Monday, August 3, 2009

कारगिल : तीन कवितायें, तीन किस्से



1999 की बरसात के दिन थे।
युद्ध के काले बादल बरसकर छंट चुके थे। मगर चुनावी युद्ध के बादल जनता की उम्मीदों पर बरस पडऩे को बेताब थे। चुनाव की रिपोर्टिंग के सिलसिले में उस दिन मैं खरगोन जिले में था। शाम को कहानीकार भालचंद्र जोशी के घर पर जुटान हुआ। संयोग से वसुधा के सहयोगी संपादक और कवि राजेंद्र शर्मा भी उस दिन खरगोन में ही थे। कुछ और मित्र जुट गए और भालचंद्र के घर पर ही इन कविताओं का पहला पाठ हुआ।
ये कविताएं इंदौर से खरगोन जाते हुए रास्ते में लिखी गई थीं। उसी राइटिंग पैड पर, जिस पर मैं रास्ते भर निमाड़ क्षेत्र के चुनावी गुणा भाग दर्ज करता आ रहा था। उन दिनों मेरे पास दैनिक भास्कर इंदौर में फीचर प्रभाग की जिम्मेदारी थी। और चुनाव डेस्क का अतिरिक्त प्रभार भी था। सो व्यस्तता के उन दिनों में कारगिल युद्ध को लेकर फैले उन्माद के बीच हर तीसरे दिन कोई न कोई तुक्कड़ कवि कोई तुकबंदी लेकर हाजिर हो जाता, मसलन 'लाहौर में गाड़ देंगे तिरंगा और शरीफ को टांग देंगे करके नंगा।' कोई अगर कह देता कि भइया यह कविता नहीं तो वहीं पर एक और कारगिल युद्ध करने को उतारू हो जाते। एक-दो लोगों ने तो सीधे-सीधे चुनौती दे डाली कि तुम्हीं कोई कविता लिखकर बता दो कि युद्ध पर ऐसे नहीं तो कैसे लिखना चाहिए। तो इन तीनों कविताओं का लिखा जाना एक तरह से उस सब को एक रचनात्मक जवाब था।
खरगोन में भालचंद जी के घर ये कविताएं सुनने के बाद राजेंद्र शर्मा ने कहा, पैड से ये पन्ने निकालकर मुझे दे दो। वसुधा का अंक कल-परसों में प्रेस में जाने वाला है, उसमें विशेष उल्लेख के साथ देना चाहता हूं। इसी अंक में इनका जाना बेहद जरूरी है। मैंने कहा कि यह फस्र्ट ड्राफ्ट है और अभी इस पर कुछ काम होना बाकी है। परसों मैं इंदौर पहुंचकर कोरियर कर दूंगा। लेकिन परसों कहां कभी आता है। इंदौर पहुंचकर मैं अपने काम-काज में लग गया और ध्यान ही नहीं रहा कि कविताओं को फेयर करके भेजना भी है। फिर चौथे-पांचवें दिन राजेंद्र जी का फोन आया, तुमने अभी तक कविताएं भेजी नहीं, मैंने अंक रोक रखा है।' सो उसी दिन इन्हें फेयर करके रवाना किया गया। अगले हफ्ते वसुधा का वह अंक हमारे हाथ में था। अंक की शुरुआत में ही कारगिल प्रसंग के तहत विशेष उल्लेख के साथ ये कविताएं और कैरन हेडाक के स्केच छपे थे।
दूसरा किस्सा
रात 11 बजे होंगे। अचानक फोन की घंटी बजती है। मैंने उठाकर जैसे ही कहा- हलो, उस तरफ से आवाज आई-
'गोली मेरी और चीख मेरे भाई की
फिर बधाइयां क्यों बटोर रहे हैं बांके बिहारी मास्साब?
ये किस कवि की पंक्तियां हैं?' उस तरफ चंद्रकांत देवताले जी थे।
मैंने निहायत संकोच के साथ कहा कहा, 'हैं तो मेरी ही, पर कुछ गड़बड़ तो नहीं है?'
देवताले जी बोले, 'वसुधा का अंक आ गया है। तुम्हें बहुत-बहुत बधाई, तीनों कविताएं बहुत अच्छी हैं। इतनी सादगी से ऐसी गहरी बात कहने वाले बहुत कम हैं। आज ऐसी कविताओं की बहुत जरूरत है।'
'ऐसी कविताओं की बहुत जरूरत है,' यह सुनकर मुझे लगा जैसे कोई मेडल मिल गया हो, युद्ध लड़े बिना ही।

