ठोकर
हम अपनी रौ में जा रहे होते हैं
अचानक किसी पत्थर की ठोकर लगती है
और एक टीस सी उठती है
जो पैर के अंगूठे से शुरू होकर झनझना देती है दिमाग तक को
एक झनझनाहट पत्थर में भी उठती है
और हमारे पैर की चोट खाया हुआ हत-मान वह
शर्म से लुढ़क जाता है एक ओर
एक पल रुककर हम देखते हैं ठोकर खाया हुआ अपना अंगूठा
पत्थर को कोसते हुए सहलाते हैं अपना पांव
और पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी
झाड़ती है भय संकोच की धूल और ला खड़ा करती है उसे
किसी और के गुरूर की राह में।
-अरुण आदित्य
(पल-प्रतिपल के सितंबर-दिसंबर2 000 अंक में प्रकाशित। पल प्रतिपल का पता है : पल प्रतिपल, एससीएफ-267, सेक्टर-16, पंचकूला। देश निर्मोही इसके संपादक हैं। )
15 comments:
पल-प्रतिपल kaa email id ublabdh ho saktaa hae kya ??
sundar hai arun ji.
सर, उम्दा कविता है। शायद पीड़ितों को कुछ राहत मिले।
बहुत अच्छी कविता.
बहुत अच्छी रचना.
'...और पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी', उम्दा पंक्ति. अच्छी कविता.
पत्थर के आहत स्वाभिमान को सहलाती है पृथ्वी
झाड़ती है भय संकोच की धूल और ला खड़ा करती है उसे
किसी और के गुरूर की राह में।
bahut hi sundar rachna..gahare bhaav liye hue!
वाह जी वाह.
बहुत अच्छी कविता.
बधाई.
आपकी ये कविता चित्र जैसी
और
चित्र कविता जैसा ही है !
बधाई.===============
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पत्थर मिला जो राह में पाषाण कह दिया
महलों में लगा देखा तो निर्माण कह दिया
मंदिर में कोई मूरत जो दिख गई कहीं
इंसान ने पाषाण को भगवान कह दिया.
शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन
भाई अरूण,
बेहतरीन कविता के साथ बेहतरीन चित्र के लिय बधाई। काश चित्र के साथ छायाकार का नाम भी होता।
- प्रदीप कान्त
वाह भाई क्या बात कही है, कविता मरहम का काम करेगी एसी आशा है। सिर्फ मरहम ही न दिजीयेगा, अरूण भाई टिका टिप्पणिया के बीच इन ब्लागियो को आटे दाल तेल पेट्रोल का भाव भी अगली कविता में याद दिलवा दिजीयेगा।
हम तो ठहरे मोह माया में फसे सासांरिक प्राणी, ये ब्लागी लोग क्या बहस करते रहते है ये कबीरा की समझ के बाहर है।
रचना, विजय गौर, अनुजा, गीत, समीरलाल जी, विजयशंकर, अल्पना, बालकिशन जी, डॉक्टर जैन साहब, प्रदीप कान्त और परेश भाई आप सब को बहुत-बहुत धन्यवाद ।
@ रचना - पल प्रतिपल का ईमेल आईडी है palpratipal@yahoo.com
कामयाब कविता है अरुणजी! पोस्ट करने के लिए धन्यवाद।
शुक्रिया समर्थ।
Bahut sunder! Very touching
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