हत्यारे को मत कहिये हत्यारा है।
लोकतंत्र को ये सब नहीं गवारा है।
तुम कहते हो 'हत्यारा'
जनता सुनती 'बेचारा' है।
बेचारे को बदनाम मत करो
उसने किसको मारा है।
जनता का जनता की खातिर
जो जनता के द्वारा है
उसकी ही तो मौत हुई है
और वही हत्यारा है।
हत्यारे को मत कहिये हत्यारा है।
लोकतंत्र को ये सब नहीं गवारा है।
-अरुण आदित्य
(जनविकल्प की साहित्य वार्षिकी में प्रकाशित)
लोकतंत्र को ये सब नहीं गवारा है।
तुम कहते हो 'हत्यारा'
जनता सुनती 'बेचारा' है।
बेचारे को बदनाम मत करो
उसने किसको मारा है।
जनता का जनता की खातिर
जो जनता के द्वारा है
उसकी ही तो मौत हुई है
और वही हत्यारा है।
हत्यारे को मत कहिये हत्यारा है।
लोकतंत्र को ये सब नहीं गवारा है।
-अरुण आदित्य
(जनविकल्प की साहित्य वार्षिकी में प्रकाशित)
9 comments:
क्या बात है भाई...
आपने तो एकदम कबीराना अंदाज का कमाल पा लिया है...
बधाई हो..
अच्छी कविता के लिए बधाई।
चुभ रही है यह कविता दिल को, और हां गुरुवर बोधिसत्व के शब्दों में कहूं तो कबीराना अंदाज
acchhi baat.....
bahut achhi lagi..loktantra aur nagrik samaj ke hami ek kavi yaad aaye..ek patrkaar aur sahitykaar ne likhayee aap se ye kavita
अरूण भाई एकदम सटिक बात कहीं है जनता जर्नादन ही अपनी दुर्दशा की जिम्मेदार है लेकिन वह सब कुछ देख सुन समझ रहीं है बस यथास्थितिवाद से ग्रस्त है जो ज्याद समय तक बरकरार नहीं रहने वाला हैं।
क्या बात है! अरुण जी बिल्कुल अलग अंदाज. यह हमारे समय का सच है. बधाई...
जनता .....................हत्यारा है.
इन चार पंक्तियों में प्रजातन्त्र के लिए
जो प्रतीक आपने चुने हैं,
उनमें ही कविता की ज़ान है.
यह कविता बरास्ते ज़म्हूरियत
आम आदमी की बेबसी का सबब भी बताती है !
वाह अरुण भाई…
यह कविता कैसे अनपढ़ी रह गयी?
उपलब्ध कराने के लिये आभार
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