आवाहन
शब्द आओ मेरे पास
जैसे मानसून में आते हैं बादल
जैसे बादलों में आता है पानी
जैसे पगहा तुड़ाकर गाय के थनों की ओर दौड़ता है बछड़ा
जैसे थनों में आता है दूध
इस तरह मत आओ जैसे
रथों पर सवार आते हैं महारथी
बस्तियों को रौंदते हुए
किसी रौंदी हुई बस्ती से आओ मेरे शब्द
धूल से सने और लहू लुहान
कि तुम्हारा उपचार करेगी मेरी कविता
और तुम्हारे लहू से उपचारित होगी वह स्वयं
याचक की तरह मत मांगो किसी कविता में पनाह
आओ तो ऐसे, जैसे चोट लगते ही आती है कराह
संतों महंतों की बोली बोलते हुए नहीं
तुतलाते हुए आओ मेरे शब्द
वस्त्राभूषणों से लदे-फंदे नहीं
नंग-धड़ंग आओ मेरे शब्द
किसी किताब से नहीं
गरीबदास के ख्वाब से निकलकर आओ मेरे शब्द
कि मैं सिर्फ एक अच्छी कविता लिखना चाहता हूँ
और उसे जीना चाहता हूँ तमाम उम्र ।
8 comments:
शानदार प्रवाहमयी कविता। अच्छी कविता लिखने की इच्छा वाली एक सशक्त
दमदार अभिव्यक्ति।
मैं सिर्फ एक अच्छी कविता लिखना चाहता हूँ
और उसे जीना चाहता हूँ तमाम उम्र...
बहुत अच्छा लिखा है आपने. बधाई।
आप की कविताओं में लय और वस्तु का संगम पाठक को जोड़ता है। अ आ और इस तरह मत आओ.. दोनों ही कविताएं अरूण आदित्य के काव्य संस्कारों से भरपूर हैं। बधाई
अजित जी, जे पी नारायण जी, और मित्र प्रदीप! आप सब को धन्यवाद.
अ आ का स्वागत! कविता बहुत अच्छी है, ताजगी से भरपूर. इसे पढ़कर मुझे मनोज रुपड़ा की कहानी सेक्सोफोन की पंक्तियां याद आ गई जिसमें एक बूढ़ा कहता है कि वह सिर्फ सेक्सोफोन बजाना चाहता है. जैसा आपने लिखा है, मैं सिर्फ एक अच्छी कविता लिखना चाहता हूं. बधाई.
सर्वहत की एक और कविता !!! - मनीष
सुदीप जी, मनीष जी, बहुत-बहुत शुक्रिया।
arun ji kavitain pasand ayi
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