हमारे मित्र और अमर उजाला, कानपुर के संपादक प्रताप सोमवंशी संवेदनशील कवि हैं। उनकी ये दोनों कवितायें 1993 में जनसत्ता सबरंग के दीवाली विशेषांक में छपी थीं। उसी विशेषांक में मेरी भी एक कविता 'बम्बई इस गाँव के इतने करीब छपी ' थी। इन्ही कविताओं से मैंने प्रताप के कवि को पहली बार पहचाना था। आप देखेंगे कि छपने के चौदह साल बाद भी ये कवितायें कितनी प्रासंगिक हैं। हाल ही में प्रताप को के सी कुलिश अंतरराष्ट्रीय मीडिया मेरिट अवार्ड मिला है। बधाई । खाली है
कितना प्रतिभाशाली है
काम नहीं है, खाली है
केवल फल से मतलब है
कैसे कह दूँ माली है
थोड़ा और दहेज़ जुटा
बिटिया तेरी काली है
तुझसे कोई बैर न था
फ़िर क्यों आँख घुमा ली है
फल आने का मौसम है
पेड़ बेचारा खाली है
बाजीगर
लफ्जों का बाजीगर है
कब्जे में पूरा घर है
तेरा हाँ..हाँ..हाँ करना
लालच होगा, या डर है
तू मुझसे क्या छीनेगा
धरती अपना बिस्तर है
उससे कैसी उम्मीदें
पैदाइश से बेपर है
देश हुआ सब्जी मंडी
लाभ में ऊंचा स्वर है
- प्रताप सोमवंशी