तो आप भी वसुधा-45-46 से साभार इन कविताओं को पढ़ें। और हां, तीसरा किस्सा इन कविताओं को पढ़ लेने के बाद।




अलक्षित

अभी-अभी जिस दुश्मन को निशाना बनाकर
एक गोली चलाई है मैंने
गोली चलने और उसकी चीख के बीच
कुछ पल के लिए मुझे उसका चेहरा
बिलकुल अपने छोटे भाई महेश जैसा लगा
जिस पर सन् 1973 में
जब मैं आठवीं का छात्र था और वह छठीं का
इसी तरह गोली चलाई थी मैंने
स्कूल में खेले जा रहे बंग-मुक्ति नाटक में
मैं भारतीय सैनिक बना था और वह पाकिस्तानी

बंदूक नकली थी पर भाई की चीख इतनी असली
कि भीतर तक कांप गया था मैं
लेकिन तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच
जिस तरह नजर अंदाज कर दी जाती हैं बहुत सी चीजें
अलक्षित रह गया था मेरा कांप जाना

सब दे रहे थे बांके बिहारी मास्साब को बधाई
जो इस नाटक के निर्देशक थे
और जिन्होंने कुछ तुकबंदियां लिखी थीं जिन्हें कविता मान
मुहावरे की भाषा में लोग उन्हें कवि हृदय कहते थे

नाटक खत्म होने के बाद
गदगद भाव से बधाइयां ले रहे थे बांके बिहारी मास्साब
और तेरह साल का बच्चा मैं, सोच रहा था
कि गोली मेरी और चीख मेरे भाई की
फिर बधाइयां क्यों ले रहे हैं बांके बिहारी मास्साब

अभी-अभी जब असली गोली चलाई है मैंने
तो मरने वाले के चेहरे में अपने भाई की सूरत देख
एक पल के लिए फिर कांप गया हूं मैं
पर मुझे पता है कि इस बार भी अलक्षित ही रह जाएगा
मेरा यह कांप जाना

दर्शक दीर्घा में बैठे लोग मेरे इस शौर्य प्रदर्शन पर
तालियां बजा रहे होंगे
और बधाइयां बटोर रहे होंगे कोई और बांके बिहारी मास्साब।


दुश्मन के चेहरे में

वह आदमी जो उस तरफ बंकर में से जरा सी मुंडी निकाल
बाइनोकुलर में आंखें गड़ा देख रहा है मेरी ओर
उसकी मूंछे बिलकुल मेरे पिता जी की मूंछों जैसी हैं
खूब घनी काली और झबरीली
किंतु पिता जी की मूंछें तो अब काली नहीं
सन जैसे सफेद हो गए हैं उनके बाल
और पोपले हो गए हैं गाल दांतों के टूटने से
पर जब पिता जी सामने नहीं होते
और मैं उनके बारे में सोचता हूं
तो काली घनी मूंछों के साथ
उनका अठारह बीस साल पुराना चेहरा ही नजर आता है
जब मैं उनकी छाती पर बैठकर
उनकी मूंछों से खेलता था
खेलता कम था, मूंछों को नोचता और उखाड़ता ज्यादा था
जिसे देख मां हंसती थी
और हंसते हुए कहती थी-
बहुत चल चुका तुम्हारी मूंछों का रौब-दाब
अब इन्हें उखाड़ फेंकेगा मेरा बेटा
बरसों से नहीं सुनी मां की वो हंसी
पिता की मिल में हुई जिस दिन तालाबंदी
उसी दिन से मां के होठों पर भी लग गए ताले
जिनकी चाबी खोजता हुआ मैं
जैसे ही हुआ दसवीं पास
एक दिन बिना किसी को कुछ बताए भर्ती हो गया सेना में

