Saturday, January 12, 2008

इस तरह मत आओ जैसे रथों पर सवार आते हैं महारथी

आवाहन

शब्द आओ मेरे पास
जैसे मानसून में आते हैं बादल
जैसे बादलों में आता है पानी

जैसे पगहा तुड़ाकर गाय के थनों की ओर दौड़ता है बछड़ा
जैसे थनों में आता है दूध

इस तरह मत आओ जैसे
रथों पर सवार आते हैं महारथी
बस्तियों को रौंदते हुए
किसी रौंदी हुई बस्ती से आओ मेरे शब्द
धूल से सने और लहू लुहान
कि तुम्हारा उपचार करेगी मेरी कविता
और तुम्हारे लहू से उपचारित होगी वह स्वयं

याचक की तरह मत मांगो किसी कविता में पनाह
आओ तो ऐसे, जैसे चोट लगते ही आती है कराह

संतों महंतों की बोली बोलते हुए नहीं
तुतलाते हुए आओ मेरे शब्द
वस्त्राभूषणों से लदे-फंदे नहीं
नंग-धड़ंग आओ मेरे शब्द

किसी किताब से नहीं
गरीबदास के ख्वाब से निकलकर आओ मेरे शब्द

कि मैं सिर्फ एक अच्छी कविता लिखना चाहता हूँ
और उसे जीना चाहता हूँ तमाम उम्र ।

8 comments:

अजित वडनेरकर said...

शानदार प्रवाहमयी कविता। अच्छी कविता लिखने की इच्छा वाली एक सशक्त
दमदार अभिव्यक्ति।

जेपी नारायण said...

मैं सिर्फ एक अच्छी कविता लिखना चाहता हूँ
और उसे जीना चाहता हूँ तमाम उम्र...

बहुत अच्छा लिखा है आपने. बधाई।

प्रदीप मिश्र said...

आप की कविताओं में लय और वस्तु का संगम पाठक को जोड़ता है। अ आ और इस तरह मत आओ.. दोनों ही कविताएं अरूण आदित्य के काव्य संस्कारों से भरपूर हैं। बधाई

Arun Aditya said...

अजित जी, जे पी नारायण जी, और मित्र प्रदीप! आप सब को धन्यवाद.

sudeep thakur said...

अ आ का स्वागत! कविता बहुत अच्छी है, ताजगी से भरपूर. इसे पढ़कर मुझे मनोज रुपड़ा की कहानी सेक्सोफोन की पंक्तियां याद आ गई जिसमें एक बूढ़ा कहता है कि वह सिर्फ सेक्सोफोन बजाना चाहता है. जैसा आपने लिखा है, मैं सिर्फ एक अच्छी कविता लिखना चाहता हूं. बधाई.

Unknown said...

सर्वहत की एक और कविता !!! - मनीष

Arun Aditya said...

सुदीप जी, मनीष जी, बहुत-बहुत शुक्रिया।

विजय गौड़ said...

arun ji kavitain pasand ayi