Thursday, July 8, 2010

झोपड़ी के हिस्से में किस्से


यह कविता साहित्यिक पत्रिका हंस के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है। कई मित्रों ने वहां पढ़ लिया होगा, जो न पढ़ सके हों , उनके इसे लिए इसे यहाँ फिर से प्रकाशित किया जा रहा है।

झोपड़ी के हिस्से में किस्से

पता नहीं झोपड़ी का दर्द जानने की आकांक्षा थी
या महज एक शगल
कि झोपड़ी में एक रात गुजारने को आ गया महल

झोपड़ी फूली नहीं समा रही
उमंग से भर गया है जंग लगा हैंडपंप
प्यार से रंभा रही है मरियल गाय
कदम चूम कर धन्य है उखड़ा हुआ खड़ंजा

अपनी किस्मत पर इतरा रही है टुटही थाली
गर्व से तन गई है झिलंगा खटिया
अभिमान से फूल गई है कथरी
अति उत्साह में कुछ ज्यादा ही तेल पी रही है ढिबरी

आग से ठिठोली कर रहा है चूल्हा
उम्मीद से नाचने लगी है चक्की

ऐसे खुशगवार माहौल में पुलकित महल ने
हुलसित झोपड़ी से पूछा, बताओ तुम्हें कोई दुख तो नहीं
झोपड़ी को लगा कि उसके दुख से बड़ा है आज का यह सुख
और उसने यह भी सुना था कि महल के आने से
अपने आप ही दूर हो जाते हैं सब दुख

महल ने फिर पूछा
फिर-फिर पूछा, इस राज में कोई तकलीफ तो नहीं तुम्हें
वह कहना चाहती थी कि कई दिनों से ठंडा पड़ा है चूल्हा
पर चूल्हे की उमंग देख उसे लगा कि ऐसा कहना
रंग में भंग करने जैसा अपराध होगा


सवाल पूछते-पूछते थक गया महल
थके हुए महल को गर्व से तनी खटिया
और मान से फूली कथरी पर मिला चेंज
और रोज से ज्यादा आई नींद
इधर झोपड़ी जागती रही रात भर
कि उसके सोने से कहीं सो न जाए उम्मीद

सुबह महल झोपड़ी से निकला
और सबके देखते ही देखते खबर बन गया

झोपड़ी के हिस्से में अब सिर्फ किस्से हैं
जिन्हें वह आने-जाने वालों को रोक-रोककर सुनाती है
कि किस तरह महल ने यहां गुजारी थी एक रात

पर जब कोई नहीं सुनता उसकी बात
तो खड़ंजा हो जाता है उदास, हैंडपंप निराश
ढीली पड़ जाती है खटिया, लस्त हो जाती है कथरी
मद्धिम पड़ जाती है ढिबरी की लौ
सन्न हो जाते हैं चूल्हा-चक्की
और सब मिलकर झोपड़ी से कहते हैं
झोपडिय़ा दादी, सुनाओ जरा वह किस्सा
कि किस तरह महल ने गुजारी थी यहां एक रात।
- अरुण आदित्य

इलस्ट्रेशन : एस टी गिल, http://www.tocal.com/homestead/vandv/vv18.htm से साभार

21 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सुन्दर अभिव्यक्ति...आपकी कविता पढ़ राहुल गाँधी का गरीब की झोंपड़ी में रात बिताना याद आ गया

arvind said...

सुन्दर अभिव्यक्ति

Pratibha Katiyar said...

sundar!

प्रज्ञा पांडेय said...

kavita hans men padhi thi aur sangeeta ji tarah hi hamen bhi rahul ki yaad aayi thi ..

प्रज्ञा पांडेय said...

kavita hans men padhi thi aur sangeeta ji tarah hi hamen bhi rahul ki yaad aayi thi ..

Pocket of information said...

bhut achhi kavita hai. mohan sahil theog shimla.

अजेय said...

थेंक्स, भाई,असर पड़ा है.
पता चला कि हंस वाले * कविता* भी छाप लेते हैं :)

Ashok Kumar pandey said...

वहां भी पढ़ा था…यहां पढ़ के भी आनन्द आया…

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मंगलवार 13 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार

http://charchamanch.blogspot.com/

निर्झर'नीर said...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...
सुन्दर अभिव्यक्ति...आपकी कविता पढ़ राहुल गाँधी का गरीब की झोंपड़ी में रात बिताना याद आ गया
sangeeta ji ne sahi kaha bahut sahi kaha hai mujhe bhi ye hi khayal aaya

रजनीश 'साहिल said...

jabardast kavita hai Arun Ji,
mahal ne kaise-kaise nahi bahlaya jhopdi ko, kabhi raat bitakar to kabhi mitti ki tagari phenkkar.

सुशीला पुरी said...

'वहाँ' तो पढ़ा ही था 'यहाँ' पढ़कर और भी बहुत कुछ सोचना पड़ा ....

प्रदीप कांत said...

बहुत बहुत बहुत ही बढिया कविता

रतन चंद 'रत्नेश' said...

सहज, सरल और मार्के की कविता....

arun dev said...

अरुण जी, आपका ब्लॉग देखा.समृद्ध और सुरुचिपूर्ण.
आपकी कविताएँ पढता रहा हूँ. आपका उपन्यास देखना है.झोपडी के हिस्से में किस्से बेहतरीन कविता है.

शरद कोकास said...

बढ़िया कविता है अरुण ।

मुकेश कुमार तिवारी said...

अरूण जी,

बहुत ही बरीकी से मुआयना भी हुआ कि झोपड़ी में और क्या-क्या मौजूद रह/हो सकता है?

खैर एक रात तो कोई भी महल किसी भी झोपड़ी में गुजार सकता है लेकिन झोपड़ी शायद उस रात की तकलीफ/दर्द पूरी जिन्दगी लिये बाट जोहती रहती है कि किस्मत बदल सकती है एक दिन...\

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

V said...

बहुत बढिया कविता सर, बहुत बढिया। कलावती और उसकी झोपडी में समय गुजार आए 'महल' की याद हो आई।

डॉ० डंडा लखनवी said...

सच्चाई को उजागर करने वाला
स्तरीय व्यंग्य परोस कर
आपने पाठकों पर बड़ा उपकार
किया है।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

अरुणेश मिश्र said...

प्रशंसनीय ।

महेश सिंह said...

bahut marmik abhvakti hai... man ko chhoo lene vali.