पहली तनख्वाह से लेकर आज तक
हर माह भेजता रहा हूं पैसा
पर घर नहीं हो सका पहले जैसा

मेरे पालन-पोषण और पढ़ाई लिखाई के लिए
जो-जो चीजें बिकी या रेहन रखी गई थीं
एक-एक करके वे फिर आ गई हैं घर में
नहीं लौटी तो सिर्फ मां की हंसी
और पिता जी के चेहरे का रौब
छोटे भाई के ओवरसियर बनने और
मेरे विवाह जैसे शुभ प्रसंग भी
नहीं लौटा सके ये दोनों चीजें
मैं जिन्हें घर से आए पत्रों में ढूंढ़ता हूं हर बारा

आज ही मिले पत्र में लिखा है पिता जी ने-
तीन साल बाद छोटा घर आया है दस दिन के लिए
तुम भी आ जाते तो मुलाकात हो जाती
बहू भी बहुत याद करती है
और अपनी मां को तो तुम जानते ही हो
इस समय भी जब मैं लिख रहा हूं यह पत्र
उसकी आंखों से हो रही है बरसात

बाइनोकुलर से आंख हटा
जेब से पत्र निकालता हूं
इस पर लिखी है बीस दिन पहले की तारीख
यानी पत्र में जो इस समय है
वह तो बीत चुका है बीस दिन पहले
फिर ठीक इस समय क्या कर रही होगी मां
सोचता हूं तो दिखने लगता है एक धुंधला-सा दृश्य
मां बबलू को खिला रही है
और उसकी हरकतों में मेरे बचपन की छवियों को तलाशती हुई
अपनी आंखों की कोरों में उमड़ आई बूंदों को
टपकने के पहले ही सहेज रही है अपने आंचल में

पिता जी संध्या कर रहे हैं
और मेरी चिंता में बार-बार उचट रहा है उनका मन
पत्नी के बारे में सोचता हूं
तो सिर्फ दो डबडबाई आंखें नजर आती हैं
बार-बार सोचता हूं कि याद आए उसकी कोई रूमानी छवि
और हर बार नजर आती हैं दो डबडबाई आंखें

बहुत हो गई भावुकता
बुदबुदाते हुए पत्र को रखता हूं जेब में
और बाइनोकुलर में आंखें गड़ाकर
देखता हूं दुश्मन के बंकर की ओर

बंकर से झांक रहे चेहरे की मूंछें
बिलकुल पिताजी की मूंछों जैसी लग रही हैं
क्या उसे भी मेरे चेहरे में
दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान?


स्वगत

खून जमा देने वाली इस बर्फानी घाटी में
किसके लिए लड़ रहा हूं मैं
पत्र में पूछा है तुमने
यह जो बहुत आसान सा लगने वाला सवाल
दुश्मन की गोलियों का जवाब देने से भी
ज्यादा कठिन है इसका जवाब

अगर किसी और ने पूछा होता यही प्रश्न
तो, सिर्फ अपने देश के लिए लड़ रहा हूं
गर्व से कहता सीना तान
पर तुम जो मेरे बारीक से बारीक झूठ को भी जाती हो ताड़
तुम्हारे सामने कैसे ले सकता हूं इस अर्धसत्य की आड़
देश के लिए लड़ रहा हूं यह हकीकत है लेकिन
कैसे कह दूं कि उनके लिए नहीं लड़ रहा मैं
जो मेरी जीत-हार की विसात पर खेल रहे सियासत की शतरंज
और कह भी दूं तो क्या फर्क पड़ेगा
जब कि जानता हूं इनमें से कोई न कोई
उठा ही लेगा मेरी जीत-हार या शहादत का लाभ

मेरा जवाब तो छोड़ो
तुम्हारे सवाल से ही मच सकता है बवाल
सरकार सुन ले तो कहे-
सेना का मनोबल गिराने वाला है यह प्रश्न
विपक्ष के हाथ पड़ जाए
तो वह इसे बटकर बनाए मजबूत रस्सी
और बांध दे सरकार के हाथ-पांव
इसी रस्सी से तुम्हारे लिए
फांसी का फंदा भी बना सकता है कोई

इसलिए तुम्हारे इस सवाल को
दिल की सात तहों के नीचे छिपाता हूं
और इसका जवाब देने से कतराता हूं।
- अरुण आदित्य

.................

