
जिसे टेडी बियर की तरह उछाल-उछाल
खेल सके एक बच्चा
जिसे बच्चे की किलकारी समझ
हुलस उठे एक मां
जो प्रतीक्षालय की किसी पुरानी काठ-बेंच की तरह
इतनी खुरदरी हो, इतनी धूलभरी
कि उसे गमछे से पोछ नि:संकोच
दो घड़ी पीठ टिका सके कोई लस्त बूढ़ा पथिक
जो रणक्षेत्र में घायल सैनिक को याद आए
मां के दुलार या प्रेयसी के प्यार की तरह
जो योद्धा की तलवार की तरह हो धारदार
जो धार पर रखी हुई गर्दन की तरह हो
खून से सनी, फिर भी तनी
पता नहीं कब लिख सकूंगा ऐसी एक कविता
आज तक तो नहीं बनी।
- अरुण आदित्य
शुक्रवार की साहित्य वार्षिकी से साभार