आजाद करो

मैं साधू , मेरा मैं शठ है

फ़िर भी मैं की खातिर हठ है।


- अरुण आदित्य

12 comments:

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

आदित्य जी अ आ से मैं तक। ब्लाग पर स्तरीय रचनाये पोस्ट करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। अपने मठ में अपने हठ को इसी तरह बनाये रखे।

अनुनाद सिंह said...

आरून जी,

आप्की कविता बहुत सामयिक है। बहुत अच्ची लगी।

हो सकता है कि इतने छोटे-छोटे शब्दों वाली यह अनन्य कविता हो।

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया सामयिक रचना है।अच्छी लगी।

अजित वडनेरकर said...

किसी सामयिक विमर्श में जाने और सार्थक-रचनात्मक प्रतिक्रिया देने का यही तरीका होता है।
सही है मित्र। खूब लिखिये।

सचिन श्रीवास्तव said...

क्या सचमुच कविता एकालाप में की गई शाब्दिक बाजीगरी भी है? अगर हां तो मुझे कुछ नहीं कहना-- नहीं, तो आपको बहुत कुछ और कहना चाहिए.. कविता के साथ कवि का बयान भी हो तो कितनी आसानी हो कविता को गुपड जाने में...

Arun Aditya said...

सचिन जी, मेरे विचार से कविता कवि का बयान ही है, इसलिए अलग से बयान देना मैं जरूरी नहीं समझता। अगर मेरी कविता आप के मन तक नहीं पहुँच रही तो निश्चित ही यह मेरी कविता की सीमा है। वैसे अगर आप इसी ब्लॉग पर मेरी कुछ और कवितायें पढ़ें तो शायद उनमें कुछ बात मिल जाए। आप आए, अपने मन की बात रखी, शुक्रिया।

Ek ziddi dhun said...
This comment has been removed by the author.
Ek ziddi dhun said...

bakaul raghuveer sahay kavita ka ek vah bhi arth hota hai, jo pathak par khulta hai...par sahay ji ki baat vajib hone ke bavjood sachmuch pathak hona to jaruri hai...varna to hindi adhyapak kavita ko kya-kya padhate hain...
jise koi shabdo.n ki bajigari kah raha hai, hume.n vah aapke kahan ke samarthya ka saboot lag raha hai...iske alava bhi kavita bahut achhi lagi

March 4, 2008 10:31 AM

Unknown said...

अरुण - बहुत ही बढ़िया - क्या बात रही - ऐसे ही लिखें - पढने में मज़ा आता है - मनीष

प्रदीप मिश्र said...

वर्तमान समय की धुन पर लिखी गई इस जरूरी कविता के लिए बधाई। तुम्हारी कविता में मैं ने जिस दीवार पर चोट की है, वह निरन्तर मजबूत होती हुई दीवार है। इस दिवार को गिराना ही चहिए। और इस तरह की कविताओं में ही ताकत है, इस बन्ध को तोड़ने की। लगे रहो मुन्ना भाई।

Ashok Priyadarshi said...

adityaji apki kavita achchi to lagati hi hai, man ko bhi choo jati hai. atah hamare jaise logon ke liye jo kavita padhte to hain likh nahin sakte, yun hi kavita likhte rahiye, saath hi apne math main apne hath ko bhi banaye rakhiye.

Anonymous said...

अरुण आदित्यजी सन्डे आनन्द मे आपके बारे मे पढकर खुशी हूई आप जैसे व्यक्तित्व के बारे मे जानकर जीवन उर्जा कई गुना बढ जती है।
आपने अपने व्यतव्य मे लिखा है कि इन प्रयासो से क्रन्ति कि कल्प्ना करना अतिश्योक्ति होगी किन्तु "अगर प्रयास दिल से किया जाये तो सार्थक जरूर होता है"। आज भी चौरहो पर खडे होकर पुरे विश्व के घटनाक्रमो पर गहन चिन्तन करने वालो कि कमी नहि है किन्त् उनका उद्द्येश वहि समाप्तहो जाता है ।यदी ब्लोग को ईस श्रेणी("टाईम पास") से उपर उठाने की कोशिश की जाये तो वो दीन भी दूर नही जब ब्लोग भी एक नये दुनिया का भविष्य लीखेगा।ईसके लिये आव्श्य्क्ता है ईसे प्रचारित करने की तथा एक उर्प्युक्त "मार्गदर्शक" बनाने की ।


जयहिन्द