तीसरा किस्सा
राजेंद्र नगर (इंदौर) का आपले वाचनालय। 14 सितंबर या उसके आस-पास की कोई तारीख। हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में कवि सम्मेलन था। मित्र प्रदीप मिश्र संचालन कर रहे थे। कारगिल युद्ध के बाद का ताजा-ताजा उल्लास-उन्माद था। वीर रस की कविताओं की बाढ़ थी। एक कवि ने मुशर्रफ की छाती पर तिरंगा फहराने जैसी कोई कविता इतने जोश से पढ़ी कि काफी देर तक तालियां गूंजती रहीं। वह एक दुबला पतला सा युवक था। प्रदीप ने उसके बाद मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया। मैं यही कविताएं ले गया था पढऩे के लिए, लेकिन माहौल देखकर मेरा विश्वास डगमगा गया। लगा कि उल्लास-उन्माद के इस माहौल में इन कविताओं को कौन सुनेगा? मन में विचार आया कि कुछ प्रेम कविता वगैरह पढ़ देना चाहिए। प्रेम तो सदाबहार है। लेकिन जब डायस पर पहुंचा तो मन बदल गया। मैंने खुद से पूछा, क्या मुझे अपनी कविता पर भरोसा नहीं है? अगर आज इस उन्मादी माहौल में मैं इन्हें नहीं पढ़ सकता हूं, तो वह शुभ घड़ी कब आएगी जब इनका पाठ किया जाएगा। सो मैंने सोच लिया कि यही कविताएं पढ़ूंगा, चाहे लोग वाह-वाह कहें या हाय-हाय। मैंने थोड़ी सी भूमिका बांधी। उपस्थित श्रोताओं से सीधे सवाल किया, 'क्या हमें वीर रस की कविता लिखने का हक है? हम अपने जीवन में कितनी वीरता दिखा पाते हैं?' आज मुझे लगता है कि उस दिन मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था, लेकिन मैंने उस वीर रस के कवि की ओर इंगित करके कहा- 'अभी-अभी जो सज्जन मुशर्रफ की छाती पर तिरंगा फहराने की बात कर रहे थे, यही जब इस हाल के बाहर निकलेंगे तो गली का एक मरियल सा गुंडा भी अगर चाकू दिखा देगा तो अपने कपड़े तक उतार कर दे देंगे। चंद बरदाई जब पृथ्वीराज रासो लिखता था तो वह खुद युद्धक्षेत्र में मोर्चा भी लेता था। सच तो यह है कि मित्रो, युद्ध का मतलब हम समझ ही नहीं सकते हैं। इसका मतलब उस मां के दिल की धड़कन ही बता सकती है, जिसका बेटा युद्ध क्षेत्र में लड़ रहा होता है। युद्ध का मतलब वह पत्नी बता सकती है जो एक-एक पल गिनकर मोर्चे से पति के लौटने का इंतजार कर रही है। उस बाप से पूछो जिसके हंसते मुस्कराते बेटे की जगह उसका ताबूत अभी-अभी अभी आया है। मित्रो, मैं जो पढऩे जा रहा हूं वह कविता नहीं एक सैनिक के मन के तीन पन्ने हैं। अगर इन पन्नों को पढ़कर आपके मन में जरा भी उथल-पुथल मचे तो मैं अपनी मेहनत सफल समझूंगा।'
इसके बाद लोगों ने जिस धैर्य से इन कविताओं को सुना और बाद में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं, उससे कविता पर मेरा विश्वास और दृढ़ हो गया।
मित्रो, मैं जानता हूं ये बहुत साधारण कविताएं हैं और उससे भी साधारण ये किस्से हैं। पर इन में कुछ ऐसा है जो कविता पर मेरे विश्वास को दृढ़ करता है। आपका क्या कहना है...

34 comments:

निशाचर said...

अरुण जी, कवितायेँ पढ़ी. अच्छी हैं. एक सवाल आपसे. क्या आपके परिवार, रिश्तेदार में से कोई सेना में है? अगर हाँ, तो कृपया एक बार ये कवितायेँ उसे भी पढ़वाईयेगा.

सभागारों में तालियाँ लूटना आसान है. सीमा पर जान देने का जज्बा सिर्फ नौकरी बचाने की फिक्र से नहीं आता. यह मानसिकता सीमा से दूर दफ्तरों में कुर्सिया तोड़ने और एसी कमरों में बैठकर मेज के ऊपर से ज्यादा मेज के नीचे ध्यान रखने वालों में ही पाई जाती है.

शिरीष कुमार मौर्य said...

तीनों किस्से और कविताएँ .....मन में बहुत सारी उथल पुथल हुई.

विजय गौड़ said...

एक त्वरित टिप्पणी में कहूं तो कोई प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। कविताओं का प्रभाव गहरा है। इतना गहरा कि छोटे भाई महेश की यादें पीछा कर रही हैं तो मन हो रहा है कि पिता की मूछे और उनके नीचे से झांकर्ती मुस्कान से फ़ट पडे बंकर। हां तीसरी कविता थोडा ज्यादा बढ कर बोल रही है पर इतना नहीं कि उसकी आवाज को सुना न जा सके। क्या बधाई कहूं। नहीं, सलाम।

Unknown said...

aise vishya par itnaa saaf aur itnaa marmsparshi post de kar aapne apne paathakon ko nihaal kar diyaa hai...

ek nahin, anek baar
baar-baar pathan yogya saamagri....

abhinandan aapkaa !

मुनीश ( munish ) said...

Kargil was not just another battle Aditya ji. It was the battle of nerves fought on the highest altitude of planet earth.
Surely it is beyond the realm of poetry . Just try walking on a plane surface there and realize how did they terminate enemy sitting on lofty heights .
The enemy there was not HUMAN . Did u not read in papers what he did to the first patrol party led by Saurav Kaalia .
Do u really think those barbarians would have looked at us like humans?
They were vultures, blood thirsty jackals and blood sucking hyenas. Since u were saved by the paltan ,now u r equating that battle to any other war!FIE !

Arun Aditya said...

मुनीश जी,

किसी भी युद्ध में दुश्मन ह्यूमन नहीं होता है। युद्ध अपने आप में एक अमानवीय व्यवहार है। महाभारत में क्या हुआ था अभिमन्यु के साथ। निहत्थे बालक को किस तरह घेरकर मारा गया। और मृत शरीर के साथ क्या सुलूक किया था जयद्रथ ने। युद्ध का मतलब ही होता है, दुश्मन को मारना। आप नहीं मारोगे तो वह आपको मार देगा। महाभारत युद्ध दुर्योधन की हठधर्मी का नतीजा था, तो कारगिल मुशर्रफ की सनक का परिणाम था। ज्यादातर युद्ध अकसर राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं-हठधर्मियों या सनक के चलते होते हैं, लेकिन आम सैनिक को जान गंवानी पड़ती है। उस आम सैनिक के दर्द को क्या राजसत्ताएं समझती हैं?
इन कविताओं में ऐसे ही सैनिकों का पक्ष है, जो highest altitude of planet earth पर battle of nerves लड़ रहे हैं। इन कविताओं में जो सैनिक हैं, वे वीर-धीर हैं और अपने कर्तव्य को पूरी तरह निभा रहे हैं। एक ने अभी-अभी एक दुश्मन को मार गिराया है। लेकिन उसकी चीख सुनकर एक पल के लिए उसके मन में मानवीयता जगी है। दूसरी कविता में भी सैनिक खुद से कहता है, बहुत हो गई भावुकता। और व्यावहारिक होकर दुश्मन के बंकर की ओर देखता है। इसके बावजूद जब उसके भीतर का मनुष्य दुश्मन के चेहरे में आत्मीय पहचान देखने से बाज नहीं आ रहा तो वह अपने भीतर के मनुष्य से सवाल भी करता है- क्या उसे (दुश्मन को) भी मेरे चेहरे में दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान। इस महत्वपूर्ण सवाल के साथ ही दूसरी कविता खत्म होती है, लेकिन यह बात शायद आपकी नजर से चूक गई। यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सैनिक भी जानता है कि युद्ध में एकतरफा मानवता दिखाने से कुछ नहीं होता, अगर दूसरा पक्ष बर्बरता पर उतारू हो।
तीसरी कविता में एक सैनिक की पत्नी जानना चाहती है कि किसके लिए लड़ रहे हो? वह कहता है, देश के लिए लड़ रहा हूं, यह सच है, लेकिन यह कैसे कह दूं कि उनके लिए नहीं लड़ रहा हूं, जो मेरी जीत हार या शहादत का लाभ उठाने को बेचैन हैं। और आपने देखा ही होगा वोट के भूखे लोगों ने इस युद्ध और शहीदों की शहादत को चुनाव में किस तरह भुनाया?
इन तीनों कविताओं में एक सैनिक की मन:स्थिति और उसकी पीड़ा को ही बयां करने की कोशिश की गई है। ये उनके मन में उपजने वाले सवाल हैं कि- गोली मेरी और चीख मेरे भाई की, फिर बधाइयां क्यों बटोर रहे हैं बांके बिहारी मास्साब? क्या उन्हें खुद से सवाल करने या कुछ पल के लिए ह्यूमन होने का भी अधिकार नहीं है। मुनीश जी, यह तो उनके साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी होगी।
और हां, कोई भी युद्ध कविता के दायरे से बाहर नहीं हो सकता। महाभारत जैसा महाकाव्य युद्ध की ही गाथा है? और अगर अर्जुन ने सवाल न किया होता कि अपने ही लोगों के खिलाफ यह युद्ध मैं क्यों लड़ूं तो फिर गीता कैसे लिखी जाती? गीता महाभारत पुरानी चीजें हैं, धर्मवीर भारती का नाटक अंधायुग तो अभी कुछ दशक पहले ही लिखा गया है।

मुनीश ( munish ) said...

Logic spoils the beauty of love and war ! India does need 'Yuddhonmaad' if it wishes to survive .

Arun Aditya said...

मुनीश जी,
युद्ध उन्माद से नहीं शौर्य और धैर्य की रण नीति से जीते जाते हैं। तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है िक
-सौरज धीरज तेहि रथ चाका
यानी राम के पास धर्म का जो विजय रथ है, उसके दो पहिए शौर्य और धैर्य हैं। उन्माद कहीं नहीं है। उन्माद रावण की सेना में था, उसका हश्र क्या हुआ? अफगानिस्तान के तालिबानी शासन ने कम उन्माद नहीं फैलाया था लेकिन उसका हश्र भी हम सब जानते हैं। उन्माद बुद्धि विवेक को हर लेता है, ऐसे में व्यक्ति न तो युद्ध जीत सकता है और न ही सार्थक बहस कर सकता है।

कुमार अम्‍बुज said...

ये कविताएं वसुधा में ही पढ़ी थीं और अच्‍छी लगी थीं। अब उनका यहां फिर से पढ़ना अच्‍छा लगा।

मुनीश ( munish ) said...

Bandhuvar u r right ,but notice i wrote THE word within inverted commas.Iti shubham.

neeraj pasvan said...

बहुत ही असरदार और माकूल 'Pacifist' कविताएं। बधाई....और उतना ही माकूल ज़वाब...! दोहरी बधाई!

umashankar singh said...

kavita jitni marmik hai, kisse utne hi rochk. kisse nahi, kavita ke janm aur smaj me uske mahtav ki khani. kargil me mare sainik, lekin uske dam pe satta mili vahan musaraff auv yahan vajpayu ko. nida fajli ke shabdon me insan vahan bhi paresan raha, yahan bhi. yudhounmad aur vaise mahol me paida ki jani vali viyagra chap nakli desbhakti se niptne ka kargar hathiyar sabit ho sakti hai aapki ye kavitain. hindi samaj aapka rini hai.

रजनीश 'साहिल said...

dobara ye kavitayen padhkar achchha laga. shukriya aur badhai.

V said...

मार्मिक! अगर शब्दों में कहा जाये तो सबसे सटीक शब्द मुझे यही लगा | वैसे कविताओं को पढ़ते हुए जो तस्वीर मस्तिष्क में बनी वो इस शब्द से कहीं ज्यादा "मार्मिक" थी | इन कविताओं के माध्यम से आपने युद्ध का वो कड़वा सच प्रस्तुत कर दिया जो, अक्सर राष्ट्रवाद और देशभक्ति के थोथे दंभ में छिपा दिया जाता है| "निशाचर" जी और मुनीश जी की टिप्पणियों से मैं पूरी तरह से असहमत हूँ |
हमें एक ऐसी दुनिया बनाने का प्रयास तोह करना ही होगा जो युद्धों और शोषण से मुक्त हो, जहाँ "क्लस्टरों" के धमाके न सुनाई देते हों |
अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए न जाने कितने फासिस्ट हिटलरों नें युद्धों का सहारा लिया है, हमारे दौर के राजनेता भी ऐसा ही करने की फिराक में हैं और ऐसा कर भी रहे हैं, पहली कविता "अलक्षित" इस बात की सटीक अभिव्यक्ति करती है |

Ashok Kumar pandey said...

कवितायें पहले वसुधा में पढी थीं और अब एक बार फिर पढकर बैचेनी हुई।
हो सकता है मुनीश जी कि आपके इण्डिया को युद्धोन्माद की ज़रूरत हो मेरे देस को बिल्कुल नहीं।
कवि केवल उभार के सच पर ही नहीं सोचता उसे नये और असली सच की तलाश करनी होती है जो उन्मादों की भीड मे ढंक जाता है।

इसी दौरान मैने भी एक सैनिक की मौत लिखी थी जो पहले इतिहासबोध फिर परिवर्धित रूप में परिकथा में छपी थी। जब शिवपुरी में एक एकल काव्यपाठ में इसे पढा तब भी कई लोग ऐसे ही भडके थे।
http://asuvidha.blogspot.com

पर आज ही उसे लगाया है।

दिगम्बर नासवा said...

मार्मिक, सटीक........... अपना अपना भाव लिए तीन कवितायें लाजवाब लगी हैं...........

प्रदीप कांत said...

कवितायें अच्छी हैं.

अशोक कुमार पाण्डेय का कहना सही है कि कवि केवल उभार के सच पर ही नहीं सोचता उसे नये और असली सच की तलाश करनी होती है जो उन्मादों की भीड मे ढंक जाता है।

varsha said...

देर से आने के लिए मुआफी और यह मेरा ही नुकसान था ...बहरहाल राष्ट्रवाद के नाम पर लड़े जानेवाले तमाम युद्धों की हकीकत यही है .बस क्षण भर के लिए सैनिक काँप ही सकता है इससे ज्यादा सोचेगा तो गाँव में घर का चूल्हा नहीं जलेगा. कविता में विशवास प्रबल हुआ है.वीर रस के बीच आपकी कविताओं का असर उम्मीद जगानेवाला है. देवातालेजी से मिले अरसा हो गया है.

हरकीरत ' हीर' said...

तीनों कवितायेँ छू गयी ....बहुत गहरी ...मार्मिक ...शब्दों का अद्भुत समिश्रण ....!!

pankaj srivastava said...

अरुण भाई, आपकी कविताएं दमदार हैं। पर ज्यादा दमदार रहा आपका चुटकुलेबाजों के बीच कविता को स्थापित करना। इस मामले मे ज्यादातर अच्छे और जरूरी कवि साहस नहीं दिखा पाते। अफसोस, हिंदी कविता के सार्वजनिक मंचों पर जोकर काबिज हैं।
उम्मीद है आपकी और भी कविताएं पढ़ने को मिलेंगी। हालांकि कोई हक नहीं, पर एक सलाह दूंगा-जिनसे संवेदना या विचार के धरातल पर न्यूनतम सहमति न हो, ऐसे ब्गालचरों से बहस में वक्त जाया न किया करे। भर्तहरि के नीतिशतक के श्लोक का अनुवाद कुछ यूं है-------

बांध सको बौराए हाथी को
नरम मृणाल के रेशे से
काट सको वज्रमणि हीरे को
शिरीष के फूलों की नोक से
कि किसी में हो शक्ति
इतनी दिव्य
कि एक बूंद शहद से मीठा कर दे
पूरा समुद्र
वैसा ही है एक काम बड़ा
रास्ते पर लाना किसी मूर्ख को
बोलकर मीठी बातें।

राहुल पाठक said...

Sachmuch dil ko chu lene vali kavita hai arunji.......badhai wikare

ताऊ रामपुरिया said...

इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.

Bahadur Patel said...

अरुण भाई कवितायेँ जब वसुधा में नहीं आयीथी तब भी आपसे ही सुनी थी . फिर वसुधा में भी पढ़ी थी . उस दौरान काफी मिलाना हो जाता था . कविता के साथ साथ जो टिप्पणियां अपने लिखी है . पढ़कर पुराने दिनों की याद ताज़ा हो गई .
बधाई हो आपको.

Pradeep Jilwane said...

आदरणीय अरूणजी,
लड़ाई के दौरान कारगिल पर थोक में रचनाएं आई लेकिन संभवतः उस भीड़ में इन कविताओं का अपना ही आनंद है. शायद इसीलिए लड़ाई के इतने दिनों बाद तक इनके आस्‍वाद में कोई फर्क नहीं आया है. जानकर और प्रसन्‍नता हुई कि आप खरगोन भी आ चुके हैं. और अब भी यह शहर आपकी स्‍मृति में ताजा है और तो और इतनी महत्‍वपूर्ण कविताओं की भूमिका भी खरगोन प्रवास के दौरान ही बनी. उस समय तो खैर मैं कविता की अ आ ... ही सीख रहा था.
बहरहाल... बधाई एवं शुभकामनाएं
- प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.

रतन चंद 'रत्नेश' said...

kargil par kavitayen behad pasand aayin. Kuchh alag hatkar hain.

श्याम जुनेजा said...

dvait ke dvndv mein kya hinsa ka koi vikalp hai? manav vikas ke itihas mein hum kewal ek Budh doosrey Mahavir ko jantey hain. teesra koi hai to btaiye. kambal ko hum chodna chahtey hain par kambal hameyn nahin chhodta. Is vishay par kavita likhna ek bat hai, kisi nishkarsh tak aana???

Rati said...

अरुण जी, संभवतः आपने कृत्या पढ़ी हो, कृपया देखिए

www.kritya.in

और अपनी कविताएँ कृत्या के लिए भी भेजिए

अच्छी कविताओं के लिए बधाई!

रति सक्सेना

Rati Saxena said...

अरुण जी, संभवतः आपने कृत्या पढ़ी हो, कृपया देखिए

www.kritya.in

और अपनी कविताएँ कृत्या के लिए भी भेजिए

अच्छी कविताओं के लिए बधाई!

रति सक्सेना

गौतम राजऋषि said...

जाने कहाँ-से भटकता-भटकता आज इस पन्ने पर आकर ठिठक गया....
कवितायें पढ़ीं- तीनों की तीनों...कविता से ज्यादा दिलचस्प तो वैसे किस्से लगे...कविता शायद कविता के तौर पर बहुत अच्छी हो, लेकिन टिप्पणी में उपजी बहसों पर मुस्कुरा रहा हूँ। सब कहने-सुनने वाली बड़ी-बड़ी बातें हैं।
जब गोलियां चलती हैं तो बस प्रशिक्षण के दौरान सीखायी गयी बातें ध्यान में रहती हैं...एक बारगी को जरूर खौफ़ कौंधता है मन में प्रियजनों से बिछड़ने का, लेकिन बस एक बार को...उसके बाद बस वो दुश्मन नजर आता है....दुश्मन की मुंछों को देखकर पिता की स्मृति तनिक अतिश्योक्ति है। यकीन मानिये, बस यूं ही नहीं कह रहा ये बात।
इस युद्ध को बहुत ही करीब से देखा-सुना और महसूसा है और थोड़ी-बहुत कविता की समझ का भी भ्रम पाले हुये हूँ....

panka mukati said...

arun ji
teeno hi kavita bahut marmik aur dil ko chuune wali hai.. khaskar
peetaji ki safed mooch wali. bahgdaud aur metro ki jindgi main aisi kavita padhna ghar se jodta hai. jindgi se jodta hai.. poori kavita padhkar bachapan ki tasveer aur maa-baap ki mehnat samne aa ja ti hai.. shukriya..kripya nirantarta banaye rakhiya.. hamen accha lagega.. kuch naya milega..

प्रज्ञा पांडेय said...

आपकी तीनों कवितायेँ पढ़ीं .. विचारों को आन्दोलित करती हैं आपकी कवितायेँ

Meenu Khare said...

अच्छी कवितायेँ,गहरा प्रभाव.

AWAJ Pratibha Chauhan said...

अरूण जी आपकी कविताएं दिल को छू लेने वाली हैं।

सुशील कुमार जोशी said...

अच्छी कविताएं।